समाज के त्यक्त, तिरस्कृत और भयोत्पादक तत्त्वों को स्नेहपूर्वक अंगीकार करने वाले देवता हैं शिव। जिस साँप बिच्छू को देखकर समाज डर जाता है, मार देना चाहता है, उसे शिव आभूषण बना लेते हैं। जिस हालाहल विष को समस्त देव-दानव त्याग देते हैं उसे शिव सहर्ष पीते हैं।
समाज गाय से दूध लेता है, युवा बैल से कृषि-कार्य करवाता है लेकिन बूढ़े बैल की उपेक्षा करता है। शिव उस बूढ़े बैल को अपनी सम्पत्ति बनाते हैं। जिस श्मशान में कोई व्यक्ति नहीं जाना चाहता, शिव उसी श्मशान की राख से अपना शृंगार करते हैं। अपने विवाह में, वरयात्रा में जब हर व्यक्ति सूट-बूट पहन, सजा-सँवरा बाराती लेकर जाता है तब शिव मंगल-अवसरों पर तिरस्कृत नंग-धड़ंग, भूत-पिशाच, कुरूप-कुलक्षण बारातियों के साथ अनहद नाद के आनन्द में दूल्हा बनकर निकलते हैं।
आशुतोष हैं शिव! शिव सभी देवताओं की तुलना में शीघ्र प्रसन्न होते हैं, यथेष्ट प्रदान करते हैं। कोई वस्तु व्यक्ति तभी दे सकता है जब उसे खुद कुछ न चाहिए हो। और शिव इसमें बेजोड़ हैं। इसीलिए देवाधिदेव महादेव हैं, औघड़ हैं, दानी हैं बिना किसी भेद-भाव के। राम को तो कोई भी वरदान दे सकता है, रावण को भी यथेच्छित वर देने वाले देव हैं शिव! धनी भक्तों के लिए तो सब देव हैं, किन्तु गरीबों के लिए केवल शिव हैं। बस जलधारा से मुदित हो जाते हैं। पार्थिव शिव और जलाभिषेक! मिट्टी और पानी से अधिक जगत के अधिपति को पूजन के लिए कुछ नहीं चाहिए।
लोक में सर्वाधिक सहजतया स्वीकार्य हैं शिव! भाँग-गाँजा का सेवन और मदिरापान करने वाला हमारे समाज की दृष्टि में निन्दनीय व्यक्ति भी खुद को शिवभक्त समझकर गौरवान्वित हो उठता है। वह जो जहर पीता है उसे शिव का प्रसाद बताकर अपना निर्णय सही ठहराता है। शिव सृष्टि के हर उस वंचित शोषित प्राणी के प्रतिनिधि हैं, जो कुल, गोत्र, जाति, धन आदि लोक में आवश्यक समझे जाने वाले तत्त्वों से हीन है।
भारत में प्रेम का प्रतीक हैं अर्धनारीश्वर शिव! शिव स्त्री-पुरुष की समानता और सहधर्मिता के प्रतीक हैं। शिव एक पुरुष हैं जो स्त्री को अपनी शक्ति मानते हैं। उस शक्ति के अभाव में स्वयं को शव मानते हुए समग्र चेतना को सन्देश देते हैं कि स्त्री-शक्ति के बिना पुरुष कुछ भी कर सकने में असमर्थ है। उन्हें ससुराल में न बुलाए जाने या अपने अपमान की तनिक भी चिन्ता नहीं है।
हर परिस्थिति में दृढ़ हैं, अडिग हैं। किन्तु जब सती के मृत्यु की सूचना मिलती है, तो ताण्डव करते हैं। महाप्रलय करने पर उतर आते हैं। विलाप करते हैं, उन्मत्त हो उठते हैं। जिस पवित्रतम यज्ञ की रक्षा करना देवताओं का दायित्व है, उस यज्ञ के विध्वंसक बन जाते हैं। इसीलिए संहारक हैं शिव! शिव वो प्रेयस हैं जो अपनी प्रेयसी का अपमान नहीं सहन कर सकते।
सभी देवताओं में सबसे निर्धन हैं शिव! त्र्यम्बक (तीन आँखों वाले) हैं, सुन्दर रूप नहीं है, दिगम्बर हैं, साँप बिच्छू उनके आभूषण हैं। कुल मिलाकर एकदम विपन्न! एक तरफ विष्णु भी हैं- सर्वांग-सुन्दर, पीताम्बर, सुन्दर आभूषणों से सजे सँवरे, क्षीरसागर में शेष-शय्या पर लेटे हुए, सभी सुख सुविधाओं से सम्पन्न! फिर भी भारत की कोमल-हृदय स्त्रियों को पति शिव जैसा हो, ऐसी ही अभिलाषा में सोमवार का व्रत रखती हैं।
भारत की स्त्रियाँ अपने लिए ‘रीच और हैण्डसम’ पति की चिन्ता न करके ‘औघड़’ की कामना में तपस्या करती जाती हैं। भारतीय स्त्री को विष्णु के चरणों के पास लक्ष्मी बन कर बैठना प्रिय नहीं है। उन्हें शिव का वह सान्निध्य प्रिय है जो अर्धांगिनी बना ले, हर विषय पर शिव-पार्वती संवाद करें, अपमान होने पर ताण्डव कर दें, संहारक बन जाएँ।
लोक और शास्त्र की अनगिनत कहानियों का विषय हैं शिव! वेदों के रुद्र से लोक के भोलेनाथ तक की यात्रा जब एक संस्कृत का विद्यार्थी सोचता है तो ‘शिव’ का लेखन कैलाश और हिमालय जैसा विशाल विषय बन जाता है। यह बातें संस्कृत के कुछ पद्यों का अनुवाद भर हैं। शिव का दर्शन है, शिव के पुराण हैं, शिव के महाकाव्य हैं, शिव की स्तुतियाँ हैं और लोककथाओं का तो आनन्त्य है।
भारतीय पञ्चाङ्ग का सम्पूर्ण श्रावण मास शिवभक्तों के लिए उल्लास का पर्व है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के साथ-साथ हर नगर हर गाँव का शिवमन्दिर पूरे महीने एक उत्सव के रंग में रंगा रहता है। प्रत्येक घर में पार्थिव-शिव का पूजन भगवान शंकर की व्यापकता को द्योतित करने के लिए पर्याप्त है।
चीन-जनित महामारी के इस दौर में भक्तों की बाह्य उत्सव-धर्मिता कुछ फीकी है लेकिन अन्तर्मन में जो उल्लास क्षण-प्रतिक्षण विकसित होता रहता है, वही शिवत्व है। हमारे लोक-मन में सावन प्रकृति की हरियाली से लेकर चूड़ियों और साड़ी की हरियाली तक रंगा बसा है। यह अच्छा अवसर है सावन में घर बैठकर अपने अन्दर के शिवत्व को पहचानने का, खुद को जानने का। आइए इस पवित्र मास में हम शिव को पढ़ें, शिव को समझें, और ‘हम ही शिव हैं’ इसका अनुभव करें। हर हर महादेव!