जिन्होंने भारत का इतिहास पढ़ा है, उनके सामने एक न एक बार सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह का नाम आया ही होगा। और होली के बारे में कौन नहीं जानता? रंग-अबीर का यह त्यौहार अब भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी फ़ैल चुका है। यहाँ हम भारतीय एवं सिख इतिहास के एक ऐसे अध्याय की तरफ ले जाना चाह रहे हैं, जो दोनों के ही स्वर्णिम युग की याद दिलाता है। महाराजा रणजीत सिंह कोहिनूर धारण किया करते थे। कई हिन्दू, तुर्क और मुस्लिम राजाओं से होते हुए इतिहास के उस काल में कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के पास पहुँचा और क्यों नहीं? रणजीत सिंह की शोभा कोहिनूर से नहीं थी बल्कि कोहिनूर उनके मस्तक पर चढ़ कर इतराया करता था। उनके निधन के बाद धोखेबाज़ अंग्रेजों ने कोहिनूर को जब्त कर लिया और ईस्ट इंडिया कम्पनी ने उसे अपने कब्ज़े में ले लिया।
लाहौर के महल में सबसे भव्य तरीके से मनाए जाने वाले त्योहारों में होली भी शामिल था। होली की तैयारी काफ़ी दिनों पहले से शुरू हो जाया करती थी। उस होली का स्तर कितना भव्य हुआ करता था और उसका ऐश्वर्य और वैभव इतना विशाल था कि रंगों और गुलालों के 300 से भी अधिक टीले खड़े कर दिए जाते थे। होली के दिन इन सबका प्रयोग किया जाता था। शाह बिलावल के बगीचे में महाराजा को होली मनाना अच्छा लगता था। ये उनके पसंददीदा स्थलों में से एक था। बाग में बड़े-बड़े टेंट लगाए जाते थे, इन टेंट्स को काफ़ी अच्छे से सजाया जाता था और दोनों तरफ से सैनिकों से सुसज्जित रखा जाता था। उस दिन बाग की शोभा देखते ही बनती थी। रणजीत सिंह अंग्रेज अधिकारी सर हेनरी के टकले पर गुलाल मल दिया करते थे।
इस होली में महाराजा रणजीत सिंह के दरबारीगण, परिवार के लोग, अंग्रेज, स्थानीय जनता सहित बाहर से आए अतिथि भी होली खेला करते थे। 22 मार्च 1837 में ब्रिटिश आर्मी के कमांडर-इन-चीफ सर हेनरी फेम ने भी इस होली समारोह में शिरकत की, जिसके बाद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी लोग महाराजा रणजीत सिंह की होली के कायल हो गए। उस दिन माहौल कुछ ऐसा हुआ करता था कि पूरा लाहौर रंगों से लाल हो जाया करता था। कहते हैं कि हवा में गुलाल और गुलाबजल का ऐसा सम्मिश्रण घुला होता था कि उस समय रंगीन तूफ़ान आया करते थे। ये सिख सम्राट का ही वैभव था कि उन्होंने सिर्फ़ अंग्रेज अधिकारीयों को ही नहीं रंगा बल्कि प्रकृति के हर एक आयाम को भी रंगीन बना दिया। वातावरण को बदल देने की क्षमता थी महायोद्धा रणजीत सिंह में!
शाहजहाँ द्वारा बनवाए गए लाहौर के किले को लेकर भले ही पाकिस्तान आज इतराता हो लेकिन उस किले की शानो-शौकत महाराजा रणजीत सिंह की देन है। उन्होंने किले के ऊपर कुछ और नए स्ट्रक्चर भी बनवाए। शाह बुर्ज ब्लॉक में स्थित शीश महल ही वह स्थान था, जो महाराजा का सबसे फेवरिट जगह हुआ करता था। शीश महल के ऊपर निर्माण करा कर वे वहाँ पर कोहिनूर हीरा रखा करते थे। जहाँ सालों भर भव्यता और त्यौहार का मौसम रहता था, सोचिए वहाँ होली के समय क्या स्थिति होती होगी? महाराजा ने उस किले को अपने अधिकार में लेने के बाद उसमे राधा-कृष्णा की एक पेंटिंग करवाई। वहाँ की दीवारों पर करवाई गई इस पेंटिंग को महाराजा के दरबारी पेंटरों ने ही बनाया था। कला के भी शौक़ीन थे वो, और धार्मिक आस्थाओं का सम्मान करने में सबसे अग्रणी।
और आपको पता है कि उस पेंटिंग में क्या था? उस पेंटिंग में श्रीकृष्ण और गोपियाँ आपस में होली खेल रहे थे। पेंटिंग में भी रंग और रंगों के त्यौहार का ऐसा समावेश। होली के प्रति महाराजा के प्रेम को इस पेंटिंग को देख कर ही समझा जा सकता है। महाराजा की मृत्यु के बाद भी होली की भव्यता कम नहीं हुई। कहा जाता है कि उस समय भी इस पर एक लाख रुपए के क़रीब ख़र्च हुआ करते थे। महाराजा की मृत्यु के बाद अंग्रेज लोग को भी अवसर दिखने लगा। सत्ता पाने की लालच में उन्होंने लाहौर को अशांत कर डाला। यह रणजीत सिंह का ही प्रभाव था कि होली का ये भव्य आयोजन लाहौर पार कर जम्मू-कश्मीर पहुँचा। उस समय वहाँ ऐसे हालात नहीं थे। रणजीत सिंह का ऐसा प्रभाव था कि कश्मीरी प्यार से होली खेलते और एक-दूसरे पर रंगों की बौछाड़ किया करते थे।
20वीं सदी में सिखों के बीच होला मोहल्ला त्यौहार का अच्छा-ख़ासा प्रचलन था, जो कि होली का ही एक रूप है। अंतरराष्ट्रीय लेखकों द्वारा दक्षिण भारत के इतिहास पर लिखी गई एक पुस्तक से पता चलता है कि उस दिन सिख सैनिकों के बीच तरह-तरह की प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं, जैसे कि घुड़सवारी, पहलवानी, धनुर्विद्या इत्यादि। तीन दिन तक चलने वाले इस त्यौहार में स्वयं गुरु गोविन्द सिंह संगीत और कवी सम्मेलनों का आयोजन करवाया करते थे। कई सारे खेल, गायकी प्रतियोगिता इत्यादि को गुरु काफ़ी बढ़-चढ़ कर बढ़ावा दिया करते थे। पुस्तक में वर्णन है कि आनंदपुर साहिब से शुरू होने वाले इस त्यौहार के दौरान क्या मित्र और क्या अपरिचित, सभी आपस में होली खेला करते थे।
इसका बहुत बड़ा महत्व है। सिखों के इतिहास पर लिखी गई एक अन्य पुस्तक के अनुसार, अगर हम गुरु गोविन्द सिंह की होली को समझें तो पता चलता है कि यह आज भी प्रासंगिक है। एक तरफ जहाँ युद्धकला की प्रतियोगिताएँ होती थीं तो दूसरी तरफ खेल सम्बंधित प्रतियोगिताएँ हुआ करती थीं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यक्ति को अपने शरीर पर तो ध्यान देना ही चाहिए, साथ ही किसी भी प्रकार के आक्रमण के प्रतिघात के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए। यही बात किसी राष्ट्र को लेकर भी लागू होती है। इसके अलावा शांति का सन्देश देने और शांति को बढ़ावा देने के लिए कवि सम्मलेन और गायिकी जैसी प्रतियोगिताओं का सहारा लिया जाता था। शक्ति प्रदर्शन और शांति सिख गुरुओं के काल में एक ही सिक्के के दो पहलू थे, जो आज भी प्रासंगिक है।
शेर-ए-पंजाब महाराजा रणजीत सिंह के निधन के बाद अंग्रेज हावी हो गए। 21 वर्ष की उम्र में ही पंजाब के महाराजा बने रणजीत सिंह शाह महमूद और दोस्त मोहम्मद ख़ान जैसे अफ़ग़ान शासकों को उनकी जगह दिखाई। काबुल नदी के किनारे उन्होंने पश्तूनों के शासक युसूफजई को नाकों चने चबवाया। उनकी शासकीय क्षमता और युद्धकला के आगे उनका होली समारोह कहीं छिप जाया करता था, जिसे हमने आज उभारने की कोशिश की है। तो ये थी महाराजा रणजीत सिंह की होली!