प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार (5 फरवरी, 2022) को विशिष्टाद्वैतवाद का विचार देने वाले महान संत रामानुजाचार्य की प्रतिमा का अनावरण किया। यह प्रत्येक हिन्दू के लिए गौरव का क्षण है क्योंकि इस्लामी आक्रांता जब भारत में पाँव पसारने के लिए लालायित थे, ऐसे समय उन्होंने भारतीयों के हृदय में भक्ति का संचार किया और धार्मिक भावनाओं को और अधिक प्रबल किया। स्वामी रामकृष्णानन्द लिखित श्रीरामनुज चरित में रामानुजाचार्य के जीवन का एक प्रसंग है, जब मेलकोट में यादवाद्रिपति की बंद हो चुकी पूजा और उत्सवों को उन्होंने वापस प्रारंभ करवाया।
इसके लिए वे दिल्ली के सुल्तान से भी भिड़ गए थे। दिल्ली के सुल्तान ने रामानुजाचार्य के पीछे अपने सैनिक भेजे किन्तु वे रामचानुजचार्य का कुछ नहीं बिगाड़ पाए। उल्टा सुल्तान की पुत्री ही रामानुजाचार्य से इतनी प्रभावित हो गई कि उसने अपना घर-बार सब छोड़ दिया और यादवाद्रिपति के विग्रह में रम गई। अपनी दिग्विजयी यात्रा के दौरान सन 1012 में रामानुज यादवाद्रि यानी आज के मेलकोट पहुँचे। वहाँ भ्रमण करते हुए उन्होंने दीमकों की एक बाँबी के स्तूप के नीचे एक देव विग्रह देखा।
आचार्यश्री ने उसका निर्मल जल के प्रक्षालन से उसका उद्धार किया और उस मनोहर जीवंत विग्रह को दर्शन के लिए स्थापित कर दिया। उस दौरान गाँव के वयोवृद्ध लोगों ने उन्हें बताया कि इस पर्वत पर पहले यादवाद्रिपति की पूजा हुआ करती थी, परन्तु मुस्लिमों के यहाँ आकर समस्त देव विग्रह तोड़ते रहने के कारण विष्णु-विग्रह के सेवक, विग्रह को एक गुप्त स्थान में रखकर अन्यत्र चले गए। तब से उनकी पूजा और उत्सव बंद हैं। ग्रामीणों ने बताया कि उन्हें अब निश्चित रूप से लग रहा है कि ये ही वे यादवाद्रिपति हैं और आपके जैसे महापुरुष के आगमन से वे पुनः भक्तों की सेवा ग्रहण करने को उपस्थित हुए हैं।”
PM @NarendraModi ji inaugurated the 216-ft 'Statue Of Equality' dedicated to the 11th century Bhakti Saint Sri Ramanujacharya at Hyderabad today.
— Priti Gandhi – प्रीति गांधी (@MrsGandhi) February 5, 2022
It is a पंचलोह structure promoting the idea of equality in all aspects of life.
#PMModiInHyderabad pic.twitter.com/TmgJJuUXJT
रामानुजाचार्य के प्रभाव से थोड़े ही दिनों के भीतर वहाँ एक सुन्दर तथा विषय मंदिर बन गया किन्तु बात यहाँ रुकी नहीं। दक्षिणी भारत के प्रत्येक मंदिर में हर देवता के दो विग्रह होते हैं। एक को ‘अचल’ कहते हैं, जो मंदिर के बाहर नहीं आते और दूसरे को ‘सचल’ कहा जाता है, जिन्हें उत्सव के समय बाहर लाया जाता है। इसी कारण इन्हें उत्सव-विग्रह भी कहते हैं। यादवाद्रिपति का अचल-विग्रह मंदिर में स्थापित हो चुका था, किन्तु सचल-विग्रह दिल्ली का सुल्तान लूट ले गया था।
इसीलिए, भगवान मंदिर के बाहर जाकर भक्तों एवं पतितजनों को निर्मल तथा आशीर्वादयुक्त नहीं कर पा रहे थे। इतना जानते ही रामानुज ने अपने शिष्यों को लेकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया। दो माह बाद वे नगर में पहुँचे। कहा जाता है कि रामानुज की अंगकान्ति, विद्वत्ता तथा प्रभाव देखकर सुल्तान दंग रह गया और उसने यादवाद्रिपति के सचल-विग्रह को ले जाने की अनुमति दे दी। रामानुज को उस कक्ष में ले जाया गया जहाँ भारतवर्ष के अनेक देवालयों से लुटे हुए विग्रह संग्रहित थे।
वहाँ इस छोर से उस छोर तक ढूँढने पर भी श्री रामानुज को अपना इच्छित विग्रह नहीं मिला। इसका कारण था कि यादवाद्रिपति के सचल-विग्रह को सुल्तान की पुत्री लचिमार बीबी एक खिलौने के रूप में उपयोग में ला रही थी। जब सुल्तान ने अपनी पुत्री का परमप्रिय विग्रह दिखाया तो रामानुज तत्काल ही समझ गए कि यही यादवाद्रिपति के सचल-विग्रह ‘सम्पत-कुमार’ हैं। रामानुजाचार्य ने उस विग्रह को लेकर यादवाद्रि की ओर प्रस्थान किया किन्तु जब लचिमार बीबी को इस विषय में ज्ञात हुआ तो वे व्याकुल हो गईं और उनके दुःख की सीमा ना रही।
लचिमार बीबी के दुःख को देखकर सुल्तान ने अपनी सेना की एक टुकड़ी को आदेश दिया कि तुम लोग शीघ्र ही उस ब्राह्मण के हाथ से मूर्ति छीन लाओ। सुल्तान की उस टुकड़ी के साथ लचिमार बीबी भी चल पड़ी किन्तु तब तक रामानुज बहुत आगे निकल गए थे। मार्ग में वे निश्चित रूप से सुल्तान की सेना के हाथों चढ़ जाते किन्तु चाण्डालों से उन्हें विशेष सहायता मिली जिस कारण वे विग्रह के साथ स्वदेश पहुँचने में सफल हुए। सुल्तान ने सोचा था कि कदाचित अभीष्ट वस्तु के प्राप्त हो जाने के बाद लचिमार बीबी का उन्माद शांत हो जाएगा।
किन्तु, रामानुज ने जिस अपार शोक-सागर में उसे डुबो दिया था उस कारण अब वह प्राणों से अधिक ‘सम्पत-कुमार’ के विग्रह में विस्मय हो चुकी थी। अब लचिमार बीबी का संसार-वन में भ्रमण समाप्त हो चूका था, उसके प्राणों की साध पूरी हो चुकी थी। उसने अपने यवन-देह को शुद्ध कर लिया था। अंततः उसका पूत-अंग श्रीमत सम्पत-कुमार के अंग में विलीन हो गया। आज भी सुल्तान की पुत्री का विग्रह दक्षिण के वैष्णव मंदिरों में पूजित होकर हिन्दू धर्म की सार्वभौमिकता को प्रकट कर रहा है।