Sunday, November 17, 2024
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करोड़ों काँवड़ बनाते हैं बढ़ई, अलीगढ़ की 1000 फैक्ट्रियों में मजदूरों को रोजगार, गरीब राज्य में भी ₹2000 करोड़ का कारोबार: काँवड़ यात्रा के विरोधियों को बताइए

फलाहार बेचने वाले कौन लोग होते हैं? फुटकर दुकानदार ही होते हैं न? पूजा सामग्रियाँ बेचने वाला सामान्य कारोबारी ही होते हैं न? काँवड़ बनाने के लिए चाहिए बाँस, लकड़ी, रंगीन कागज, कपड़ा और घंटी या घुँघरू। ये सब बनाने वाले गरीब मजदूर ही होते हैं न? उन्हें रोजगार मिलता है।

भगवान शिव की भक्ति का महीना आ गया है, रिमझिम बारिश के साथ ही सावन ने दस्तक दे दी है। सावन आने के साथ ही काँवड़ यात्रा भी शुरू हो गई है। गंगा सहित विभिन्न पवित्र नदियों से जल लेकर लोग भगवान भोलेनाथ को अर्पित करने निकल पड़े हैं। झारखंड स्थित वैद्यनाथ धाम हो या फिर हरिद्वार, काँवड़ यात्रा की चहल-पहल से आध्यात्मिक स्थल व्यस्त हो गए हैं। लेकिन, इसके साथ ही शुरू हो गया है हिन्दू विरोधियों द्वारा अलग-अलग तरह का प्रोपेगंडा कर के काँवड़ यात्रा को बदनाम करने का प्रयास।

आपके सामने कई ऐसे लोग आएँगे जो कहेंगे कि भगवान शिव को जल चढ़ाना पानी की बर्बादी है। कोई ट्वीट कर के कह रहा है कि बच्चों के हाथों में काँवड़ की जगह किताब देनी चाहिए तो कोई काँवड़ियों पर गुंडागर्दी का आरोप लगा रहा है। अब कोई काँवड़ यात्रा की वैज्ञानिकता पर सवाल उठाएगा तो कोई पूछेगा कि इससे क्या फायदा होता है? कुछ इसे अंधविश्वास भी बताएँगे। हर साल ऐसा होता है, इस साल भी होगा, लेकिन इस बार हिन्दुओं को जवाबों से लैस रहना चाहिए।

सबसे पहले समझिए कि काँवड़ यात्रा से ये चिढ़ने क्यों? चिढ़ने वाले हैं वामपंथी, इस्लामी कट्टरपंथी और खुद को दलितों के ठेकेदार बताने वाले। असल में ये लोग काँवड़ यात्रा की भीड़ देख कर डरते हैं कि हिन्दुओं में भक्ति भावना आखिर बढ़ क्यों रही है। काँवड़ यात्रा में सभी जातियों के लोग साथ में कदम मिला कर चलते हैं, ये उन्हें बर्दाश्त नहीं होता। साथ ही काँवड़ यात्रियों को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार द्वारा जो सुविधाएँ मिलती हैं, उसने जले पर नमाज का काम किया है।

काँवड़ बनाने वाले बढ़ई समाज को मिलता है रोजगार, करोड़ों काँवड़ बनते हैं हर साल

इस पर तो बात होती ही है कि कैसे काँवड़ यात्रा में जल चढ़ाने के लिए किसी गाँव या क़स्बा से पूरा समूह निकलता है तो उसमें सभी जाति के लोग शामिल होते हैं और सभी एक-दूसरे को ‘भोले’ (बिहार-झारखंड में ‘बम’) कह कर पुकारते हैं। कोई ‘बच्चा बम’ होता है तो कोई ‘महिला बम’। ध्यान दीजिए, ये Bomb वाला बम नहीं है, वो तो जिहादी बनते हैं। ये ‘बम-बम भोले’ वाला बम है। कोई ‘डॉक्टर बम’ होता है तो कोई ‘इंजीनियर बम’। ‘चाचा बम’ और ‘बाबा बम’ भी मिल जाएँगे आपको।

अब थोड़ा इस यात्रा की जड़ में चलते हैं। यात्रा के लिए सबसे पहली ज़रूरत क्या है – काँवड़। दूसरी ज़रूरत – भगवा कपड़े। तीसरी ज़रूरत – गंगाजल या अन्य पवित्र नदियों का जल। सबसे पहले काँवड़ पर आते हैं। ये काँवड़ बनती किस चीज से है? लकड़ी से। लकड़ियों का काम कौन करता है? बढ़ई, जिसे अंग्रेजी में Carpenter भी कहते हैं। यानी, सावन के एक महीने में (इस बार 2 महीना, क्योंकि ये ‘दोमास है’) बढ़ई समाज की इतनी आमदनी हो जाती है कि साल भर उनकी रोजी-रोटी चल सकती है।

एक नजर आँकड़ों पर डालते हैं। अगर आप मेरठ का उदाहरण लेंगे तो अकेले इस शहर में काँवड़ यात्रा से 500 करोड़ रुपए का कारोबार होता है। इस बार 5 करोड़ तीर्थयात्री काँवड़ लेकर हरिद्वार आ सकते हैं। सोचिए, 5 करोड़ लोगों के पास 5 करोड़ काँवड़ भी तो होंगे। यानी, 5 करोड़ काँवड़ किसी न किसी ने बनाए होंगे? है न? किसी एक आदमी के बस का तो ये है नहीं। यानी, हजारों बढ़इयों को काँवड़ यात्रा में काम मिलता है, रोजगार मिलता है।

अगर हम कम से कम 300 रुपए भी रखें तो 5 करोड़ काँवड़ का दाम 1500 करोड़ रुपए बैठ जाता है। कई काँवड़ तो बहुत महँगे भी होते हैं, ऐसे में ये संख्या 2000 करोड़ रुपए के पार भी जा सकती है। ये भी हो सकता है कि कई काँवड़िए पिछले साल वाला काँवड़ ही इस्तेमाल करें, लेकिन आधे भी नए काँवड़ खरीदते हैं तो केवल काँवड़ का बिजनेस हजार करोड़ रुपए का बैठता है। ध्यान दीजिए, ये तो सिर्फ हरिद्वार जाने वाले काँवड़ियों का आँकड़ा है। कई अन्य भी धाम हैं, जहाँ ये यात्रा चलती है।

उदाहरण के लिए, अब झारखंड में स्थित वैद्यनाथ धाम को ले लीजिए। बिहार-झारखंड के अधिकतर लोग यहीं जल चढ़ाने आते हैं, कई तो हर साल। सामान्यतः भागलपुर के सुल्तानगंज में गंगा नदी से जल लिया जाता है और से शुरू होती है काँवड़ यात्रा। बिहार से हर साल 40 लाख के करीब लोग काँवड़ लेकर जाते हैं। दिल्ली NCR में ये आँकड़ा 30 लाख का है। सोचिए, वैद्यनाथ धाम में सावन में पहुँचने वाले इन 30 लाख काँवड़ियों से अर्थव्यवस्था को कितना लाभ पहुँचता होगा?

काँवड़ यात्रा की अर्थव्यवस्था फाइव स्टार होटलों या फिर विमानों वाली नहीं है। ये पैसा आम लोगों की जेब से निकलता है और आम लोगों की जेब में जाता है, खासकर गरीब तबके की, व्यापारियों की। जैसे, सड़क पर स्थित ढाबों, छोटे होटलों, धर्मशालाओं और रेस्टॉरेंट्स में कारोबार बढ़ जाता है। बिहार जैसे गरीब राज्य में भी केवल भागलपुर में इस साल इससे 500 करोड़ रुपयों का कारोबार अनुमानित है। मधेपुरा और कटिहार जैसे जिलों में भी 20 करोड़ का कारोबार तो हो ही जाएगा।

अगर पूरे बिहार की बात करें तो वहाँ 2000 करोड़ रुपए का कारोबार अपेक्षित है। सोचिए, एक गरीब राज्य की अर्थव्यवस्था में इस तरह के कारोबार से फायदा होगा या नहीं होगा? जमुई और मुंगेर जैसे जिलों में भी 30-35 करोड़ रुपए के कारोबार की संभावना है इस काँवड़ यात्रा के दौरान। फलाहार बेचने वाले कौन लोग होते हैं? फुटकर दुकानदार ही होते हैं न? पूजा सामग्रियाँ बेचने वाला सामान्य कारोबारी ही होते हैं न? सावन के अंत में रक्षाबंधन और फिर उसके बाद दशहरा, दीवाली और छठ के बारे में तो पता ही है।

अकेले अलीगढ़ में घुँघरू-घंटी की 1000 फैक्ट्रियाँ, मजदूरों को मिलता है काम

हम बात कर रहे थे काँवड़ की। काँवड़ बनाने के लिए चाहिए बाँस, लकड़ी, रंगीन कागज, कपड़ा और घंटी या घुँघरू। अगर आप उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ या एटा में जाएँगे तो पाएँगे वहाँ सैकड़ों परिवारों की आमदनी केवल घंटी और घुँघरू बनाने पर ही निर्भर होती है और वो इस सीजन में अच्छी कमाई करते हैं। अलीगढ़ को ताला उद्योग के लिए जाना जाता रहा है, लेकिन ये घुँघरू-घंटी उद्योग के लिए भी लोकप्रिय है। काँवड़िए पाँवों में घुँघरू बाँधते हैं, घंटी काँवड़ में लगा दी जाती है।

इनका अपना एक महत्व है, क्योंकि कहा जाता है कि ये तीर्थयात्रियों को साँप-बिच्छू जैसे खतरनाक जीवों से बचाए रखते हैं। सोचिए, अकेले अलीगढ़ में ऐसे 1000 कारखाने हैं जहाँ हजारों मजदूरों को रोजगार मिलता है काँवड़ यात्रा के मौसम में और इससे पहले। सामान्यतः घंटी-घुँघरू पीतल के होते हैं। कच्चे माल की गलाई के बाद ढलाई, घिसाई, पॉलिश, पैकिंग इत्यादि का काम किया जाता है। बड़ी बात तो ये है कि यहाँ कई मुस्लिम मजदूर भी हैं, अर्थात काँवड़ यात्रा मुस्लिमों को भी रोजगार देती है।

जिस तरह काँवड़ बनाने वाले बढ़ई लोगों और घुँघरू-घंटी बनाने वाले मजदूरों को रोजगार मिलता है, ठीक उसी तरह से कपड़ों का कारोबार भी सावन के महीने में खूब परवान चढ़ता है। टेंट हाउस, डीजे संचालक, हलवाइयों और जेनेरेटर मालिकों की बुकिंग बढ़ जाती है। ये बहुत अमीर लोग नहीं होते, बल्कि गाँव-समाज और शहर के ही लोग होते हैं जिनका स्थानीय कारोबार होता है। शिवभक्त भंडारा करते हैं, ऐसे में प्रसाद बनाने में इस्तेमाल होने वाले खाद्य पदार्थों की बिक्री भी बढ़ जाती है।

टीशर्ट, निक्कर, पटका, तौलिया या फिर बटुआ – ये सब की बिक्री भी छोटे दुकानदार ही करते हैं। ‘महाकाल’ लिखे टीशर्ट्स हों या फिर भगवान शिव की तस्वीर वाले, इनकी माँग बढ़ जाती है और बिक्री भी। सबसे बड़ी बात, मंदिर के आसपास फल और बेलपत्र बेचने वाले बहस ही गरीब लोग होते हैं और केवल इन दोनों का कारोबार करोड़ों का होता है। सावन के महीने में जल के साथ बेलपत्र चढ़ाया ही चढ़ाया जाता है। प्रसाद में फल लोग लेते ही हैं। महिलाओं की श्रृंगार की वस्तुएँ भी खूब बिकती हैं।

इनमें सिंदूर सबसे प्रमुख होता है, क्योंकि सुहागिनें इसे एक-दूसरे को लगाती हैं और माँ पार्वती को भी अर्पित करती हैं। कोरोना काल में काँवड़ यात्रा नहीं निकल पाई थी तो कई कारोबारी और ऐसे फुटकर दुकानदार मायूस हो गए थे, उन पर आर्थिक संकट आ गया था। दिल्ली-मेरठ रोड से हरिद्वार जाने वाले काँवड़िए जाते हैं, ऐसे में सबसे ज्यादा कमाई यहीं होती है। इसीलिए, अगर कोई काँवड़ यात्रा का विरोध कर रहा है तो वो अप्रत्यक्ष रूप से गरीबों का विरोध कर रहा है।

काँवड़ यात्रा का विरोध मतलब महीने भर फूल-बेलपत्र बेचने वाली मंदिर के पास बैठी गरीब महिलाओं का विरोध। काँवड़ मतलब हर साल 5 करोड़ से भी अधिक काँवड़ियों के लिए काँवड़ बनाने वाली बढ़इयों का विरोध। काँवड़ यात्रा का विरोध मतलब भगवा कपड़े बेचने वाले छोटे कारोबारियों का विरोध। काँवड़ यात्रा का विरोध मतलब प्रसाद सामग्री या पूजा सामग्री बेचने वाले फुटकर दुकानदारों का विरोध। काँवड़ यात्रा का विरोध मतलब घुँघरू-घंटी की हजारों फ़ैक्ट्रियों में काम करने वाले गरीबों का विरोध।

ऐसे समय में, जब हमारे देश के अधिकतर मंदिरों पर सरकार का कब्ज़ा है और उनसे प्राप्त हुए पैसों का इस्तेमाल सरकार विभिन्न कार्यों में करती है, इसके बावजूद ये मंदिर विपत्ति के काल में स्वेच्छा से गरीबों की मदद करने का निर्णय लेते हैं – तब भी हिन्दू धर्म के खिलाफ इस तरह की अपमानजनक बातें करना अपराध नहीं तो और क्या है? काँवड़ यात्रा श्रद्धा का प्रतीक है, हिन्दू परंपरा है – विरोध न करने के लिए एक यही वजह काफी होनी चाहिए थी, अर्थव्यवस्था वगैरह की बात तो बाद में आती है।

भारत की भूमि पर भारतीय संस्कृति की परंपरा का इतना विरोध क्यों?

आप सोचिए, इस भारत भूमि पर भारत में उपजी संस्कृति की परंपरा का विरोध होता है। भगवान परशुराम या भगवान श्रीराम को प्रथम काँवड़ियों के रूप में मान्यता मिली है, साधु-संत सदियों से काँवड़ यात्रा निकालते रहे हैं, ऐसे में भला कैसे किसी को अधिकार मिल जाता है कि प्राचीन भारतीय इतिहास में जिस परंपरा की जड़ हो उस पर बिना सिर-पैर की बातें कर के कुठाराघात करने का? भगवान के दरबार में सभी भक्त एक होते हैं, जात-पात या धन मायने नहीं रखता – हिन्दू विरोधियों को काँवड़ यात्रा से इसीलिए चिढ़ होती है।

कुछ हिन्दू विरोधी ये कारण लेकर आ सकते हैं कि काँवड़ यात्रा से टॉल टैक्स की वसूली में कमी आ जाती है या फिर वाहनों की आवाजाही को नियंत्रित करने के कारण सामानों की ढुलाई में समस्या आती है, लेकिन इनसे हुआ नुकसान जितना होता होगा उससे कई गुना काँवड़ यात्रियों के कारण कारोबार पैदा हो जाता है। वैसे भी माल ढुलाई वाले अधिकतर ट्रक वगैरह रात में ही सफर करते हैं। स्थानीय लोग काँवड़ियों की सेवा के लिए खुद कैम्प बना-बना कर जगह-जगह लगे रहते हैं।

जो लोग सड़क पर नमाज के विरोध में चूँ तै नहीं करते, वही काँवड़ यात्रा के विरोध में शिक्षा और विज्ञान जैसी बातें करने लगते हैं। नमाजियों द्वारा तो सड़क घेर कर घंटों ट्रैफिक रोक लिया जाता है, इससे तो कोई कारोबार भी जेनरेट नहीं होता, फिर क्यों ऐसा किया जाता है? कई बार मस्जिदों से निकली भीड़ दंगे करती है, पत्थरबाजी करती है – इसके विरोध में क्यों कोई कुछ नहीं बोलता? जुमे के दिन सुरक्षा व्यवस्था बढ़ानी पड़ती है, इसके कारण पर चर्चा हुई आज तक कभी?

जहाँ तक शिक्षा की बात है, सनातन में अध्यात्म और विज्ञान तो एक-दूसरे के पूरक हैं, दुश्मन नहीं। यहाँ धरती को चपटी नहीं बताया गया है, बल्कि हजारों वर्ष पूर्व ग्रहों-नक्षत्रों के बारे में सटीक जानकारी दी गई है। यहाँ दिन-मास-पहर सभी की गणना के तौर-तरीके वैदिक युग से ही उपलब्ध हैं। गणित और खगोल के सिद्धांत हिन्दू धर्म के प्राचीन साहित्य में मिलते हैं। फिर हिन्दू धर्म के सामने विज्ञान कैसे खड़ा हो गया? दोनों तो साथ में चलते हैं न। योग या ध्यान प्रक्रिया विज्ञान नहीं तो क्या है।

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अनुपम कुमार सिंह
अनुपम कुमार सिंहhttp://anupamkrsin.wordpress.com
भारत की सनातन परंपरा के पुनर्जागरण के अभियान में 'गिलहरी योगदान' दे रहा एक छोटा सा सिपाही, जिसे भारतीय इतिहास, संस्कृति, राजनीति और सिनेमा की समझ है। पढ़ाई कम्प्यूटर साइंस से हुई, लेकिन यात्रा मीडिया की चल रही है। अपने लेखों के जरिए समसामयिक विषयों के विश्लेषण के साथ-साथ वो चीजें आपके समक्ष लाने का प्रयास करता हूँ, जिन पर मुख्यधारा की मीडिया का एक बड़ा वर्ग पर्दा डालने की कोशिश में लगा रहता है।

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