जितना आप भारतीय संस्कृति की जड़ में पहुँचेंगे, उतनी दूर तक आपको आपको दुनिया भर में पहचान मिलेगी। ‘RRR’ और ‘The Elephant Whisperers’ ने ऑस्कर जीत कर ये साबित कर दिया है। आज तक किसी भारतीय गाने को ऑस्कर नहीं मिला, ‘नाटू-नाटू’ ने ये कर दिखाया। आज तक किसी भारतीय प्रोडक्शन को ऑस्कर नहीं मिला, ‘The Elephant Whisperers’ ने ये कर दिखाया। दोनों ही फ़िल्में भारत की सनातन संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं।
चूँकि ‘RRR’ रिलीज से पहले से ही खासी चर्चा में रही थी, इसीलिए हमें पता है कि कैसे राम चरण का किरदार एक दृश्य में ‘रामम् राघवम् रणधीरम्’ जैसी पंक्तियों के साथ भगवान श्रीराम से प्रेरित होता है। लेकिन, ‘The Elephant Whisperers’ ऑस्कर अवॉर्ड मिलने के बाद चर्चा में आई, इसीलिए इसके बारे में ज़्यादा बात नहीं हुई। यहाँ हम इस डॉक्यूमेंट्री के बारे में आपको बताएँगे, जो कई मिथकों को भी ध्वस्त करती है।
आगे बढ़ने से पहले जानकारी दे दें कि इस डॉक्यूमेंट्री का निर्देशक कार्तिकी गोस्लाव्स ने किया है, वहीं इसका निर्माण गुनीत मोंगा ने किया है। Netflix पर रिलीज हुई इस 41 मिनट की डॉक्यूमेंट्री को शूट करने में 5 वर्ष लगे। इसकी कहानी तमिलनाडु स्थित मुदुमलाई वन्यजीव अभ्यारण्य की है, जहाँ बोम्मन और बेल्ली नाम के पति-पत्नी दो हाथियों के बच्चों का भरण-पोषण करते हैं। दोनों कट्टूनायकन्न जनजातीय समाज से आते हैं।
डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया है कि कैसे ‘रघु’ और ‘अम्मू’, जो अपने समूह से बिछड़ जाते हैं, उनके पालन-पोषण के लिए बोम्मन और बेल्ली को दिया जाता है। ‘रघु’ पहले आता है और ‘अम्मू’ उसके कुछ महीनों बाद। इस दौरान मनुष्य और पशु के बीच जो भावुक बंधन बनता है, वही इस डॉक्यूमेंट्री की कहानी है। उत्तराखंड के करण थपलियाल की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है। शरारती हाथियों को खुद के साथ सहज करने में टीम को काफी मेहनत करनी पड़ी, कई बार तो वो कैमरे तक छीन लेते थे।
ये तो थी डॉक्यूमेंट्री की बात, अब ज़रा वास्तविकता पर आते हैं। ये वास्तविकता को उभारना इसीलिए भी आवश्यक है, क्योंकि देश में कुछ फर्जी एक्टिविस्ट्स और चिंतक हैं, जो खुद को दलितों और जनजातीय समाज का हितैषी बता कर उन्हें हिन्दुओं से अलग दिखाने की कोशिश में लगे रहते हैं। विभाजनकारी नीतियों से सनातनियों को बाँटने की जुगत में लगे ‘आर्य-द्रविड़’ थ्योरी पर यकीन करने वाले ये लोग चाहते हैं कि जनजातीय समाज अपनी परंपराओं और इतिहास को भूल कर सनातन संस्कृति से अलग हो जाए।
इनलोगों को ये देख कर मिर्ची लगेगी कि कट्टूनायकन्न जनजातीय समाज के लोग विष्णु और शिव की पूजा करते हैं। उन्हें ये पसंद नहीं आएगा कि दीप प्रज्वलित करने, नारियल फोड़ने, फूलों की मालाएँ पहनने-पहनाने, मंदिरों में पूजा-अर्चना करने और अगरबत्ती जलाने जैसी हिन्दू परंपराएँ इन जनजातीय सनातन समाज के लोगों ने जीवित रखी है। जनजातीय समाज न सिर्फ हिंदुत्व का हिस्सा है, बल्कि इसका प्रतिनिधित्व भी करता है। और, अब तो विश्व के सबसे बड़े, पुराने और भव्य सिनेमाई मंच पर भी ये स्थापित हो गया है।
फिल्म के एक दृश्य में कट्टूनायकन्न जनजातीय हिन्दू समाज का बोम्मन स्पष्ट कहता है कि वो पुजारी भी है और महावत भी। साथ ही उसे इन दोनों जिम्मेदारियों पर ख़ुशी भी है। ये उस वामपंथी नैरेटिव को ध्वस्त करता है, जो कहते हैं कि दलितों/जनजातीय समाज के लोगों और OBC को पुजारी बनने का अधिकार नहीं है। बोम्मन विधि-विधान से गणेश जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना करता है। उसे कहीं कोई रोकटोक नहीं है।
रामायण में वनवासी शबरी के जूठे फल स्वयं भगवान राम खाते हैं, हम उस परंपरा के लोग हैं। अयोध्या में जब भव्य राम मंदिर बन रहा है, वहाँ माता शबरी का भी एक मंदिर होगा। माँ सीता के हरण के समय उनकी रक्षा करते हुए अपनी जान देने वाले पक्षी जटायु का भी मंदिर वहाँ होगा। सनातन परंपरा में पशु-पक्षियों का भी क्या महत्व है, ये किसी से छिपा नहीं है। हनुमान जी को वानर के रूप में पूजा जाता है। श्रीराम की सेना का एक अहम हिस्सा ऋक्ष थे, जिनके अध्यक्ष जामवंत थे।
राम सेतु बनाने में एक गिलहरी ने जो योगदान दिया, उसकी कथा हमें पता है। निषाद केवट ने भगवान श्रीराम को नदी पार कराया और राम ने उन्हें गले लगाया, ये प्रसंग भी रामायण में है। ईश्वर के समक्ष सब समान हैं, ऐसे उदाहरण रामायण ही नहीं बल्कि हर एक हिन्दू ग्रन्थ में मिलता है। वेदों ने हमें पृथ्वी, जल, वायु, मेघ, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा और पेड़-पौधे – समग्र प्रकृति और उसके हर एक आयामों का सम्मान करना, उन्हें धन्यवाद करना, उनकी पूजा करना सिखाया।
शायद यही कारण है कि हिन्दुओं को प्रकृति की रक्षा के लिए किसी ग्रेटा थन्बर्ग जैसी एक्टिविस्ट या फिर किसी PETA जैसी संस्था की ज़रूरत नहीं है। कोई बोम्मन और बेल्ली अपना पूरा जीवन हाथियों की सेवा में समर्पित कर देते हैं, ये उनके सनातन संस्कार ही हैं। वो भगवान गणेश के उपासक हैं, हर हाथी में उनका रूप देखते हैं। वो वनवासी हैं, हमारे समाज का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। आरती करते हैं, आध्यात्मिक हैं – तभी वो प्रकृति के इतने करीब हैं, पशु-पक्षियों के प्रति इतने दयालु और संवेदनशील हैं।
‘The Elephant Whisperers’ themselves, Bommon and Bellie are the real stars of the show. It is only through their constant support, and willingness to share a piece of their life with the world, that this film won this highest honour. pic.twitter.com/HwjatKQw6W
— Netflix India (@NetflixIndia) March 13, 2023
सनातन संस्कृति ही है, जहाँ किसी पशु के मरने पर भी लोगों के बाल मुँड़वाने और अंतिम यात्रा के अलावा श्राद्ध करने की खबरें आती हैं। यहाँ मंदिर के तालाब का मगरमच्छ भी शाकाहारी हो सकता है और उसकी मृत्यु के पश्चात उसका अंतिम संस्कार रीति-रिवाज से किया जाता है। ये परंपरा खुद श्रीराम ने जटायु का अंतिम संस्कार अपने हाथों से कर के स्थापित की थी। इसीलिए, ‘The Elephant Whisperers’ कर्नाटक और केरल से सटी नीलगिरि की पहाड़ियों से ऐसी कहानी लेकर आती है जो फर्जी दलित चिंतकों के सारे नैरेटिव को ध्वस्त करती है।
ये एक ‘Feel Good’ डॉक्यूमेंट्री है, लेकिन आपको इमोशनल भी करेगी। प्रकृति के कई रंग-रूपों को समेटे हमारे देश के कोने-कोने से ऐसी कई कहानियाँ निकल सकती हैं। अफ़सोस कि ये काम एक तमिल डॉक्यूमेंट्री कर रही है, देश का सबसे बड़ा सिनेमा उद्योग बॉलीवुड वेब सीरीज के नाम पर गालियाँ और सेक्स परोसने में ही लगा हुआ है। दक्षिण भारत से अच्छी फिल्मों के अलावा अब ऐसी कई डॉक्यूमेंट्रीज भी आएँगी, ‘The Elephant Whisperers’ की सफलता के बाद उसकी उम्मीद जगी है।