भारत में ‘लव जिहाद’ की घटनाएँ किसी से छिपी नहीं हैं। हाल ही में लुधियाना की एक युवती की हत्या का खुलासा हुआ, जिसे शाकिब नामक युवक ने अमन बन कर फाँस लिया था और बाद में पूरे परिवार ने मिल कर निर्ममता से लड़की की हत्या कर दी। ऐसी घटनाएँ आए दिन होती हैं। ऐसे में जीतू आरवमुधन ने ‘स्वराज्य मैग’ में एक लेख लिख कर बताया है कि उन्होंने लव जिहाद पर ‘द जज’ नामक फिल्म क्यों बनाई। इसके पीछे क्या उद्देश्य था?
उन्होंने लिखा है कि जहाँ एक तरफ सरकारें और मीडिया ये दिखाना चाहती है कि ऐसी कोई समस्या का अस्तित्व ही नहीं है, देश के विभिन्न हिस्सों में रह रहे हिन्दुओं, ईसाईयों और सिखों को पता है कि लव जिहाद क्या होता है। ये सबसे ज्यादा केरल की ईसाई लड़कियों को इस्लाम में कन्वर्ट कराने के कारण हुआ, इसीलिए माना जाता है कि शब्द केरल से ही आया। जीतू लिखते हैं कि इतनी बड़ी समस्या होने के बावजूद हिन्दू इसके बारे में बात करने से कतराते हैं।
वो ‘स्वराज्य मैग’ में लिखते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी रही है कि हिन्दू छात्र ख़ुद के समाज को लेकर ही हीन भावना से ग्रसित हो जाती है। साथ ही उन्होंने लिखा है कि बॉलीवुड की ‘गांजा जमुनी तहजीब’ के साथ-साथ जिस तरह से सरकारें हर एक व्यक्ति पर कथित सेकुलरिज्म थोपना चाहती है, इससे इस प्रकार के नैरेटिव को बढ़ावा मिला। वो लिखते हैं कि चूँकि अब कई हिन्दू इसे लेकर जागरूक हैं, ‘द जज’ में लव जिहाद से जुड़े कई पैटर्न्स पर गौर किया गया।
इस समस्या के बारे में जीतू ने कुछ ट्रेंड्स की ओर इशारा किया है। उनका कहना है कि दूसरे समुदाय के युवक ख़ुद को हिन्दू दिखाने के लिए कुछ भी करते हैं, मंदिरों में जाने और पूजा करने का दिखावा भी करते हैं। निकाह के बाद वो सच्चाई खुलने पर ख़ुद को सच्चा मजहबी बताते हैं और कहते हैं कि उन्हें सभी की भावनाओं का सम्मान है। इसके बाद वो और शादियाँ करने लगते हैं क्योंकि इस्लाम में इसकी अनुमति है।
जीतू लिखते हैं कि इसके बाद का ट्रेंड ये है कि सामुदाय विशेष का परिवार हिन्दू महिला को प्रताड़ित करना शुरू कर देता है और फिर दिखावटी मॉडर्निटी हवा हो जाती है बात-बात में शक करने की प्रक्रिया शुरू होती है और फिर अंत में हिन्दू महिला को मार डाला जाता है। वो लिखते हैं कि अधिकतर मामलों में तो समुदाय विशेष का पुरुष पहले से ही शादीशुदा होता है। वो लिखते हैं कि इस्लाम में उम्माह के जिस कॉन्सेप्ट को वो मानते हैं, उसके अनुसार हिन्दू महिलाओं को काफिर माना जाता है और उनके साथ दासी की तरह व्यवहार करने का प्रावधान है।
वो लिखते हैं कि ‘द जज’ में लिबरलों के रिएक्शन के बारे में बताया गया है। उनका कहना है कि इस फिल्म में वही दिखाया गया है, जिसे ‘पोलिटिकल करेक्टनेस’ के चक्कर में दशकों से नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। इस फिल्म के लिए कई लोगों ने डोनेशन दिया है और इसे काफी कम बजट में तैयार किया गया है। उन्होंने उम्मीद जताई है कि इस तरह की और समस्याओं के बारे में फ़िल्में बनेंगी और मुद्दों को उठाया जाएगा।