यह बलिदान की गाथा है। यह मातृभूमि की रक्षा के लिए सर्वस्व समर्पण करने वाले वीरों की कहानी है। यह त्याग का माहात्म्य है। यह महज़ 21 शूरवीर सिखों द्वारा हज़ारों इस्लामी आक्रांताओं से भारत-भूमि को सुरक्षित रखने की कथा है। इसका नाम है- सारागढ़ी का युद्ध। एक ऐसा युद्ध, जिसे अंग्रेजों ने तो याद रखा लेकिन अपने ही देशवासियों ने भुला दिया। आज जब इतिहास से जुड़ी फ़िल्में बन रही हैं, समय आ गया है कि हम उन सिख जांबाजों की वीरता को फिर से याद करें। आज अक्षय कुमार अभिनीत फ़िल्म ‘केसरी’ का ट्रेलर भी आया, जो इसी युद्ध पर आधारित है। फ़िल्म में अक्षय के लुक्स को लेकर पहले ही काफ़ी चर्चा हो चुकी है। आइए समझते हैं केसरी की असली कहानी।
कठिन एवं अशांत भौगोलिक परिस्थितियाँ
12 सितंबर 1897 का दिन था। दुनिया के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक ब्रिटिश साम्राज्य ने भारतीय राज्यों की आपसी लड़ाई का फ़ायदा उठा कर देश को पहले ही परतंत्र बना लिया था। लेकिन उस दिन कुछ ऐसा हुआ, जिसने शक्तिशाली ब्रिटिश को भी भारतीय जवानों की शौर्य गाथा गाने को मजबूर कर दिया। ब्रिटिश संसद की कार्यवाही चल रही थी लेकिन उसे अचानक बीच में ही रोक दिया गया। सारे ब्रिटिश सांसदों ने खड़े होकर उन 21 सिखों को ‘Standing Ovation’ दिया, जिन्होंने दुनिया के युद्ध इतिहास में सबसे पराक्रमी ‘Last Standing’ का उदाहरण पेश किया था।
इस युद्ध की परिस्थितियों को समझने के लिए उस क्षेत्र की भौगोलिक स्थितियाँ समझनी पड़ेंगी क्योंकि उसकी प्रासंगिकता आज भी उतनी ही है, जितनी उस समय थी। अविभाजित भारत का उत्तर-पश्चिमी प्रांत आज भी एक अशांत क्षेत्र है। पाकिस्तान में पल रहे आतंकवादी, अफ़ग़ानिस्तान स्थित आतंकी संगठन तालिबान और कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा चलाए जा रहे आतंकी अभियान के कारण यह इलाक़ा आज भी रोज़ ख़ूनी संघर्ष का गवाह बनता है। ख़ैबर पख़्तूनख़्वा आज पाकिस्तान के 4 प्रांतों में से एक है लेकिन तब यह अविभाजित भारत का हिस्सा हुआ करता था।
सिख रेजीमेंट 1846 में गठित। सारागढ़ी की लड़ाई हो, 27 अक्टूबर 47 को श्रीनगर में पहली पलटन, सिख रेजीमेंट हमेशा साहस, वीरता के प्रतीक रहें है। रेजिमेंटल सेंटर रामगढ़ में है, आदर्श वाक्य है ‘निश्चय कर अपनी जीत करुँ’, युद्धघोष ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’#IndianArmy #OurGlorious pic.twitter.com/EnJNRuRCsq
— ADG PI – INDIAN ARMY (@adgpi) February 22, 2018
अंग्रेजों ने वर्ष 1897 में उत्तर-पश्चिमी सीमा पर सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए एक छोटी सी चौकी स्थापित की थी। यह चौकी उस प्रान्त में स्थित दो किलों के बीच संचार का माध्यम थी। ये किले थे- गुलिस्तान और लॉकहार्ट। यह संघर्ष उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रान्त के बंजर पहाड़ों में लड़ा गया था। एक तरफ थे मुट्ठी भर सिख तो दूसरी तरफ उत्तर-पश्चिमी भारत के हिन्दुकुश पर्वत निवासी अफ़ग़ानी जनजातीय कबीले थे। इनकी संख्या हज़ारों में थी। ये कबीले सदियों से युद्धरत थे और ख़ूनी भी।
सारागढ़ी दोनों किलों के बीच स्थित था। इन किलों को सिख इतिहास के सबसे पराक्रमी एवं सफल योद्धाओं में से एक- रणजीत सिंह द्वारा बनवाया गया था। इस क्षेत्र में अफ़रीदी व ओरकज़ई जनजातीय समूहों ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का विरोध शुरू कर दिया था। 1897 के सितंबर महीने में इन दोनों ही किलों पर हमले किए गए। कर्नल जॉन हॉटन के आदेशानुसार 36वें सिख (36th Sikh infantry) को यहाँ तैनात किया गया था।
सारागढ़ी की चौकी एक दुर्गम स्थान पर स्थित थी। पथरीली पहाड़ी पर स्थापित की गई इस चौकी की सुरक्षा की व्यवस्था भी की गई थी। यहाँ पर दोनों किलों में संकेतों के आदान-प्रदान के लिए एक टावर भी था। रात को प्रकाश के माध्यम से संकेत दिए जाते थे।
ख़ूनी इस्लामिक कबीलों का हमला और युद्ध की शुरुआत
1897 के दिन कबाइलियों ने लॉकहार्ट और सारागढ़ी में डेरा डाल दिया ताकि दोनों के बीच के संपर्क को भंग कर सेना की आवाजाही रोकी जा सके। कबाइलियों ने उचित समय देख कर हमला बोल दिया। जैसा कि इस्लामी आक्रांताओं का इतिहास रहा है, उन्हें न युद्ध के नियम की परवाह होती थी और न ही वे मानवीय तौर-तरीकों में विश्वास रखते थे। इसीलिए, उनसे इन किलों को बचाना ज़रूरी था। अगर वे इन किलों में घुसने में सफल हो जाते तो पूरे इलाक़े को तबाह कर सकते थे। यही नहीं, अपने इतिहास के अनुरूप वे इन किलों को आग के हवाले भी कर सकते थे।
10,000 के आसपास कबाइलियों ने सारागढ़ी में युद्ध की शुरुआत कर दी। सेपॉय गुरुमुख सिंह ने हॉटन को इसकी जानकारी दी लेकिन उधर से जो जवाब आया, वह निराशाजनक था। हॉटन ने कहा कि वह तुरंत किसी भी प्रकार की मदद भेजने में असमर्थ हैं। टुकड़ी के कमांडर हवलदार ईशर सिंह ने अंतिम साँस तक लड़ कर चौकी को बचाने का निर्णय लिया। यही सिख युद्धनीति की परम्परा थी। यही उनकी रेजिमेंट की पहचान भी थी। आज भी सिख रेजिमेंट बहादुरी की उसी मिसाल को क़ायम रखे हुए है।
दो बार सारागढ़ी की चौकी पर हमला किया गया लेकिन दोनों ही बार उसे विफल कर दिया गया। लॉकहार्ट किले से सैन्य मदद भेजने की कोशिश की गई लेकिन कबाइलियों की संख्या इतनी ज्यादा थी और वो इतनी तैयारी के साथ आए थे कि सैन्य टुकड़ी चौकी तक पहुँच भी नहीं पाई। ऐसा नहीं था कि सिखों के पास बचने के रास्ते नहीं थे। स्वयं कबाइली कमांडर गुल बादशाह ने उन्हें निकलने के लिए रास्ता देने की पेशकश की थी। ईशर सिंह को कबाइलियों ने आत्मसमर्पण कर कोहट चले जाने को कहा। उसने वचन दिया कि उनकी बात मानने के बाद वो सिखों को कोई हानि नहीं पहुँचाएँगे।
लेकिन, सिख पीछे हटने वालों में से न थे। ब्रिटिश-भारतीय रेजिमेंट की उस टुकड़ी को ‘36 सिख‘ के नाम से जाना जाता था। इन्हें बाद में 11वें सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन बना दिया गया। आज़ादी के बाद ये भारतीय सेना का हिस्सा बने। रेजिमेंट के वीर जवानों को ब्रिटिश आर्मी आज भी याद करती है।
वो युद्ध जिसे भारतीयों ने ही भुला दिया
ईशर सिंह ने पहाड़ी से नीचे उतर कर दुश्मनों से लड़ने का निर्णय लिया। उन्हें पता था कि हज़ारों कबाइलियों के सामने पत्थर और मिट्टी की दीवारों एवं लकड़ी के दरवाज़ों की कोई औकात नहीं है। उनके नीचे उतरने के फ़ैसले के पीछे सिर्फ़ वीरता, शौर्य और साहस ही नहीं था बल्कि रणनीति भी थी। उन्हें पता था कि वो इस युद्ध को जीत नहीं पाएँगे। संख्या बल में मुट्ठी भर सिखों की योजना थी- किसी तरह उन दरिंदों को रोके रखना। सिख जानते थे कि अगर वे कुछ देर भी दुश्मन का सामना करने में क़ामयाब हो गए तो वहाँ सैन्य मदद पहुँचने तक अफ़ग़ानों को रोका जा सकता है।
सिखों के नीचे उतरते ही दुश्मन भी एक पल के लिए काँप गया। उन्हें तो विश्वास ही नहीं हुआ कि 21 लोग 10,000 दुश्मनों का सामना करने के लिए उन पर निर्भयतापूर्वक टूट पड़ेंगे। भगवान सिंह इस युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने वाले पहले सैनिक बने। नाइक लाल सिंह और सेपॉय जीवा सिंह ने उनके पार्थिव शरीर को किसी तरह दुश्मनों के चंगुल से बचा कर पोस्ट के अंदर ले जाकर रखा। कबाइलियों के लगातार हमले विफल होते गए लेकिन अंततः उन्होंने दीवार पार करने में सफलता पा ली।
सिखों के हथियार ख़त्म हुए जा रहे थे लेकिन उनके जज़्बे का कोई तोड़ न था। हवलदार ईशर सिंह ने असीम वीरता का परिचय देते हुए अपने सैनिकों को अंदर जाने का आदेश दिया और स्वयं बाहर आकर अफ़ग़ानों से लड़ने लगे। लेकिन, बाकी सिखों को यह गवारा न था। वो सभी अफ़ग़ानों पर बाज की तरह टूट पड़े और इस तरह से एक-एक कर सिख सैनिकों ने मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान दिया। सिपाही गुरुमुख सिंह चौकी से ही बटालियन के मुख्य कार्यालय को इस भीषण युद्ध की पल-पल की जानकारी देते रहे। उन्हें अपनी सुरक्षा की चिंता नहीं थी। चिंता थी तो बस किले को बचाने की।
जो बोले सो निहाल… सत श्री अकाल…
हथियार ख़त्म हो चुके थे। ताक़त जवाब दे रही थी। लेकिन, साहस अभी भी कम नहीं हुआ था। हथियारों के जवाब देने पर मल्ल्युद्ध का सहारा लिया गया। वाहेगुरु का नाम लेकर भारतीय सैनिकों ने हाथ से युद्ध करना शुरू कर दिया। लेकिन संख्या और हथियार- दोनों मामलों में सिखों व अफ़ग़ानों में ज़मीन-आसमान का अंतर था।
जब युद्ध अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया, तब गुरुमुख सिंह ने मुख्यालय से युद्ध में जाने की आज्ञा माँगी। मुख्यालय से आदेश मिलते ही उन्होंने संकेत देने वाले हैलियोग्रफिक यंत्रों को बैग में बंद कर संगीनों को चढ़ाना शुरू कर दिया। उनके अलावा बाकी सारे सिख जवान वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। मातृभूमि की रक्षा करते और अपना फर्ज़ निभाते हुए वीरगति को प्राप्त सिखों ने एक ऐसी अमर गाथा लिख दी थी, जिसे हर एक भारतीय के मुख पर होना चाहिए था। लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा न हो सका। हाँ, तो हम युद्ध की बात कर रहे थे। सारागढ़ी के युद्ध का अंतिम क्षण। वो क्लाइमेक्स जो आप फ़िल्म में देख कर अभिभूत हो जाएँगे। वो दृश्य शायद आपकी आँखों में आँसू ला दे।
जब अफ़ग़ानों को अपनी विजय का एहसास होना शुरू हुआ, तभी चौकी ‘वाहेगुरु जी दा खालसा, वाहेगुरु जी दी फ़तेह’ के नारों से गूँज उठी। यह बुलंद आवाज गुरुमुख की थी। मानों रणजीत सिंह स्वयं युद्ध में प्रकट हो गए हों। ऊँचे टावर से हमला कर एक अकेले गुरुमुख ने हज़ारों दुश्मन को थर्रा दिया। देखते ही देखते उन्होंने 20 अफ़ग़ानों को मार गिराया। गुरुमुख को मारने के लिए पूरे पोस्ट को जला दिया गया। चौकी को आग के हवाले कर दिया गया और उसी आग में समा गया उस युद्ध का अंतिम सिख योद्धा।
जरा याद करो क़ुर्बानी
ब्रिटेन ने आज भी इस युद्ध से जुड़े दस्तावेजों को सहेज कर रखा है। सारे सैनिकों को मरणोपरांत ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ दिया गया। यह आज के परमवीर चक्र के बराबर था। यह सैन्य इतिहास की एक अनोखी घटना है क्योंकि एक साथ इतने सैनिकों को ये सम्मान मिलने का और कोई अन्य उदाहरण कहीं भी नहीं है। इस युद्ध को फ्रांस के कई पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया गया। मात्र 21 सिखों ने क़रीब 200 दुश्मनों को मार गिराया था, कइयों को घायल किया था।
दुश्मन को इतनी भारी क्षति की उम्मीद सपने में भी नहीं थी। कुछ लोगों ने इस युद्ध को अंग्रेजों के लिए लड़ा गया युद्ध बताया लेकिन यह वाहेगुरु और देश का नाम लेकर लड़ रहे उन सिखों का अपमान होगा। उन्होंने देश की सुरक्षा करते हुए जान दी थी, सिख विरासत को बचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर किया था। अगर वे सिर्फ़ ब्रिटिश के लिए लड़ रहे होते तो आत्मसमर्पण कर के अपनी जान बचा सकते थे।
12 सितंबर को ‘सारागढ़ी दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। महारानी विक्टोरिया ने भी इन जवानों की प्रशंसा की है। पंजाब के फ़िरोज़पुर में जनता ने धन इकठ्ठा कर इन वीरों की समाधि बनवाई है। इस कार्य के लिए महारानी विक्टोरिया ने भी धन उपलब्ध कराया था। वीरगति को प्राप्त होने वाले अधिकतर जवान फ़िरोज़पुर के ही थे। इसीलिए, यहीं पर स्मारक बनाने का निर्णय लिया गया। इस युद्ध का प्रभाव इतना था कि चीन से लड़ाई के दौरान भी सिख बटालियन के कमांडर ने अपने सन्देश में कहा था कि उन्हें सारागढ़ी का इतिहास दोहराना है।
References:
- Bharatiya Sena Ke Shoorveer By Maj Gen Shubhi Sood
- Kargil War 1999 By L.N. Subramanian