12 जनवरी 1863 को बंगाल के कलकत्ता में माता भुवनेश्वरी देवी और पिता विश्वनाथ दत्त के घर जन्में नरेंद्रनाथ दत्त, जो बाद में स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने गए, मात्र 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के जीवन में अगर उन्हीं के शब्दों में कहूँ तो 1500 वर्ष का कार्य कर गए। स्वामी विवेकानंद 25 साल की उम्र में ही परिव्राजक संन्यासी के रूप में भारत भ्रमण पर निकल गए थे।
भारत उस समय पराधीन था। हम पर अंग्रेज़ों का शासन था। अपने लगभग साढ़े चार वर्ष के भ्रमण के दौरान उन्होंने देखा कि वर्षों की गुलामी के कारण हर एक भारतीय के अंदर आत्मविश्वास, आत्म-सम्मान,आत्म-गौरव और स्वावलम्बन पूर्णतः समाप्त हो गया है। स्वामी विवेकानंद को अपना कार्य स्पष्ट हो गया था। वो राजनीति से दूर रह कर हर भारतवासी में आत्मविश्वास जगाने का कार्य करने वाले थे।
स्वामी विवेकानंद ने यह आत्मविश्वास जगाने का, चरित्र-निर्माण का और मनुष्य-निर्माण का कार्य पूरे जीवन भर अनेकों कष्ट, कठिनायों को सहते हुए भी किया क्योंकि इसके बिना आत्मविश्वास जागृत नहीं होता और बिना आत्मविश्वास के आत्मनिर्भर बनना संभव नहीं है, जो स्वाधीनता के लिए अत्यावश्यक है।
इस कार्य को गति देने के लिए ही स्वामी विवेकानंद 11 सितम्बर, 1893 को अमेरिका के शहर शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भाग लेने गए थे। जहाँ उनके व्यक्तित्व और चरित्र का लोहा भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व ने माना।
जब स्वामी विवेकानंद स्वागत का उत्तर देने के लिए खड़े होते हैं और अपने मात्र पाँच शब्दों, “अमेरिकावासी बहनों तथा भाइयों” से भारत को विश्व विजयी बना देते हैं। सामने बैठे विश्व भर से आए हुए लगभग 7000 लोग दो मिनट से ज्यादा समय तक तालियाँ बजाते रहते हैं और यह 19वीं शताब्दी की एक प्रमुख घटना बन गई। इस घटना ने भारत की ध्वनि को विश्व भर में गुंजायमान कर दिया था।
विश्व धर्म महासभा में दुनिया भर के 10 प्रमुख धर्मों के अनेक प्रतिनिधि आए हुए थे। इसमें यहूदी, हिन्दू, इस्लाम, बौद्ध, ताओ, कनफयूशियम, शिन्तो, पारसी, कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेंट इत्यादि शामिल थे। लेकिन स्वामी विवेकानंद का वक्तव्य सबसे अधिक सफल हुआ था, जो हमें धर्म महासभा के सामान्य समिति के अध्यक्ष डॉक्टर जेएच बैरोज के शब्दों से पता लगता है। उन्होंने कहा था, “स्वामी विवेकानंद ने अपने श्रोताओं पर अद्भुत प्रभाव डाला।”
मरविन–मेरी स्नेल जो महासभा की विज्ञान सभा के अध्यक्ष थे, वो लिखते हैं:
“निःसंदेह स्वामी विवेकानन्द धर्म महासभा के सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रभावशाली व्यक्ति थे। कट्टर से कट्टर ईसाई भी उनके बारे में कहते हैं कि वे मनुष्य में महाराज हैं।”
भारत के किसी हिन्दू संन्यासी ने अमेरिका में आयोजित किसी भव्य कार्यक्रम में भारत और हिन्दू समाज का प्रतिनिधित्व किया है और उनको वहाँ सफलता मिली है, ऐसी सूचना भारत के हर भाग में पहुँच गई थी। स्वामी विवेकानंद ऐसा करिश्मा करने वाले पहले भारतीय संन्यासी थे। इस घटना से लाखों भारतीयों और खास तौर पर नवयुवकों में जोश और आत्मविश्वास बढ़ गया।
भारत जो उस समय गुलाम था, जिसको साँप और सपेरों का देश माना जाता था, उसके पास दुनिया को देने के लिए आध्यात्म का सन्देश है, यह विदेशियों को पहली बार पता चला था। यह स्वामी विवेकानंद का प्रभाव ही था, जिसके कारण उनके अनेकों अनुयायी और शिष्य भारत आए थे। इनमें पुनरुथान के कार्य के लिए जिसमें मार्गरेट नोबल (जिनको बाद में भगिनी निवेदिता के नाम से जाना गया), श्रीमान एवं श्रीमती कैप्टन सेविएर, जोसेफ़ाइन मैक्लिओड और सारा ओले बुल शामिल थे। भगिनी निवेदिता ने तो स्वामी विवेकानंद के स्वर्गवास के बाद सीधे तौर पर भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
15 जनवरी 1897 को स्वामी विवेकानंद भारत वापस आए तो वह सबसे पहले श्रीलंका के कोलम्बो उतरे थे और वहाँ हिन्दू समाज ने उनका बड़ा शानदार स्वागत किया था। वो युवाओं के बीच में इतने प्रसिद्ध हो गए थे कि उनसे मिलने के लिए युवा रेल गाड़ी तक रुकवा देते थे। उन्होंने पूरे भारतवर्ष में अपने व्याख्यानों और संगठन कार्य से एक नवीन ऊर्जा भर दी थी। उनके भारत में दिए हुए व्याख्यानों ने यहाँ के युवाओं में अद्भुत आत्मविश्वास भर दिया था, जिसमें से मुख्य है – वेदांत का उद्देश्य, हमारा प्रस्तुत कार्य, भारत का भविष्य, हिन्दू धर्म के सामान्य आधार, भारत के महापुरुष, मेरी क्रन्तिकारी योजना।
स्वामी विवेकानंद के व्याख्यान सुनने के लिए बड़ी संख्या में युवा भी आते थे, जो भाषण के बाद राष्ट्र प्रेम से ओत-प्रोत हो जाते थे। जिसके कारण अंग्रेज़ी सरकार उनको संदिग्ध व्यक्ति के तौर पर देखती थी और उनकी जासूसी करवाने पर आमादा हो गई थी।
प्रो. शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखी “स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन” के अनुसार वर्ष 1898 में जब स्वामी विवेकानंद अल्मोड़ा यात्रा पर थे, उन दिनों अंग्रेज़ उनकी निगरानी करते थे। जब यह सूचना स्वामीजी को पता लगी तो उन्होंने यह बात हँसी में उड़ा दी थी! लेकिन भगिनी निवेदिता और अन्य सहयात्रियों ने इस विषय को गंभीरता से लिया था। स्वामी विवेकानंद के द्वारा सम्प्रेषित पत्र डाकघरों में पढ़े जाते थे, यह तथ्य भी सामने आता है! अंग्रेजी सरकार द्वारा करवाई गई जासूसी हो या अन्य ऐसी किसी भी चुनौतियों से ना तो स्वामी विवेकानंद डरे और ना रुके… वह निरंतर अपना कार्य करते रहे।
फरवरी 1897 को मद्रास (आज का चेन्नई) में हज़ारों लोगों को सम्बोधित करते हुए अपने भाषण ”भारत का भविष्य” में स्वामी विवेकानंद संगठित होने का महत्व बताते हैं। वह चार करोड़ अंग्रेज़ों द्वारा तीस करोड़ भारतवासियों के ऊपर शासन करने का सबसे बड़ा कारण उनका संगठित होना और भारतवासियों का बिखराव मानते थे। उनका सन्देश बिलकुल स्पष्ट था। वो मानते थे कि यदि भारत का भविष्य उज्जवल, भारत को महान बनाना और स्वाधीनता के साथ जीना है, तो संगठित होना अतिआवश्यक है जो एक संगठन द्वारा होगा। ताकि सभी बिखरी हुई शक्तियाँ एकत्रित की जा सकें, जिससे शक्ति-संग्रह होगी।
स्वामी विवेकानंद आगे आह्वान करते हैं – “गुलाम बनना छोड़ो। आगामी पचास वर्ष के लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता ही मानो आराध्य देवी बन जाए। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ भी हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ, हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है।” 1897 को दिए गए इस भाषण के ठीक पचास वर्ष बाद 1947 में भारत स्वतन्त्र हो जाता है।
स्वामी विवेकानंद ने मात्र अपने जीते जी ही नहीं बल्कि अपने स्वर्गवास के उपरांत भी लाखों युवाओं और वरिष्ठ क्रांतिकारियों का मार्गदर्शन किया, जिन्होंने उनके विचारों से प्रभावित होकर अपना जीवन भारत को स्वतन्त्रता दिलवाने के लिए न्योछावर कर दिया। उनकी प्रेरणा, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन पाने वाले महानुभावों में बाल गंगाधर तिलक, श्री अरविन्द, महात्मा गाँधी, आचार्य विनोबा भावे, सुभाष चन्द्र बोस, भगिनी निवेदिता, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जवारलाल नेहरू, बाबा साहब आम्बेडकर भी थे। भारतवर्ष को अंग्रेजी राज से स्वतंत्र करवाने की मुहीम में मात्र 18 वर्ष 5 महीने और 11 दिन की उम्र में ही फाँसी पर चढ़ने वाले खुदीराम बोस, ढाका मुक्ति संघ के संस्थापक हेमचंद्र घोष, क्रांतिकारी लेखक ब्रह्मबांधव उपाध्याय, अनेकों रियासतों के राजा (जैसे खेतड़ी के राजा अजीत सिंह) आदि भी स्वामी विवेकानंद से प्रभावित रहे थे।