शिवाजी महाराज एक ऐसे साहसी और संकल्पित योद्धा थे, जिन्होंने 17वीं शताब्दी में ‘हिंदवी स्वराज्य’ के संस्थापक के रूप में ऐतिहासिक कार्य किया। 6 जून, 1674 को अपूर्व भव्यता के साथ, वह छत्रपति, ‘सर्वोच्च संप्रभु’ के रूप में सिंहासन पर बैठे। छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिससे इस संप्रभु और शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य की नींव पड़ी।
यह साम्राज्य गुप्त, मौर्य, चोल, अहोम और विजयनगर साम्राज्य की ही तरह शक्तिशाली, सुसंगठित और सुशासित था। छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के 350वें वर्ष की स्मृति को शिव शक पंचांग के अनुसार ‘शिवराज्याभिषेक सोहला’ के रूप में भी जाना जाता है।
हिंदुओं की चोटी और गरीब की रोटी-बेटी के रखवाले शिवाजी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अग्रदूत थे। कवि भूषण ने शिवराजभूषण और शिवा बावनी जैसी रचनाओं में छत्रपति शिवाजी महाराज की देशभक्ति, वीरता और प्रजावत्सलता का विशद वर्णन किया है।
भारतीय इतिहास में शानदार राजाओं, बहादुर योद्धाओं और दूरदर्शी नेताओं की लंबी सूची है। इनमें छत्रपति शिवाजी महाराज का असाधारण जीवन अदम्य साहस, अद्वितीय नेतृत्व क्षमता, दृढ़ संकल्प और लोक कल्याणकारी संवेदनशील और सक्षम प्रशासन का पुंजीभूत है।
विभाजित और पराजित हिंदू समाज निराश और कुंठित था। लम्बे इस्लामी शासन ने उसे असहाय, आत्मविश्वासहीन और अस्थिर बना दिया था। भारत का बौद्धिक परिदृश्य क्रमशः बंजर हो रहा था और सांस्कृतिक सूर्य अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था। ऐसे में ‘म्लेच्छाक्रान्त देशेषु’ जैसे विषम वातावरण में भारत माँ के देशभक्त सपूत शिवाजी का उदय धूमकेतु की तरह होता है।
उन्होंने एक महान ‘हिंदवी साम्राज्य’ की स्थापना करते हुए विभाजनकारी और दमनकारी इस्लामी शासन का प्रतिरोध किया। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर हिंदू धर्म का पुनरुत्थान और प्रसार सुनिश्चित किया। अपनी माँ जीजाबाई, समर्थ गुरु रामदास और भारत के अन्य संतों और सम्राटों के उच्चतम आदर्शों से प्रेरित होकर, उन्होंने न केवल हिंदुओं की सुषुप्त चेतना को जागृत किया, बल्कि उन्हें संगठित करते हुए मुगल शक्ति को खुली चुनौती दी।
शिवाजी ने एक ऐसे संप्रभु और स्वदेशी साम्राज्य की स्थापना की, जिसमें प्रजाजनों का हित संरक्षण सर्वोपरि था। हिंदू राष्ट्रवाद के कट्टर समर्थक और हिंदू हितों के संरक्षक के रूप में, उन्होंने सक्रिय रूप से हिंदू अस्मिता को प्रतिष्ठापित करने, सनातन संस्कृति को पुनर्जीवित करने और मंदिरों के संरक्षण और निर्माण कार्य पर सर्वाधिक बल दिया। इसीलिए वे हिंदू राष्ट्रवादी आंदोलनों, विचारधाराओं और व्यक्तियों के प्रेरणा-स्रोत हैं। उनके शासन में संस्कृत और मराठी आदि भारतीय भाषाओं को भी विशेष प्रोत्साहन दिया गया। यह सनातन सांस्कृतिक मूल्यों से संचालित देशज साम्राज्य था।
शिवाजी ने हिंदुओं को संगठित करते हुए एक अपराजेय शक्ति बना दिया। इस महान योद्धा का अदम्य साहस युद्ध-कौशल और सैन्य-संगठन किशोरावस्था से ही प्रकट होने लगे थे।
उन्होंने 1646 में आदिल शाही सल्तनत को चुनौती देते हुए तोरण किले पर कब्जा कर लिया। इस साहसिक विजय ने मुगल साम्राज्य और आदिल शाही सल्तनत जैसी दुर्जेय शक्तियों को स्तब्ध कर दिया था। बाद में पुरंदर के युद्ध में उन्होंने फत्तेखान के नेतृत्व वाली विशाल सेना को बुरी तरह पराजित किया।
प्रतापगढ़ की लड़ाई में शिवाजी की सेना ने बीजापुर सल्तनत की सेना पर विजय प्राप्त की। उनके नेतृत्व में, मराठा एक अपराजेय राष्ट्रीय शक्ति के रूप में उभरते गए। उन्होंने मुगल साम्राज्य को तब चुनौती दी, जब वह औरंगजेब के शासन काल में अपने गौरव के चरम पर था।
उन्होंने औरंगजेब के जबरन धर्मांतरण द्वारा भारत के इस्लामीकरण के एजेंडे का सक्रिय विरोध करते हुए गैर-मुस्लिमों के धर्म और संस्कृति का संरक्षण किया। भारतीय इतिहास के सबसे प्रभावशाली और शक्तिशाली राज्यों में से एक यह साम्राज्य अटक (अब पाकिस्तान का हिस्सा) से लेकर तमिलनाडु में तंजावुर तक फैला हुआ था।
मराठों ने न केवल मुगलों को हराया, बल्कि 18वीं शताब्दी के अधिकांश समय में ब्रिटिश सेना को भी भारत पर कब्जा करने से रोका। इस प्रकार शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित ‘हिंदवी स्वराज्य’ ने विदेशी और औपनिवेशिक शक्तियों का निरंतर प्रतिकार किया।
शिवाजी के नेतृत्व में उनकी सेना ने युद्ध में अनूठी रणनीतियों का प्रयोग किया। उनके अपरंपरागत गुरिल्ला युद्ध (गनीमी कावा) की रणनीति और जांबाजी युद्ध के मैदान में उनकी जीत की आधारशिला थी।
उन्होंने छोटे-छोटे किलों का एक रणनीतिक नेटवर्क/संजाल बनाते हुए ‘गढ़ी माज़ी लड़की’ या ‘किले हमारी ताकत हैं’ का सूत्रवाक्य दिया। इन किलों ने सेना के लिए महत्वपूर्ण संचालन-केंद्रों के रूप में कार्य किया, इससे वे अधिक साधन-संपन्न, शक्तिशाली और स्थापित शत्रु-शक्तियों को चुनौती देने और उन्हें नियंत्रित करने में सक्षम हुए।
शिवाजी की सैन्य सफलताएँ समकालीन सेनानायकों के लिए भी हैरतअंगेज हैं। समुद्री सुरक्षा के सामरिक महत्व को स्वीकार करते हुए उन्होंने एक दुर्जेय नौसैनिक बेड़े की स्थापना की। उन्होंने अरब सागर को नियंत्रित करने और अपने साम्राज्य के तटीय क्षेत्रों को सुरक्षित करने के महत्व को समझते हुए ऐसा किया। उनकी नौसेना ने न केवल कोंकण तट को समुद्री खतरों से बचाया, बल्कि हिंद महासागर के व्यापार मार्गों में यूरोपीय शक्तियों के प्रभुत्व को भी चुनौती दी।
इस साम्राज्य की विशिष्टता सैन्य विजय के अलावा सुशासन के क्षेत्र में भी थी। उन्होंने परिवर्तनकारी सुधारों की शुरुआत की। स्थानीय शासन, स्व-शासन, त्वरित और निष्पक्ष न्याय प्रणाली और सुव्यवस्थित और समुचित राजस्व संग्रह उनके सुशासन की आधारशिला बने।
सत्ता के विकेंद्रीकरण और शासन के जनतंत्रीकरण द्वारा लोककल्याण,सम्मान और सुरक्षा ‘हिंदवी स्वराज्य’ की पहचान थे। वे वास्तव में ‘सबका साथ, सबका विकास’ में आस्था रखते थे और उसी नीति का अनुसरण करते थे। उन्होंने व्यक्ति-केन्द्रित शासन के स्थान पर व्यवस्था-आधारित शासन के सृजन पर बल दिया।
एक उल्लेखनीय पहल ‘अष्ट प्रधान’ या आठ मंत्रियों की परिषद का गठन था। इस परिषद में विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ शामिल थे। नीति-निर्माण और कार्यान्वयन में उनकी निर्णायक भूमिका होती थी। विचार-विमर्श पर आधारित सामूहिक और सहकारी निर्णय-प्रक्रिया ने शासन को पारदर्शी, जबावदेह और संवेदनशील बनाया।
इसके अलावा राजस्व आकलन की नई प्रणाली भी शुरू की गई, जिसमें कर आकलन और संग्रह की एक निष्पक्ष और पारदर्शी व्यवस्था विकसित की गई। इस नई व्यवस्था ने समुचित राजस्व-संग्रह सुनिश्चित करते हुए भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया। इस व्यवस्था के निर्माण में दादाजी कोंडदेव की महत्वपूर्ण भूमिका थी।
भूमि माप के मानकीकरण और मिट्टी के प्रकार के आधार पर उपज का अनुमान लगाने की शुरुआत की गई। आर्थिक विकास के लिए किसानों को बंजर भूमि पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया गया। बेरोजगार किसानों को कृषि उद्यम शुरू करने के लिए राज्याश्रय भी दिया गया। इन नीतियों से किसानों, कारीगरों और व्यापारियों को बड़ी राहत मिली।
अर्थ-व्यवस्था में क्रमिक वृद्धि से ‘हिंदवी स्वराज्य’ न सिर्फ शक्तिशाली बना बल्कि समृद्ध और विकसित भी हुआ। इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं ने आधुनिक भारत की शासन प्रणाली पर भी व्यापक प्रभाव डाला।
‘हिंदवी स्वराज्य’ मूलतः स्व-शासन पर आधारित था, जिसमें स्थानीय समुदायों के सशक्तिकरण और भागीदारी पर जोर दिया गया। उन्हें अपने मामलों को संचालित करने और निर्णय लेने की स्वायत्तता दी गई थी।
समर्थ गुरु रामदास की शिक्षाओं से प्रेरित होकर शिवाजी ने सभी हिंदुओं की एकता को प्रोत्साहित किया और ‘सनातन धर्म’ का प्रचार किया। जिसका अर्थ था जातिगत भेदभाव से मुक्त एक ऐसे उदार धर्म को प्रोत्साहन, जिसमें महिलाओं को प्रतिष्ठा और अधिकार देना, कर्मकांडों पर भक्तिभाव को प्राथमिकता देना आदि प्रमुख तत्व थे। विभिन्न पृष्ठभूमि के विद्वानों, कलाकारों और कवियों को संरक्षण प्रदान किया गया। सामाजिक न्याय और समानता उनके प्रशासन की आधारशिला थी।
स्व-शासन, सांस्कृतिक गौरव, सनातन धर्म और विदेशी वर्चस्व के अटूट और अनवरत प्रतिरोध के सिद्धांत पर स्थापित ‘हिंदवी स्वराज्य’ की विरासत ने बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर आदि विचारकों और स्वतंत्रता सेनानियों के ऊपर अमिट छाप छोड़ी। इस विरासत ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और स्वातन्त्र्योत्तर भारत को भी प्रभावित किया। निष्कर्षतः ‘हिंदवी स्वराज्य’ के संस्थापक शिवाजी आधुनिक भारत के निर्माताओं में से एक थे।