“अरे ओ साम्बा! सरकार कितने का ईनाम रखी है रे हम पर?” एक मशहूर से वक्तव्य में ‘शोले’ का गब्बर पूछता है। जिस पर ईनाम ही न हो, वो बागी कैसा? सरकार के खिलाफ आपने कितनी बड़ी बगावत कर रखी है, इसका पता ही इसी बात से चलता है कि आपके सर पर ईनाम कितने का है।
आज जरूर लोकतंत्र है और जनता की चुनी हुई सरकार के खिलाफ होने के कारण किसी का ‘ईनामी’ होना बदनामी होती है। अर्थों के ऐसे बदलने की वजह से ही हम जब ‘टूलकिट पत्रकारों’ को ‘ईनामी पत्रकार’ कह देते हैं तो उनकी भावना भी आहत हो जाती है।
थोड़े पुराने दौर में ऐसा नहीं था। प्रकट तौर पर भले लोग न दर्शाएँ, लेकिन जनभावनाओं में ब्रिटिश सरकार का ‘ईनामी’ भारतीय जनमानस के लिए सम्मानित ही होता था। उनके सर पर ईनाम भी कोई छोटा मोटा नहीं था। फिरंगी दौर में आज से करीब सौ वर्ष पहले 1930 के दशक में जब उनके सर 500 का ईनाम रखा गया, तो ये काफी बड़ी रकम थी। ईनाम सिर्फ इतना ही नहीं था। जिस गाँव में वो पकड़ी जाती, उसके लिए भी अगले दस वर्ष तक टैक्स में छूट थी। इस सब के वाबजूद ये लड़की पकड़ी नहीं जा रही थी। करीब सत्रह साल की इस लड़की को पकड़ने के लिए फिरंगियों को असम रायफल्स की तीसरी और चौथी बटालियन उतारनी पड़ी।
सत्रह साल की ये लड़की रानी गाइदिन्ल्यू (Gaidinliu) थी। आज के असम, नागालैंड और मिजोरम के क्षेत्रों में उस समय ‘हेराका’ (शुद्धिकरण) का आन्दोलन चल रहा था। साथ ही साथ, ये आन्दोलन राष्ट्रवादी भी था, इसलिए इसके नेता जदोनाँग को फिरंगियों ने गिरफ्तार करके फाँसी पर चढ़ा दिया था।
तेरह वर्ष की आयु में हेराका से जुड़ी रानी गाइदिन्ल्यू ने अपने भाई की मृत्यु के बाद आन्दोलन की कमान संभाल ली। स्थानीय धार्मिक नेतृत्व का उभारना ईसाई फिरंगियों को पसंद तो नहीं ही आना था। इसलिए बड़े ईनाम और मजबूत सेना के साथ उनकी तलाश शुरू हुई। उन्हें 1932 में गिरफ्तार किया जा सका। नेहरू उनसे 1937 में मिले थे और अपने इंटरव्यू में रानी गाइदिन्ल्यू बुलाने के कारण गाइदिन्ल्यू के नाम में रानी जुड़ गया।
जब 1946 में भारत में प्रोविंशियल गवर्नमेंट बनी, तब जाकर रानी गाइदिन्ल्यू को छोड़ा गया। तब तक वो अलग-अलग जेलों में करीब 14 वर्ष बिता चुकी थी। जेल से छूटने के बाद रानी गाइदिन्ल्यू में जुटी रहीं, लेकिन फिर क्रन्तिकारी के जीवन में क्रांति एक ही बार कब होती है?
रानी गाइदिन्ल्यू एक जेलिआँगरोंग समूह के कबीलों के भारत राष्ट्र के अन्दर होने की वकालत करती थीं। इसकी तुलना में नागा समूह के कबीलों में अलग देश की माँग उठ रही थी। रानी गाइदिन्ल्यू जिस हेराका संस्कृति की बात करती थी, वो प्रकृति इत्यादि के पूजन वाली व्यवस्था थी। नारी-विरोधी बैप्टिस्ट ईसाई नागा किसी पैगन व्यवस्था को जीवित कैसे रहने दे सकते थे? बैप्टिस्ट ईसाई व्यवस्था को चुनौती देने के कारण उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने की धमकियाँ मिलने लगीं और अंततः उन्हें 1960 में फिर से भूमिगत होना पड़ा।
इन सबके बीच, ईसाइयों द्वारा उनकी हत्या की कोशिशों के बाद भी उनका हेराका आन्दोलन रुका नहीं। जब वो कोहिमा में थीं (1972) तब उन्हें स्वतंत्रता सेनानी का ताम्रपत्र मिला। दस वर्ष बाद (1982 में) उन्हें पद्मभूषण भी मिला था।
बैप्टिस्ट ईसाइयों का विरोध करने वाली स्वतंत्रता सेनानी की आवाज भी किस हद तक दबाई जा सकती है, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि आपने हाल के दौर तक रानी गाइदिन्ल्यू के बारे में बिकने वाली मीडिया में कुछ भी नहीं पढ़ा। आज भी आप उनके बारे में सोशल मीडिया पर ही पढ़ पा रहे है। ऐसा तब है जब पत्रकारिता के विख्यात संस्थान – दिल्ली के आईआईएमसी का हॉस्टल ही रानी गाइदिन्ल्यू के नाम पर है!
बाकी जब गैर कॉन्ग्रेसी स्वतंत्रता सेनानियों को याद कीजिएगा तो रानी गाइदिन्ल्यू का नाम भी याद कर लीजियेगा। ये भी सोचियेगा कि जब कॉन्ग्रेस के अलावा दूसरे संगठनों के आंदोलनों की बात की जाती है, तो कैसे उन्हें संस्कृति-साहित्य आदि से बौद्धिक रूप से क्षीण बताया जाता है।
ऐसा तब है, जब रानी गाइदिन्ल्यू जिस हेराका आन्दोलन को चलाती रही, वो मुख्यतः अपनी सभ्यता-संस्कृति बचाने के लिए ही था। बाद तक इसे बैप्टिस्ट ईसाइयों का हिंसक विरोध झेलना पड़ा। आज उनकी याद इसलिए क्योंकि आज (17 फ़रवरी 1993) उनकी पुण्यतिथि होती है।