काशी विश्वनाथ मंदिर को औरंगजेब ने ध्वस्त करवाया और फिर उस पर एक विवादित ढाँचे को खड़ा कर दिया, जिसे मुस्लिम ‘मस्जिद’ बताने लगे। वो 2 दिसंबर, 1669 का दिन था जब मुग़ल बादशाह के फरमान पर इस मंदिर को ध्वस्त किया गया था। उससे पहले अकबर के समय राजस्व मंत्री रहे राजा टोडरमल ने नारायण भट्ट नामक साधु के कहने पर इसे बनवाया था। औरंगजेब के समय ही शिवलिंग को ज्ञानवापी में डाल दिया गया था।
बताया जाता है कि जिस समय मंदिर को ध्वस्त किया गया, तब वहाँ के मुख्य पुजारी ने जल्दी-जल्दी में प्रतिमाओं को बचाने के लिए कुएँ (ज्ञानवापी) में समाहित कर दिया। साथ ही शिवलिंग को भी उसमें ही स्थापित कर दिया। इसके बाद से ही ज्ञानवापी हिन्दुओं की श्रद्धा का और बड़ा केंद्र बन गया। मंदिर को पूरा ध्वस्त न करते हुए औरंगजेब ने उसके ऊपर मस्जिद के गुंबद उठवा दिए। गर्भगृह को मस्जिद का दालान बना दिया गया।
शिखर को बुरी तरह ध्वस्त कर दिया गया। मंदिर के अधिकतर द्वार बंद कर दिए गए। इतिहासकार मीनाक्षी जैन अपनी पुस्तक ‘Flight Of Deities And Rebirth Of Temples’ में बताती हैं कि कैसे औरंगजेब ने होली और दीवाली जैसे त्योहारों को प्रतिबंधित करने के अलावा हिन्दुओं को यमुना के किनारे अंतिम संस्कार पर भी रोक लगा दी थी। उसने केशव देव मंदिर को ध्वस्त करने के भी आदेश दिए। फिर वहाँ शाही ईदगाह मस्जिद बनवा दिया गया।
मीनाक्षी जैन वाराणसी के केदार मंदिर के बारे में भी बताते हैं, जिन्हें विश्वेश्वर का बड़ा भाई मान कर पूजा की जाती थी और ये काशी का सबसे प्राचीन शिवलिंग है। स्थानीय लोगों के बीच प्रचलित था कि जब औरंगजेब की फ़ौज ने नंदी की प्रतिमा को तबाह किया तो उसके गर्दन से खून टपकने लगा, जिसके बाद वो वहाँ से डर के मारे भाग खड़े हुए। औरंगजेब के समय बनारस में कृत्तिवासेश्वर, ओंकार, महादेव, मध्यमेश्वर, विश्वेश्वर, बिंदु माधव और काल भैरव समर अनगिनत मंदिर ध्वस्त कर दिए गए।
इनमें से अधिकतर जगह हिन्दुओं के लिए बंद कर दिए गए और वहाँ मस्जिद खड़े कर दिए गए। उस समय वाराणसी में रह रहे विदेशी यात्रियों ने भी अपने संस्मरण में लिखा है कि पुरातन काल के मंदिरों को मुस्लिम शासन ने ध्वस्त कर के मस्जिद और दरगाहों में बदल दिया। हालाँकि, औरंगजेब की फ़ौज को इस मंदिर को ध्वस्त करने से पहले दशनामी साधुओं से युद्ध लड़ना पड़ा। अखाड़ों के साधुओं ने हथियारों का प्रशिक्षण लिया था और वो मुग़ल फ़ौज का सामना करने निकले।
‘अखाड़ा’ नाम से ही पता चलता है कि वहाँ पहलवानी और युद्धकालाओं का प्रशिक्षण मिलता रहा होगा। जानबूझ कर मंदिर की दीवारों पर ही मस्जिद बना दिया गया, लेकिन इसका नाम ‘ज्ञानवापी’ ही रह गया। ये नाम किसी भी मुस्लिम साहित्य में नहीं मिलता, सनातनी ग्रंथों में जरूर इसका जिक्र है। इसी ध्वस्तीकरण के बाद ज्ञानवापी के दक्षिण की तरफ शिवलिंग की स्थापना की गई। वहाँ कोई मंदिर नहीं बनाया गया और हिन्दू चुपचाप गुप्त रूप से भगवान शिव की पूजा करते थे, ताकि मुगलों को इसके बारे में पता न चल जाए।
कुछ दस्तावेजों से पता चलता है कि रेवा के महाराज भाव सिंह, उदयपुर के जगत सिंह, और रेवा के अनिरुद्ध सिंह अलग-अलग वर्षों में यहाँ पूजा करने पहुँचे। सन् 1734 में उदयपुर के महाराज जवान सिंह ने विश्वेश्वर के नजदीक ही एक शिवलिंग की स्थापना की, जो जवानेश्वर कहलाया। उदयपुर के महाराज संग्राम सिंह और असी सिंह भी यहाँ पहुँचे। अंत में अहिल्याबाई होल्कर ने यहाँ मंदिर का निर्माण करवाया, जिनकी प्रतिमा काशी विश्वनाथ कॉरिडोर में भी लगाई गई है।
औरंगजेब के समय वाराणसी के जिन तीन बड़े मंदिरों के ऊपर मस्जिद बनाए गए, वो हैं – विश्वेश्वर मंदिर की जगह ज्ञानवापी ‘मस्जिद’, पंचगंगा घाट पर बिंदु माधव मंदिर की जगह धरहरा मस्जिद (यहाँ के दो मीनारों के ऊपर चढ़ कर पूरा शहर देखा जा सकता था) और कृत्तिवासेश्वर मंदिर की जगह दारानगर में आलमगीरी मस्जिद। बिंदु माधव की मीनारों को लंबे समय तक ‘माधव का धरहरा’ कहा जाता रहा, मंदिर की याद में। हालाँकि, भक्ति संतों के प्रयासों और आम लोगों की श्रद्धा ने हिन्दुओं को मानसिक रूप से मजबूत रखा और वो अपने धर्म से जुड़े रहे।
हम जानते हैं कि कैसे तुलसीदास ने वाराणसी में रह कर ही ‘रामचरितमानस’ की रचना की और वहाँ एक शिवलिंग समेत भगवान हनुमान के 4 मंदिरों की स्थापना की, जिनमें संकटमोचन प्रमुख है। हालाँकि, औरंगजेब की मौत के साथ ही वाराणसी में मजहबी आक्रांताओं के हमलों का भी अंत हो गया। इसके बाद मराठा शक्ति का उदय हुआ, जिसके रहते यहाँ कोई गड़बड़ी नहीं हुई। फिर अंग्रेज आए और उनके शासनकाल के बाद भारत आज़ाद हुआ।
ज्ञानवापी मंदिर को पूरा इसीलिए नहीं तोड़ा गया था, ताकि आने वाले समय तक हिन्दू इसे देख कर इस क्रूरता को याद कर के डरते रहें। फ़ारसी साहित्य में ज्ञानवापी ध्वस्तीकरण पर एक रोचक प्रसंग मिलता है। औरंगजेब के दरबार में एक कवि था, जिसका कहना था कि वो ब्राह्मण है और 100 बार काबा जाने के बावजूद ब्राह्मण ही रहेगा। उसका कहना था कि उसका हृदय ‘कुफ्र’ से इतना मोहित है कि सौ बार काबा फर्क भी ब्राह्मण ही लौटेगा।
James Princep on #Kashi. He describes in detail how both the Bindu Madhav and Kashi Vishweshwar temples were destroyed by Aurangzeb and what the original plan of the temple was like #GyanvapiMandir pic.twitter.com/dm6zXGJmIz
— Shefali Vaidya. 🇮🇳 (@ShefVaidya) May 20, 2022
बता दें कि हिन्दुओं को इस्लामी कट्टरपंथी और आक्रांता ‘कुफ्र करने वाला’, अर्थात ‘काफिर’ कहते रहे हैं। ‘बरहमन’ नाम से लेखन कार्य करने वाले उस कवि चंद्रभान से औरंगजेब ने जब पूछा कि क्या काशी में मंदिर ध्वस्त किए जाने और उस पर मस्जिद बनाए जाने पर वो कुछ कहना चाहेगा, तो उसने लिखा, “ऐ शेख, मेरे मंदिर की ये चमत्कारिक महानता तो देख कि यहाँ तुम्हारा खुदा भी तभी आया जब ये बर्बाद हुआ।” कहा जाता है कि बूढ़े कवि की इस बात पर बादशाह चुप रहा। कुबेर नाथ शुक्ल ने ‘Varanasi Down The Ages’ पुस्तक में इसका जिक्र किया है।
चन्द्रभान शाहजहाँ के समय से ही मुगलों के दरबार में हुआ करता था और उसके पिता भी मुग़ल शासन में एक अधिकारी हुआ करते थे। उसे पता था कि काशी को लेकर हिन्दू क्या सोचते हैं, उनकी क्या श्रद्धा है। विश्वनाथ मंदिर, जिसे बाद में टोडरमल ने बनवाया था, वो भी भव्य था। 124 फ़ीट के प्रत्येक साइड वाले वर्ग की आकृति में वो मंदिर बना था, जिसके बीच में गर्भगृह था। चारों तरफ 16*10 के मंडप थे। चारों कोने पर बाहर अलग से चार मंडप और छोटे-छोटे मंदिर थे।