23 मार्च को डॉ. राम मनोहर लोहिया की जयंती है। 1936 में, उन्हें जवाहरलाल नेहरू द्वारा A.I.C.C. के विदेश विभाग के सचिव के रूप में चुना गया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज डॉ. लोहिया के साथ-साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को भी श्रद्धांजलि दी, जिन्हें 1931 में इस दिन फाँसी दी गई थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘डॉ. लोहिया की याद में’ शीर्षक से लिखा गया ब्लॉग:—
आज का दिन देश के महान क्रांतिकारियों के सम्मान का दिन है।
माँ भारती के अमर सपूतों वीर भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए देश उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करता है।
इसके साथ ही अद्वितीय विचारक, क्रांतिकारी तथा अप्रतिम देशभक्त डॉ. राम मनोहर लोहिया को उनकी जयंती पर सादर नमन।
प्रखर बुद्धि के धनी डॉ. लोहिया में जन सरोकार की राजनीति के प्रति गहरी आस्था थी।
जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान देश के शीर्ष नेताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया था, तब युवा लोहिया ने आंदोलन की कमान संभाली और डटे रहे। उन्होंने भूमिगत रहते हुए अंडरग्राउंड रेडियो सेवा शुरू की, ताकि आंदोलन की गति धीमी न पड़े।
गोवा मुक्ति आंदोलन के इतिहास में डॉ. लोहिया का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
जहाँ कहीं भी गरीबों, शोषितों, वंचितों को मदद की ज़रूरत पड़ती, वहाँ डॉ. लोहिया मौजूद होते थे।
डॉ. लोहिया के विचार आज भी हमें प्रेरित करते हैं। उन्होंने कृषि को आधुनिक बनाने तथा अन्नदाताओं के सशक्तीकरण को लेकर काफी कुछ लिखा। उनके इन्हीं विचारों के अनुरूप एनडीए सरकार प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, कृषि सिंचाई योजना, e-Nam, सॉयल हेल्थ कार्ड और अन्य योजनाओं के माध्यम से किसानों के हित में काम कर रही है।
डॉ. लोहिया समाज में व्याप्त जाति व्यवस्था और महिलाओं एवं पुरुषों के बीच की असमानता को देखकर बेहद दुखी होते थे। ‘सबका साथ, सबका विकास’ का हमारा मंत्र तथा पिछले पाँच सालों का हमारा ट्रैक रिकॉर्ड यह दिखाता है कि हमने डॉ. लोहिया के विजन को साकार करने में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की है। अगर आज वे होते तो एनडीए सरकार के कार्यों को देखकर निश्चित रूप से उन्हें गर्व की अनुभूति होती।
जब कभी भी डॉ. लोहिया संसद के भीतर या बाहर बोलते थे, तो कॉन्ग्रेस में इसका भय साफ़ नज़र आता था।
देश के लिए कॉन्ग्रेस कितनी घातक हो चुकी है, इसे डॉ. लोहिया भलीभाँति समझते थे। 1962 में उन्होंने कहा था, “कॉन्ग्रेस शासन में कृषि हो या उद्योग या फिर सेना, किसी भी क्षेत्र में कोई सुधार नहीं हुआ है।”
उनके ये शब्द कॉन्ग्रेस की बाद की सरकारों पर भी अक्षरश: लागू होते रहे। बाद के कॉन्ग्रेस शासनकालों में भी किसानों को परेशान किया गया, उद्योगों को हतोत्साहित किया गया (सिर्फ़ कॉन्ग्रेस नेताओं के दोस्तों और रिश्तेदारों के उद्योगों को छोड़कर) और राष्ट्रीय सुरक्षा की अनदेखी की गई।
कॉन्ग्रेसवाद का विरोध डॉ. लोहिया के हृदय में रचा-बसा था। उनके प्रयासों की वजह से ही 1967 के आम चुनावों में सर्वसाधन संपन्न और ताकतवर कॉन्ग्रेस को करारा झटका लगा था। उस समय अटल जी ने कहा था – डॉ. लोहिया की कोशिशों का ही परिणाम है कि हावड़ा-अमृतसर मेल से पूरी यात्रा बिना किसी कॉन्ग्रेस शासित राज्य से गुजरे की जा सकती है !
दुर्भाग्य की बात है कि राजनीति में आज ऐसे घटनाक्रम सामने आ रहे हैं, जिन्हें देखकर डॉ. लोहिया भी विचलित, व्यथित हो जाते।
वे दल जो डॉ. लोहिया को अपना आदर्श बताते हुए नहीं थकते, उन्होंने पूरी तरह से उनके सिद्धांतों को तिलांजलि दे दी है। यहाँ तक कि ये दल डॉ. लोहिया को अपमानित करने का कोई भी कोई मौका नहीं छोड़ते।
ओडिशा के वरिष्ठ समाजवादी नेता श्री सुरेन्द्रनाथ द्विवेदी ने कहा था,“डॉ. लोहिया अंग्रेजों के शासनकाल में जितनी बार जेल गए, उससे कहीं अधिक बार उन्हें कॉन्ग्रेस की सरकारों ने जेल भेजा।”
आज उसी कॉन्ग्रेस के साथ तथाकथित लोहियावादी पार्टियाँ अवसरवादी महामिलावटी गठबंधन बनाने को बेचैन हैं। यह विडंबना हास्यास्पद भी है और निंदनीय भी है।
डॉ. लोहिया वंशवादी राजनीति को हमेशा लोकतंत्र के लिए घातक मानते थे। आज वे यह देखकर ज़रूर हैरान-परेशान होते कि उनके ‘अनुयायी’ के लिए अपने परिवारों के हित देशहित से ऊपर हैं।
डॉ. लोहिया का मानना था कि जो व्यक्ति ‘समता’, ‘समानता’ और ‘समत्व भाव’ से कार्य करता है, वह योगी है। दु:ख की बात है कि स्वयं को लोहियावादी कहने वाली पार्टियों ने इस सिद्धांत को भुला दिया। वे ‘सत्ता’, ‘स्वार्थ’ और ‘शोषण’ में विश्वास करती हैं। इन पार्टियों को जैसे तैसे सत्ता हथियाने, जनता की धन-संपत्ति को लूटने और शोषण में महारत हासिल है। गरीब, दलित, पिछड़े और वंचित समुदाय के लोगों के साथ ही महिलाएँ इनके शासन में ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं करतीं, क्योंकि ये पार्टियाँ अपराधी और असामाजिक तत्त्वों को खुली छूट देने का काम करती हैं।
डॉ. लोहिया जीवन के हर क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं के बीच बराबरी के पक्षधर रहे। लेकिन, वोट बैंक की पॉलिटिक्स में आकंठ डूबी पार्टियों का आचरण इससे अलग रहा। यही वजह है कि तथाकथित लोहियावादी पार्टियों ने तीन तलाक़ की अमानवीय प्रथा को ख़त्म करने के एनडीए सरकार के प्रयास का विरोध किया।
इन पार्टियों को यह स्पष्ट करना चाहिए कि इनके लिए डॉ. लोहिया के विचार और आदर्श बडे़ हैं या फिर वोट बैंक की राजनीति?
आज 130 करोड़ भारतीयों के सामने यह सवाल मुँह बाए खड़ा है कि – जिन लोगों ने डॉ. लोहिया तक से विश्वासघात किया, उनसे हम देश सेवा की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
ज़ाहिर है, जिन लोगों ने डॉ. लोहिया के सिद्धांतों से छल किया है, वे लोग हमेशा की तरह देशवासियों से भी छल करेंगे।