1826 में अंग्रेजो द्वारा असम के विलय के साथ, ब्रिटिश चाय बागानों में तथा अन्य कार्य हेतु पूर्व-बंगाल और उन स्थानों से किसानों को ले आए थे, जहाँ आबादी अधिक थी। 1906 में ढाका में हुए अपने सम्मेलन में मुस्लिम लीग, मुख्य रूप से गैर-मुस्लिम असम और पूर्वोत्तर पर हावी होने के लिए और इसे मुस्लिम-बहुल क्षेत्र बनाने के लिए, एक रणनीति बनाती है। वो असम में मुस्लिम आबादी बढ़ाने के लिए और पूर्वी बंगाल के मुस्लिमों को असम में प्रवास करने और बसने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।
1931 की जनगणना रिपोर्ट में बड़े पैमाने पर पलायन के इस तथ्य को भी नोट किया गया था। कॉन्ग्रेस नेता बारदोलाई, मेधी और अन्य भी पलायन के इस गंभीर मुद्दे को उठाते हैं, लेकिन केंद्र में कॉन्ग्रेस नेतृत्व से इस बार भी उचित समर्थन नहीं मिला। 1938 में, जब असम में ‘मुस्लिम लीग’ के नेतृत्व वाला गठबंधन गिर गया, तो नेताजी सुभाष बोस ने सरकार बनाने के लिए कॉन्ग्रेस द्वारा सरकार बनाने का समर्थन किया, किन्तु उनका विरोध करने के लिए इस बार सामने थे – मौलाना आज़ाद।
सरदार पटेल सुभाष बोस का समर्थन करते हैं और गोपीनाथ बोरदोलोई के नेतृत्व में कॉन्ग्रेस सरकार कार्यभार सँभाल लेती है। बोरदोलोई के आने से यह आशा बँधी थी कि मुस्लिम पलायन रुक जाएगा, और मुस्लिम लीग का खेल हार जाएगा। हालाँकि, नेहरू और उनके वामपंथी समर्थकों की नासमझी के कारण, प्रांतों में कॉन्ग्रेस की सरकारें 1939 में इस्तीफा दे देती हैं। इस कारण गोपीनाथ बोरदोलोई को भी असम में इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
हालाँकि, नेताजी सुभाष बोस और पटेल चाहते थे कि बोरदोलोई सरकार बनी रहे। ‘मुस्लिम लीग’ के सर सैयद मोहम्मद सादुल्ला, जो अंग्रेजों के पिट्ठू थे, दोबारा से सत्ता सँभाल लेते हैं। सादुल्ला वही थे जिनको हटा कर बोरदोलोई सत्ता में आये थे। अगले सात सालों तक सादुल्ला असम में निर्बाध शासन करते हुए मुस्लिम आधार को मजबूत अत्यंत मजबूती प्रदान करते हैं। सादुल्ला 1941 में एक भूमि बंदोबस्त नीति लाते हैं, जिसके आधार पर पूर्वी बंगाल से आने वाले मुस्लिमों को असम में आने की कानूनी अनुमति दे दी जाती है।
साथ ही ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए प्रत्येक परिवार के लिए 30 बीघे ज़मीन भी उपहार में दी जाती है। एक समय में सादुल्ला ने लियाकत अली खान के सामने या स्वयं कबूला था कि अपनी नीतियों के माध्यम से उन्होंने असम घाटी के निचले चार जिलों में मुस्लिम आबादी को चौगुना कर डाला था था। नेहरू की इन नीतियों को देखते हुए ऐसा ही लगता है कि शायद उनके लिए असम और पूर्वोत्तर भारत का हिस्सा नहीं रहा होगा। संक्षेप में, नेहरू के गलत निर्णय के कारण असम में जनसांख्यिकीय स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी।
भारतीय स्वतंत्रता के लिए 1946 की प्रारंभिक ब्रिटिश योजना ने ग्रुप-सी में असम और बंगाल को एक साथ रखा था। इस तरह के समावेशन का अर्थ यह था कि असम निवासियों के अल्पमत में होने के कारण असम का अंततः पूर्वी-पाकिस्तान में समाहित कर दिया जाना निश्चित था। इस अशुभ संभावना को भाँपते हुए, बोरदोलोई ने नेहरू की सहमति के विपरीत ग्रुप-सी में क्लब किए जाने का विरोध आरम्भ कर दिया था। नेहरू के साथ न देने पर, बोरदोलोई ने जन आंदोलन शुरू किया।
We could retain W. Bengal, E. Punjab n Assam mainly becoz of pressure of by Vir Savarkar, Dr BS Munje , Dr SP Mukherjee n local leaders like Master Tara Singh and Gopinath Bordoloi. But Cong was bent upon selling Hindu interest. We gave Karachi which had 51% Hindu pop. https://t.co/PrfDLaAdcB
— Uday Mahurkar (@UdayMahurkar) June 6, 2020
उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में असम और पूर्वोत्तर क्षेत्र (एनईआर) के अन्य हिस्सों को शामिल करने के लिए ‘मुस्लिम लीग’ के प्रयासों का डटकर मुकाबला किया और अपनी माँग मनवा कर ही रहे। नेहरू के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर पर कॉन्ग्रेस पार्टी ने ‘मुस्लिम लीग’ को स्वीकार कर लिया होता, अगर कॉन्ग्रेस पार्टी की असम इकाई द्वारा समर्थित और महात्मा गाँधी और असम की जनता द्वारा समर्थित बोरदोलोई द्वारा विद्रोह नहीं किया गया होता।
आज जब हम पूर्वोत्तर की बात करते हैं तो हमें सबसे पहले गोपीनाथबोरदोलोई का एहसान मंद होना चाहिए, जिन्हें नेहरू ने नजरअंदाज कर दिया था और उन्हें बहुत बाद में गैर कॉन्ग्रेसी सरकार ने ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया था।”