आजादी का नारा देने वाला ‘डफली गैंग’ अक्सर फैज अहमद फैज का एक शेर गाता है- ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे…..’। इस शेर में आगे का मुखड़ा है- ‘जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से सब बुत उठवाए जाएँगे, हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम मसनद पे बिठाए जाएँगे।’
उर्दू में बुत का अर्थ है प्रतिमा, मूर्ति आदि। इस्लामी आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण के दौरान प्राचीन प्रतिमाओं को खूब तोड़ा। आक्रमण का उद्देश्य सिर्फ लूट-पाट नहीं, बल्कि बुतों को तोड़ने और इस्लाम का पताका फहराना भी किया था। मुहम्मद बिन कासिम शुरू हुआ ये सिलसिला अंग्रेजी शासन आने तक लगातार चलता रहा।
भारत में इस्लामिक आक्रमण के दौरान हजारों मंदिरों को लूटा गया, उन्हें तोड़ा गया। इस दौरान मूर्तियों को खंडित किया। मूर्तियों के नाक, हाथ, पैर, धड़ आदि तोड़ कर उन्हें खंडित कर अपमानित करने की कोशिश की गई। सैकड़ों जगहों पर इसके उदाहरण आज भी दिखते हैं। ये सिर्फ भारत में ही नहीं, जहाँ-जहाँ इस्लामी आक्रमणकारी गए, वहाँ के धरोहरों और विरासतों को नष्ट करने की उन्होंने कोशिश की।
ऐसा नहीं है कि ये काम सिर्फ इस्लामी आक्रमणकारियों ने की, ईसाईयत के शुरुआती दौर में भी यही किया गया। मिस्र जैसी हजारों साल पुरानी सभ्यता को नष्ट करने के लिए पहले ईसाई और फिर बाद में इस्लामी आक्रमणकारियों ने पूरी कोशिश की। भारत के इतिहास में मुस्लिम आक्रमणकारियों के प्रतिमाओं से नफरत की कहानी भी अंकित है।
क्यों खंडित की जाती थीं मूर्तियाँ
अमेरिका के ब्रूकलिन म्यूजियम के क्यूरेटर एडवर्ड ब्लेबर्ग कहते हैं कि यह सब जानबूझकर किया जाता था। इसके पीछे धार्मिक, राजनीतिक और व्यक्तिगत कारण होते थे। इनके अंग भंग इसलिए किए जाते थे, ताकि उनकी शक्तियों को कम किया जा सके। ब्लेबर्ग कहते हैं कि आक्रमणकारी मानते थे कि प्रतिमा के जिन अंगों को तोड़ दिया जाएगा, वह काम नहीं करेगा। वे इसे ‘प्रतिमा की ताकत को खत्म करने’ के रूप में मानते थे।
भारत सहित प्राचीन सभ्याताओं में मूर्तियों को शक्ति का केंद्र माना जाता है। हिंदू धर्म में भगवान की मूर्तियों में पूजा से पहले प्राण प्रतिष्ठा करने का रिवाज है। इन मूर्तियों को ईश्वर का ही भौतिक रूप माना जाता है। हिंदू मानते हैं कि इन विग्रहों में ईश्वर की समस्त ताकत समाहित होती है।
मिस्र और बेलीलोन की सभ्यताओं पर आक्रमण करने के बाद वहाँ की मूर्तियों को खंडित करने के मामले इतिहास में दर्ज हैं। ब्रूकलिन म्यूजिम में मिस्र की प्राचीन खंडित मूर्तियों की एक गैलरी ही हैं। इन खंडित मूर्तियों पर वहाँ एक शोध रिपोर्ट भी प्रकाशित किया गया था। हालाँकि, भारत में मूर्तियों को खंडित करने की पीछे की मानसिकता को लेकर आज तक कोई शोध नहीं हुआ है।
हिंदू धर्म में कहा गया है कि खंडित मूर्तियाँ शक्तिहीन हो जाती हैं। शास्त्रों में खंडित मूर्तियों की पूजा करने की मनाही की गई है। कहा जाता है कि अगर ऐसी मूर्तियों की पूजा की जाती है तो इसका फल नहीं मिलता है और न ही मन को शांति मिलती है। इतना ही नहीं, खंडित मूर्तियों की पूजा करने से विचार अशुद्धि और मन अशांत रहता है। शिवपुराण के अनुसार, केवल खंडित शिवलिंग ही ऐसा विग्रह है, जो पूजनीय है, क्योंकि यह निराकार होता है।
मुस्लिम आक्रमणकारियों ने भारत में देव प्रतिमाओं को किया अपमानित
वाराणसी के ज्ञानवापी विवादित परिसर में वीडियोग्राफी के बाद सामने आए शिवलिंग का मामला इसका उदाहरण है। परिसर में जिस शिवलिंग को हिंदू पवित्र मानते हैं, उसमें मुस्लिम हाथ-पैर धोते थे और कुल्ला करते थे। नमाज से पहले की इस प्रक्रिया को वजू करना कहते हैं। प्रतिमाओं को अपमानित करने का काम इस्लामिक आक्रमणकारियों का प्रारंभिक उद्देश्य रहा है।
लोदी वंश का सिकंदर लोदी नगरकोट के ज्वालादेवी मंदिर को तोड़कर इसकी मूर्तियों के टुकड़ों को कसाइयों को दे दिया था, ताकि वे इससे मांस तौल सकें। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि औरंगजेब ने हिंदू धर्म के देव प्रतिमाओं को ध्वस्त करने के बाद उसे मस्जिद की सीढ़ियों में जड़वा दिया, ताकि मुस्लिम उस पर चढ़कर मस्जिद में जाएँ।
इतिहासकार राजकिशोर राजे के अनुसार, आगरा की जामा मस्जिद, जिसे शाही जामा मस्जिद भी कहा जाता है, की सीढ़ियों के नीचे औरंगजेब ने मथुरा के केशवदेव मंदिर को ध्वस्त करने के बाद उसकी मूर्तियाँ लगवा दी हैं, ताकि मस्जिद में आने-जाने वालों के पैरों के नीचे यह मूर्तियाँ रहें। सन 1940 में एसआर शर्मा द्वारा लिखित ‘भारत में मुगल साम्राज्य’ पुस्तक में भी इस बातका जिक्र है।
महमूद गजनी ने जब भारत पर आक्रमण किया, उस दौरान उसने थानेसर के चक्रस्वामिन मंदिर पर पूरी तरह ध्वस्त कर दिया। इसमें मौजूद कास्य की आदमकद प्रतिमा को वह अपने साथ गजनी ले गया और वहाँ उसने अपने रंगमहल में रखवा दिया। रंगमहल उस स्थान को कहा जाता है, भोग-विलास, ऐश कहा जाता है। इसे हिंदी में अंत:पुर भी कहा जाता है। इसी गजनी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर में भी मूर्तियों का भंजन किया था।
मूर्तियों को लेकर इस्लाम में हिदायत
मूर्तियों को लेकर मुस्लिमों के ग्रंथ कुरान में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है, इसको लेकर सबसे मान्य हदीस ‘सहीह अल-बुखारी’ में तर्क दिया गया है। इसमें कहा गया है कि इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद एक बार यात्रा करके घर लौटे तो अपनी बीवी आयशा के कमरे में एक पर्दा देखा। इस पर्दे पर तस्वीरें बनी हुई थीं। इन तस्वीरों को देखकर उन्होंने गुस्से में कहा, “अशहदु अल-नासा अज़ाब अल-यौम अल-कियामा अल-मुस्सविरून (क़यामत के दिन तस्वीर बनाने वालों को सबसे सख्त सजा मिलेगी)।”
हदीस मुस्लिम (हदीस संख्या: 969) में अबुल हैयाज अल असदी से से कहा गया है, “अली बिन अबी तालिब ने मुझ़ से कहा- क्या मैं तुम को उस काम के लिए न भेजूँ जिस के लिए अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने मुझ़े भेज़ा था कि किसी भी मूर्ति को मत छोड़ना उसको मिटा देना, और किसी भी ऊँची क़ब्र को मत छोड़ना मगर उसको बराबर कर देना।’’
(31:13) लुकमान ने अपने बेटे से कहा, “हे मेरे बेटे, अल्लाह के अलावा कोई मूर्ति मत स्थापित करो। मूर्तिपूजा घोर अन्याय है।” हदीसों में ऐसी कई आयतों हैं, जो मूर्तिपूजा और मूर्ति की मुखालफत करती हैं।
इन्हीं हदीसों की कट्टर इस्लामिक मौलानाओं द्वारा व्याख्या की गई, जिसको लेकर इस्लाम के शुरुआत से लेकर आजतक मुस्लिम मानते आ रहे हैं। अपने आक्रमणों के दौरान मुस्लिम आक्रांताओं ने इसका बखूबी पालन किया और मंदिर एवं मूर्तियों का खूब भंजन किया है।