भारत के अन्तरिक्ष प्रोग्राम में अहम् भूमिका निभाने से लेकर भारत को परमाणु संपन्न बनाने तक का श्रेय हासिल करने वाले अबुल पाकीर जैनुलाब्दीन अब्दुल कलाम जिन्हें देश एपीजे अब्दुल कलाम के नाम जानता है। उन्होंने बड़ी कम उम्र से ही मेहनत कर संसाधनों के अभाव में जीवन बिताया, बड़े हुए तो वैज्ञानिक बनकर देश सेवा में जुट गए। इसी का नतीजा है कि भारत की बड़ी उपलब्धियों में कलाम ने निर्णायक भूमिका निभाई। भविष्य में अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति बने जो आज तक सबसे ज्यादा लोकप्रिय राष्ट्रपति के रूप में जाने जाते हैं मगर यह भी सच है कि इतना परिश्रम कर देश की सेवा में समर्पित रहने वाले कलाम भी एक बार मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर आए थे। हिन्दुस्तान की माटी के सपूत कलाम एक ऐसी शख्सियत के तौर पर जाने जाते हैं जिनके देश सेवा में योगदान को लेकर जितना कहा जाए उतना कम होगा मगर देश सेवा के लिए सदा-समर्पित एपीजे अब्दुल कलाम कई लिबरल बुद्धिजीवियों के लिए सच्चे मुस्लिम नहीं थे।
15 अक्टूबर 1931 को जन्मे कलाम ने जब देश के ग्यारहवें राष्ट्रपति के रूप में पद संभाला तो कई इस्लामिक चिंतकों, बुद्धिजीवियों और उनके चमचों ने ऐसे विचारों के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा देना शुरू कर दिया जिनसे एपीजे अब्दुल कलाम की छवि को क्षति पहुँचाई जा सके। नाम के आगे ‘डॉ’ लगाने वाले रफीक ज़कारिया ने देश की धरोहर रहे अब्दुल कलाम पर लिखे अपने एक लेख में कहा था कि ‘वे एक पर्याप्त मुस्लिम नहीं हैं ‘
बता दें कि स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय राष्ट्रीय कॉन्ग्रेस के साथ रह चुके रफीक ज़कारिया दकियानूसी इस्लामिक मान्यताओं के प्रति झुकाव और उसकी वकालत करने के लिए जाने जाते थे जिनका 2005 में निधन हो गया। एक इस्लामिक बुद्धिजीवी के तौर पर डॉ एपीजे अब्दुल कलाम को विशेष सम्मान दिए जाने पर भी ज़कारिया इसके खिलाफ थे। एक उत्कृष्ट वैज्ञानिक के रूप में कलाम द्वारा देश की सेवा को यदा-कदा सराहने के बावजूद ज़कारिया ने उन्हें कुरान में कही गई कट्टर इस्लामिक मान्यताओं से उनकी दूरी के लिए ‘सिर्फ नाम का मुस्लिम’ कहा था।
पैगम्बर मोहम्मद के जन्मदिन पर कलाम द्वारा भाषण देने से इनकार करने को लेकर ज़कारिया ने कलाम पर निशाना साधा था, मगर अपनी बात को सांप्रदायिक ठप्पा लगने से बचाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता के भाव का उपयोग करने की कोशिश करते हुए उन्होंने कहा था-
“कलाम मुस्लिमों से ज्यादा हिन्दुओं के साथ सहज होते हैं, उनके कई हिन्दू दोस्त हैं जिनके साथ उनका अधिकतर समय बीतता है उन्ही से जानने को मिलता है कि कलाम इस्लाम से ज्यादा हिंदुत्व की ओर झुकाव रखते हैं; मैं इसमें कुछ गलत नहीं मानता लेकिन खुदा के वास्ते उन्हें एक मुस्लिम राष्ट्रपति कहकर हम मुस्लिमों को सम्मान दिलाने और उनपर कृपा करने का श्रेय मत लेने दीजिए। कलाम कभी कुरान नहीं पढ़ते मगर हर उनकी सुबह गीता के पाठ से शुरू होती है, उन्हें कृष्ण के प्रति समर्पित देखा जा सकता है, वे अक्सर मंत्रोच्चार भी करते हैं। नमाज़ उन्हें भाए ऐसा है नहीं! न ही वो रमजान में उपवास रखते हैं। वह तो ता- उम्र ब्रह्मचारी रहने वाले पक्के शाकाहारी हैं, मुझे लगता है उनकी जड़ें ही हिंदुत्व की हैं क्योंकि उन्हें सबसे ज्यादा सभी हिन्दू ग्रंथों में बड़ी दिलचस्पी है लिहाज़ा सम्प्रदाय की दृष्टि से उनके उत्थान का श्रेय हमें नहीं बल्कि हिन्दुओं को दिया जाना चाहिए। कलाम खुद भी कभी खुदको मुस्लिम राष्ट्रपति कहे जाने के पक्ष में नहीं रहे, कलाम के मुताबिक उनको ख़ुशी होगी अगर उनका नाम जाकिर हुसैन या फखरुद्दीन अली अहमद के साथ न जोड़ा जाए।”
ज़कारिया के लाख बार यह जता देने के बावजूद कि ‘वे कलाम को कुरान मानने वाले किसी भी राष्ट्रपति से कम नहीं मानते’, कलाम से उनका द्वेष और घृणा जगज़ाहिर है। इसमें कोई दो राय नहीं। 2002 में 21 जून को मशहूर लेखिका वर्षा भोगले ने अपने एक लेख में लिखा था कि अब्दुल कलाम मोईनुद्दीन चिश्ती के अनन्य भक्त थे और अक्सर उनकी दरगाह जाया करते थे। अपने एक विश्लेषण में उन्होंने लिखा –
“मुस्लिम कहलाने के लिए कलाम का दरगाह जाने की अनिवार्यता से जोड़ना और उसे जताना एक सनक मात्र है, जबकि वे न सिर्फ दरगाह पर जाते हैं बल्कि वहाँ चादर भी चढ़ातें हैं मगर हमारे देश में ‘सेक्युलर’ हवा कुछ ऐसी है कि सार्वजानिक जीवन वाले एक व्यक्ति से दोनों धर्मों का सम्मान करने के बावजूद सवाल किया जाता है मगर इसी स्थिति में कोई मुस्लिम है तो उसे खुलकर अपने मज़हब का प्रदर्शन करना चाहिए चाहे दूसरे धर्म का सम्मान वह करे या न करे मगर यही स्थिति जब किसी हिन्दू के साथ आती है, तो हिन्दू रीति-रिवाजों और सभ्यताओं का सम्मान करने वालों को ‘सेक्युलर’ होने के लिए इफ्तारी से लेकर कई तरह की वाहियात काम तक करना पड़ता है।”
गौरतलब है कि ज़कारिया का लिखा वह लेख पीटीआई की उस रिपोर्ट के जवाब में था जिसमें लिखा गया था कि कलाम चिश्ती के अनुयायी हैं और अक्सर उनकी दरगाह जाते हैं। डॉ ज़कारिया से लेकर वर्षा भोगले तक के लेखों में यह स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि कोई भी मुस्लिम हिन्दू मंदिरों और हिन्दुओं से भाईचारे का परित्याग करके ही कट्टर मुस्लिम कहलाता है जबकि कलाम जैसे व्यक्ति का यह कहकर मजाक तक उड़ाया जाता है कि ‘वे मुस्लिम थे ही नहीं’ हालाँकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि धर्म पूछे जाने को लेकर कलाम बेहद प्रतिकूल थे, एक बार एक लड़की ने डॉ कलाम से पूछा था कि वे वैज्ञानिक हैं? या एक टेक्नोलॉजिस्ट या एक फिर मुस्लिम? तब कलाम ने जवाब दिया था कि पहले हमें एक अच्छा इन्सान होना चाहिए उसके बाद ही यह सारे तत्व आपके अन्दर आते हैं।
2002 में सागरिका घोष ने किसी भद्द्दे मज़ाक की तरह डॉ कलाम को बम-डैडी तक कह दिया था, अपने नफरत भरे लेख में घोष ने कलाम को सबक सिखाने की बात तक लिखी थी और देशसेवा में काम करने वाले वैज्ञानिकों को मिलने वाले VIP ट्रीटमेंट पर आपत्ति जताते हुए ‘हड़काने की ज़रूरत’ जैसी भाषा का प्रयोग भी किया था। अपने इस पूर्वग्रह और द्वेष भरे लेखन में घोष ने भारतीयों को विज्ञान के प्रति उनके सम्मोहन पर भी अपनी आपत्ति ज़ाहिर की थी। सागरिका ने विज्ञान से करीबी को लेकर यह तक कहा था कि इसका सीधा जुड़ाव जातिवाद, हिन्दू कट्टरवाद और लिंगभेद से है।
डॉ कलाम जैसे प्रसिद्द वैज्ञानिक को लेकर जब सेक्युलरों में चर्चा छिड़ जाती है तो यह स्वाभाविक होता है कि इस बहाने हिन्दू सभ्यता पर निशाना साधने की कोशिश की जाएगी क्योंकि कलाम कट्टर इस्लामी प्रवृत्ति के नहीं थे इसीलिए मुस्लिम कट्टरपंथी उन्हें हिन्दुओं के करीब मानते हुए अपनाने से झिझकते रहे हैं और इसीलिए इन कठमुल्लाओं द्वारा हिन्दुओं को निशाना बनाना स्वाभाविक हो जाता है।
इस्लामिक कट्टरता नफरत और डर फ़ैलाने के लिए मशहूर द वायर की आरफा खानम शेरवानी ने अपने ही कहे एक कथन को महत्वहीन कर डाला जब उन्होंने हाल ही में सोशल मीडिया पर लिखा था कि क्यों एपीजे अब्दुल कलाम की इतनी प्रशंसा की जाती है मगर जब हामिद अंसारी की बात आती है तो उन्हें ‘दानव’ जैसा पेश किया जाता है। बता दें कि कुछ ही समय पहले शेरवानी ने खुद ही यह लिखा था कि कलाम हिन्दू दर्शन से जीवन जीने को महत्ता देते थे इसीलिए उनका सम्मान किया जाता है जबकि हामिद अंसारी ऐसा नहीं करते इसीलिए उन्हें ऐसा कोई सम्मान नहीं मिलता, मगर सोशल मीडिया पर सवालिया अंदाज़ में लिखने के बाद तो जैसे शेरवानी ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली क्योंकि इसके बाद उनका खुद का दिया बयान ही महत्वहीन हो गया।
जब कलाम की एक प्रतिमा का अनावरण हुआ जिसमे उनके हाथ में वीणा, गीता, कुरान और बाइबिल थी, तब कई इस्लामिक संगठन इसका विरोध करने पर उतारू हो गए थे, उनका कहना था कि कलाम कोई मुस्लिम नहीं थे क्योंकि वे मूर्ती पूजा में विश्वास रखते थे और गुरुओं का सम्मान करते थे। प्रत्यक्षरूप से यह सर्वविदित है कि पूरा जीवन विरोध झेलने के बावजूद दिवंगत कलाम को अब भी इस्लामिक कट्टरपंथियों की दकियानूसी सोच का खौफनाक चेहरा देखना पड़ता है।
परंपरागत इस्लामिक ढाँचे से इतर चलने वाला कोई मुस्लिम हमेशा मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर रहता है जिन्होंने बिना किसी तथ्य और तर्क के कलाम तक को अपने आरोपों की कीचड़ से नहीं बख़्शा। ऐसे धूर्त और रूढ़िवादी मौलाना और अयातुल्लाहों को आरिफ मोहम्मद खान मुंहतोड़ जवाब देने में माहिर हैं, जिन्होंने तीन तलाक को गैर-कानूनी और आपराधिक बताया था साथ ही डरा हुआ मुस्लिम जैसी बात को सिरे से खारिज तक कर दिया।
मौलानाओं के अनुसार अगर कोई इस्लामिक कट्टरपंथियों के मनमुताबिक नहीं बोलता, हिन्दुओं के खिलाफ नफरत भरी ज़हर नहीं उगलता तो उनके अनुसार उसे मुस्लिम कहलाने का अधिकार ही नहीं है। ‘एक साधारण मुस्लिम’ होने की अवधारणा की माँग ही यही है कि वह लोग जो इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों का पालन नहीं करते, या उसको लेकर कट्टर न हों, वह मुस्लिम हीं हैं और डॉ कलाम ऐसे ही एक व्यक्ति थे।