आपने थोमस बैबिंगटन मैकाले (Thomas Babington Macaulay) का नाम सुना है? उसे ब्रिटेन में ‘लॉर्ड मैकाले’ भी कहते हैं। अक्टूबर 1800 में जन्मा यही वो व्यक्ति है, जिसने भारतीय शिक्षा पद्धति को तबाह करने के लिए यहाँ शिक्षा के पश्चिमी तौर-तरीके अपनाने के लिए लोगों को मजबूर किया। वो एक ब्रिटिश इतिहासकार और राजनेता था, जिसने अपनी थ्योरी में कहा कि ब्रिटेन सभ्यता के उच्चतम स्तर को दर्शाता है। भारत को लेकर उसके अंदर खासी हीन भावना भरी हुई थी। उसने कई सनातन धार्मिक ग्रंथों के उलटे-पुलटे अंग्रेजी अनुवाद भी किए।
2 फरवरी, 1835 को वो ‘Macaulay’s Minute’ लेकर आया था, जिसमें उसने भारत के प्रति घृणा भरे तर्क देकर ये साबित करने की कोशिश की थी कि अंग्रेजी शिक्षा ही शिक्षा है और दुनिया भर में किसी भी व्यक्ति को यही शिक्षा कुलीन बना सकती है, प्रतिष्ठा दिला सकती है। भारत में कर्म आधारित शिक्षा, गुरुकुलों और गुरु-शिष्य परंपरा को मिटाने के लिए उसने दिन-रात एक के दिए। आइए, सबसे पहले हम आपको बताते हैं कि आखिर उस ‘Macaulay’s Minute’ में था क्या।
तत्कालीन ब्रिटिश सरकार में ‘काउंसिल ऑफ इंडिया’ के सदस्य होने के नाते उसने अपने द्वारा पेश किए गए इस प्रस्ताव में कहा था कि एक अच्छे यूरोपियन पुस्तकालय की एक अलमारी पूरे भारत और अरब के साहित्य से ज्यादा समृद्ध है। उसने इस बात पर आपत्ति जताई थी कि आखिर किसी भारतीय को ‘शिक्षित’ कैसे कहा जा सकता है, जब तक वो मिल्टन की कविताओं, लोकी के मेटाफिजिक्स और न्यूटन के फिजिक्स से वाकिफ न होकर अपनी ‘पवित्र पुस्तकों’ में केवल कुश घास का उपयोग और देवताओं को भोजन चढ़ाना ही सीखा हो।
यहाँ हम आपको मैकाले के उस मिनट के कुछ बिंदुओं के बारे में बता रहे हैं, जिसमें उसने भारत के प्रति अपनी घृणा का प्रदर्शन किया है। उसने अपने दूसरे ही पॉइंट में कहा था कि विज्ञान सहित अन्य भाषाओं की शिक्षा भी अंग्रेजी में ही दी जानी चाहिए, जो कि एक समृद्ध भाषा है। तीसरे पॉइंट में उसने कहा था कि भारत में ‘साहित्य को समृद्ध करने’ और ब्रिटिश शासित क्षेत्रों के लोगों का ‘विज्ञान से परिचय कराना और इससे सम्बंधित ज्ञान देना’ ही इस बिल का उद्देश्य है।
उसने कहा था कि अरबी और संस्कृत में शिक्षा देने का अर्थ होगा और नीचे जाना। उसने कहा था कि इन दोनों भाषाओं में शिक्षा देने का अर्थ होगा कि फिर इसका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा। उसने अपने इस मिनट में कई बार अरबी और संस्कृत भाषाओं के लिए घृणास्पद शब्दों का प्रयोग किया है। उसने कहा था कि भारत की मातृभाषाओं में लेशमात्र भी विज्ञान और साहित्य सम्बंधित ज्ञान नहीं है, साथ ही ये इतनी घटिया असभ्य हैं कि अगर उन्हें समृद्ध बनाने की कोशिश की जाए तब भी अनुवाद लगभग असंभव हो जाएगा।
उसने कहा था कि बहस इस ओर केंद्रित रहनी चाहिए कि आखिर किस भाषा में भारतीयों को शिक्षा देना ठीक रहेगा – अरबी और संस्कृत, या फिर अंग्रेजी। उसने ये भी कबूल किया था कि उसे संस्कृत और अरबी का कोई ज्ञान नहीं है, लेकिन सभी ये मानते हैं कि अंग्रेजी भाषा का साहित्य सबसे ज्यादा समृद्ध है। उसने कहा था कि पूर्व के लोग साहित्य के मामले में पद्य में अभ्यस्त रहे हैं, लेकिन इनकी अंग्रेजी पोएट्री से कोई तुलना नहीं है। उसका कहना था कि जहाँ संस्कृत साहित्य सिर्फ कल्पनाओं पर आधारित है, वहीं अंग्रेजी भाषा में वास्तविकता और सिंद्धान्तों को प्रमुखता दी जाती है।
इसी आधार पर उसने यूरोपीय भाषाओं को सर्वोत्तम माना था। उसने कहा था कि इस मामले में कोई दूसरा पक्ष बनता ही नहीं है, क्योंकि हमें ऐसे लोगों को ‘शिक्षित’ करना है जिन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा नहीं दी जा सकती और उन्हें विदेशी भाषाओं का ज्ञान देना ही पड़ेगा। उसने कहा था कि अंग्रेजी भाषा की श्रेष्ठता के बारे में कुछ बताने की ही ज़रूरत नहीं है। उसने मानना था कि शासन व्यवस्था, न्याय, नैतिकता और मानव सिद्धांतों को लेकर भारत में कभी कुछ रहा ही नहीं।
उसने कहा था कि भारत में सत्ता की भाषा अंग्रेजी है और सरकारी पदों पर बैठे उच्च स्तर के नेता/अधिकारी इस भाषा का प्रयोग करते हैं। उसने कहा था कि अब ये भाषा व्यापार की भी बन जाएगी, क्योंकि ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका में अपना साम्राज्य विस्तार कर रहीं दो बड़ी यूरोपियन ताकतों की भी भाषा यही है और भारत के साथ उनका कारोबार महत्वपूर्ण होता जा रहा है। उसने खुद ही मान लिया था कि किसी को कुछ सिखाने और सभ्य बनाने के लिए अंग्रेजी का ही सहारा लेना पड़ेगा।
उसने भारतीय धर्मग्रंथों का भी मजाक बनाते हुए कहा था कि पूरी दुनिया में ये स्वीकार्यता है कि संस्कृत में ऐसी कोई पुस्तक है ही नहीं, जिसकी तुलना किसी भी अंग्रेजी पुस्तक से की जा सके। इसके लिए उसने 15वीं शताब्दी के अंत और 16वीं शताब्दी की शुरुआत के समय की बात करते हुए बताया था कि तब अधिकतर पढ़ने वाली चीजें ग्रीक और रोमन में ही थीं, ऐसे में अगर अंग्रेज विद्वानों ने थ्यूसीदाइदीज, प्लेटो, सिसरो और टैसिटस को नज़रअंदाज़ करते तो क्या हम उस स्थिति में पहुँचते जहाँ हम आज हैं?
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— Savitri Mumukshu – सावित्री मुमुक्षु (@MumukshuSavitri) July 10, 2021
It is hardly reconcilable with morality, or even with that very neutrality which ought, as we all agree, to be sacredly preserved. It is confirmed that a language (Sanskrit) is barren of useful knowledge. We are to teach it because it is fruitful of monstrous superstitions? pic.twitter.com/SBrsqv66p2
बता दें कि थ्यूसीदाइदीज एक एथेनियन इतिहासकार था, वहीं प्लेटो भी ग्रीस का एथेनियन दार्शनिक था। सिसरो की बात करें तो वो रोमन दार्शनिक व प्रशासक था, वहीं टैसिटस रोमन इतिहासकार था। उसने दावा किया था कि जब अंग्रेजों के इतिहास का साहित्य समृद्ध नहीं था, तब से संस्कृत भाषा के साहित्य की तुलना की जाए तो भी यूरोपियन ही सर्वश्रेष्ठ होगा। उसने रूस का उदाहरण भी देते हुए कहा था कि वो पहले असभ्य लोगों का देश था, लेकिन अब सभ्य है।
मैकाले का मानना था कि पश्चिमी यूरोप की भाषाओं ने ही रूस को समृद्ध बनाया है और हिन्दुओं के मामले में भी यही होगा। उसने अपने देश को उच्च-स्तर के बुद्धिजीवियों का देश बताते हुए कहा था कि जब कोई उच्च-स्तर की सभ्यता किसी ‘अज्ञानी देश’ का शासन अपने हाथ में लेती है तो शिक्षकों को पढ़ाने के लिए उसी देश की भाषा का उपयोग करना होगा। उसने कहा था कि हमें इन लोगों पर अरबी और संस्कृत ‘थोपने’ की बजाए उन्हें ‘श्रेष्ठ’ बनाने के लिए अंग्रेजी का गया कराना होगा।
शायद मैकाले ने हो सकता है तब कालिदास का नाम न सुना हो, जिनकी संस्कृत रचनाओं का आज दुनिया की कई भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं। उसने आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त जैसे विद्वान गणितज्ञों का नाम न सुना हो, जिन्होंने हजारों वर्ष पूर्व गणित के कथन सिद्धांतों को खोज निकाला था। उसने मनुस्मृति के बारे में न सुना हो, जिसमें हजारों वर्ष पूर्व शासन व्यवस्था की सारी बारीकियाँ समझाई गई थीं। इसके अलावा अर्थशास्त्र के बारे में उसने न सुना होगा, जिसमें हजारों वर्ष पूर्व शासन-सत्ता और टैक्स से लेकर सत्ताधीशों और प्रजा के कर्तव्यों और न्याय की बातें की गई हैं।