इतिहास के पन्ने पलटने पर ऐसे नाम कम ही नज़र आते हैं, जिन्होंने अनेक किरदार निभाए और लगभग हर सामाजिक कसौटी पर खरे उतरे। एक शिक्षाविद, राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक और स्वतंत्रता सेनानी भी थे पंडित मदन मोहन मालवीय।
‘सत्यमेव जयते’ को आम जन मानस का ध्येय बनाने से लेकर ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ की स्थापना तक पंडित मदन मोहन ने कई प्रतिमान स्थापित किए। उन्होंने एक ऐसे राष्ट्रवादी व्यक्ति की भूमिका निभाई, जिन्होंने सनातन धर्म और हिन्दी भाषा की उन्नति के लिए अनवरत संघर्ष किया।
ऐसे अनेक उत्कृष्ट कार्यों के परिणामस्वरूप 24 दिसंबर 2014 को उन्हें मरणोपरांत ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया था। पंडित मदन मोहन मालवीय को उनके कार्यों की वजह से ही ‘महामना’ की उपाधि दी गई थी।
25 दिसंबर 1861 को प्रयागराज (तत्कालीन इलाहाबाद) में जन्मे पंडित मदन मोहन मूल रूप से मालवा के निवासी थे, इसलिए उन्हें ‘मालवीय’ कहा जाता था। उनकी प्राथमिक शिक्षा प्रयागराज के श्री धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में हुई थी, इस पाठशाला में सनातन धर्म की शिक्षा प्रदान की जाती थी।
पंडित मदन मोहन अपने परिचय को लेकर स्पष्ट थे। अस्पृश्यता निवारण और शुद्धि (हिन्दू धर्म त्यागने वालों को पुनः हिन्दू बनाना) के वो घोर समर्थक थे। वह 3 बार हिन्दू महासभा के अध्यक्ष चुने गए थे।
महामना का ऐसा मानना था कि शिक्षा का एक ऐसा केंद्र होना चाहिए, जहाँ धर्म और शिक्षा एक विषय के दो पहलुओं की तरह नज़र आने चाहिए। इसलिए उन्होंने 1915 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना की। इसके लिए पंडित मदन मोहन ने पूरे देश का दौरा किया और अनेक राजाओं से आर्थिक सहयोग एकत्रित किया।
सनातन पद्धति का प्रचारक होने के साथ-साथ पंडित मदन मोहन प्राचीन भारतीय संस्कृति के घोर समर्थक भी थे। इस तर्क का विवरण उनसे संबंधित एक घटना में विशेष रूप से मिलता है। अंग्रेज़ों के शासनकाल में अंग्रेज़ी भारतीय समाज से परिचित हुई थी। अंग्रेज़ी और उसके साथ-साथ उर्दू का दायरा बढ़ना शुरू हुआ था। उस बढ़ते दायरे से हिन्दी भाषा को क्षति न हो, इसलिए उन्होंने जनमत संग्रह कराया।
पंडित मदन मोहन आर्य समाज से भी अनेक सन्दर्भों पर असहमति रखते थे। वह आर्य समाज द्वारा की गई भाषा की सेवा संबंधी कार्यों का सम्मान करते थे लेकिन समस्त कर्मकाण्ड, परम्पराओं और रीति-रिवाज़ों को सनातन पद्धति का मौलिक हिस्सा मानते थे।
यह पंडित मदन मोहन मालवीय के अटूट प्रयासों का परिणाम था कि हिन्दी भाषा को उत्तर प्रदेश के न्यायालयों और दफ्तरों की व्यावहारिक भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। भाषा को लेकर उनका मत शुरू से स्पष्ट था। इस संदर्भ में उनका एक भाषण बेहद प्रचलित है। वह कहते हैं:
“भारतीय विद्यार्थियों के मार्ग में आने वाली समसामयिक कठिनाइयों का कोई अंत नहीं है। सबसे बड़ी कठिनता यह है कि शिक्षा का माध्यम हमारी मातृभाषा न होकर एक अत्यंत दुरूह विदेशी भाषा है। सभ्य संसार के किसी भी अन्य भाग में जन-समुदाय की शिक्षा का माध्यम विदेशी भाषा नहीं है।”
पंडित मदन मोहन ही थे, जिन्होंने ‘हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान’ के ध्येय का पुरजोर प्रचार किया। स्वतंत्रता संग्राम में भी उनकी भूमिका उल्लेखनीय थी। उन्होंने देश के अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिल कर साइमन कमीशन का व्यापक स्तर पर विरोध किया था।
उन्होंने तुष्टिकरण को लेकर भी अपना दृष्टिकोण स्पष्ट रखा, वह सदा सर्वदा इसके विरोध में रहे। पंडित मदन मोहन ने देश के विभाजन का प्रतिकार किया, उन्होंने महात्मा गाँधी के समक्ष इस मुद्दे पर खरी दलीलें रखी थीं। उनका कहना था कि विभाजन की कीमत पर स्वतंत्रता स्वीकार नहीं की जानी चाहिए।
सनातन धर्मी छात्रों को शाकाहारी भोजन और समुचित जीवन शैली की व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए उन्होंने प्रयागराज में ‘हिन्दू छात्रावास’ (हिन्दू हॉस्टल) की स्थापना की थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का हिन्दू छात्रावास आज भी परिसर का सबसे बड़ा छात्रावास माना जाता है।