प्रयागराज महाकुंभ-2025 की तैयारियाँ जोरों पर हैं। वहीं विभिन्न अखाड़ों के साधु-संत विश्व के सबसे बड़े धार्मिक समागम में हिस्सा लेने के लिए पहुँच रहे हैं। इन्हीं अखाड़ों में से एक अखाड़ा है भैरव अखाड़ा। 13 अखाड़ों में सबसे बड़े भैरव अखाड़े को पंचदशनाम जूना अखाड़ा के नाम से भी जाना जाता है। नागा संन्यासियों के इस अखाड़े का इतिहास आध्यात्मिकता के साथ-साथ पराक्रम से भी भरा पड़ा है।
यही कारण है कि नागा संन्यासी अपने साथ अस्त्र-शस्त्र भी रखते हैं। इनके हाथों में तलवार, त्रिशुल, भाला, फरसा जैसे कई तरह के हथियार होते हैं। कहा जाता है कि नागा संन्यासियों ने मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक के साथ युद्ध लड़े हैं। जूना अखाड़े में एक शस्त्रागार भी है, जिसमें 400 वर्ष पुराने अस्त्र-शस्त्र रखे हुए हैं। कुंभ के आयोजन के दौरान नागा साधु इन हथियारों को लेकर निकलते हैं।
जूना अखाड़े की स्थापना का उद्देश्य
जूना अखाड़े शैव संप्रदाय से 7 अखाड़ों से ताल्लुक रखता है। इसकी स्थापना 1145 ईस्वी में उत्तराखंड के कर्णप्रयाग में हुआ था। यहीं पर इस अखाड़े का पहला मठ भी बना था। हालाँकि, हिंदू धर्म के कुछ जानकारों का मानना है कि इस अखाड़े की स्थापना का उल्लेख सन 1259 में मिलता है। वहीं, सरकारी दस्तावेजों में इस अखाड़े का पंजीकरण सन 1860 में कराया गया था।
जूना अखाड़े के इष्ट या अराध्य भगवान शिव या उनके रुद्रावतार भगवान दत्तात्रेय हैं। इस अखाड़े का केंद्र एवं मुख्यालय वाराणसी के हनुमान घाट पर स्थापित किया गया है। इस अखाड़े का आश्रम हरिद्वार के महामाया मंदिर के पास बनाया गया। इसके अलावे, इस अखाड़े के केंद्र उज्जैन से लेकर तमाम प्रमुख केंद्रों में स्थित है। कहा जाता है कि इस अखाड़े में 5 लाख से ज्यादा नागा साधु हैं।
कहा जाता है कि जब बौद्ध एवं जैन संप्रदाय के वर्चस्व को तोड़ने के लिए इन अखाड़ों की स्थापना की गई थी। नागा साधुओं को शास्त्र के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा देकर युद्ध कौशल में पारंगत बनाया गया, ताकि वे हिंदू धर्म को स्थापित करने में सहयोग कर सकें। तब से ये अखाड़ा चले आ रही हैं। शंकराचार्य के निर्देशन में स्थापित ये अखाड़े बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों से भी लड़े।
अब्दाली, निजाम और मुगलों से भी लिया लोहा
कह जाता है कि इस अखाड़े के नागा साधुओं ने मंदिरों-मठों की रक्षा के लिए मुगलों से लोहा लिया था। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने अफगान आक्रांता अहमद शाह अब्दाली मथुरा-वृंदावन को लूटने के बाद गोकुल को लूटने के इरादे से आगे बढ़ा, लेकिन नागाओं ने इन्हें रोक दिया। इसके कारण अब्दाली का गोकुल को लूटने का सपना रह गया था।
यह भी कहा जाता है कि नागा साधुओं ने गुजरात के जूनागढ़ के निजाम के साथ एक भीषण युद्ध किया था। इस युद्ध में नागा संन्यासियों ने निजाम और उसकी सेना को धूल चटा दी थी। मान्यता है कि नागा साधुओं के सैन्य कौशल से निजाम भी प्रभावित हो गया था। आखिरकार इन संन्यासियों के आगे घुटने टेकते हुए जूनागढ़ के निजाम को इन्हें संधि के लिए आमंत्रित करना पड़ा।
जूना अखाड़े के संरक्षक महंत हरि गिरि बताते हैं कि अखाड़े के संन्यासी निजाम के पास संधि के लिए गए। इसमें संन्यासियों को जूनागढ़ सौंपने की बात कहते हुए भोजन पर आमंत्रित किया। इस दौरान निजाम ने धोखे से संन्यासियों को भोजन में जहर मिलाकर दे दिया। इससे सैकड़ों संन्यासियों की मौत हो गई। जो बच गए उन्होंने जूना अखाड़े की स्थापना की।
नागा संन्यासियों के शौर्य को लेकर एक और कथा कही जाती है। कहा जाता है कि मुगल आक्रांता जहाँगीर एक बार प्रयागराज कुंभ मेला में आने वाला था। तब वैष्णव और शैव संप्रदाय के संन्यासियों ने मिलकर एक पिरामिड बनाया और उससे एक छद्म युद्ध किया। इसमें पिरामिड पर चढ़कर एक साधु ने जहाँगीर को कटारी भोंक दी थी। इस तरह वे मुगलों के खिलाफ अपनी गुस्सा को रोक नहीं पाए थे।
पंचदशनाम जूना अखाड़े के अष्ट कौशल महंत योगानंद गिरी का कहना है कि नागा संन्यासियों जो अस्त्र-शस्त्र लेकर चलते हैं, इन्हीं उन्होंने मुगलों से लड़ाई लड़ी थी। इसके बाद अंग्रेजों के शासन के दौरान संन्यासी विद्रोह किया। योगानंद गिरि कहते हैं, “इन अस्त्रों को हम कैंची बोलते हैं, जो हमारे लिए पूजनीय होता है।”
कैसे बनते हैं नागा साधु?
अखाड़े का संन्यासी बनने के लिए एक संकल्प पूरा करना होता है। यह संकल्प 12 साल का होता है। यह संकल्प लेने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है। ब्रह्मचर्य के दौरान उस शख्स को अखाड़े के नियम और परंपराएँ सिखाई जाती हैं। इस दौरान गुरु की सेवा करनी होती है। जब ब्रह्मचारी का 12 साल का संकल्प पूरा हो जाता है तो आने वाले कुंभ में नागा साधु के रूप में दीक्षा दी जाती है।
शुरुआत में संन्यास की दीक्षा गुरु के द्वारा दी जाती है। मंत्रोच्चार आदि से शरीर पर समस्त चीजों को धारण करवाया जाता है। इसके बाद विजय संस्कार संपन्न किया जाता है। विजय संस्कार में संन्यास लेने वाले व्यक्ति का पिंडदान और अन्य आहुतियाँ करवाकर उसे सांसारिक मोह-माया से काट दिया जाता है। आहूति दीक्षा मिलने के बाद नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
इस संस्कार के दौरान धर्म ध्वज के नीचे सभी साधुओं को एकत्रित किया जाता है और फिर नागा साधु की दीक्षा दी जाती है। इस दौरान एक अलग गुरु बनाया जाता है, जो दिगंबर होता है। इसके बाद अच्छे नागाओं की अखाड़ों में ड्यूटी लगाई जाती है। नागा संन्यासी आमतौर पर हाथ में त्रिशूल, तलवार, शंख लिए होते हैं और गले एवं शरीर में रुद्राक्ष आदि धारण करते हैं।