युवक पढ़ा-लिखा था, किसान नहीं था। जिस उम्र में खेती सीखी जाती है, उस उम्र में काम करने पर संभवतः लोगों को आपत्ति होती। इसलिए जिस उम्र में सीखना चाहिए था, उस उम्र में उसने खेती सीखी नहीं थी। बिना सीखे, पहली बार पेड़ लगाने की कोशिश के अपने फायदे-नुकसान भी हैं। जो भी हो, नौजवान ने थोड़ी पूछताछ से यह तो पता कर ही लिया कि पेड़ लगाने के लिए बरसात से ठीक पहले का मौसम अच्छा रहेगा। बारिश होगी तो रोज-रोज कई छोटे पौधों में पानी नहीं देना होगा। चुनाँचे, नौजवान ने जुलाई के महीने में पौधे लगा दिए।
अफ़सोस! उस वर्ष बारिश हर साल जैसी नहीं हुई। वैसे तो ज्यादा हो जाने पर बाढ़ भी एक समस्या होती है, लेकिन उस वर्ष बारिश न होने के कारण पौधों के सूख जाने का खतरा बन आया। अब समस्या थी कि युवक खुद ही पेड़ लगाता और उनका रखरखाव करता था, यानी मजदूर रखकर पौधों में पानी डलवाने लायक आर्थिक स्रोत नहीं थे। हर रोज एक ही व्यक्ति हर पौधे में जुलाई के महीने में पानी डाल सके, इसके लिए पचास बाल्टी पानी भर कर कहीं रख लेना भी मुमकिन नहीं था।
इन समस्याओं के बीच भी नौजवान का भाग्य कुछ ठीक-ठाक था और उसके दादाजी जीवित थे। तो नौजवान अपने दादाजी के पास पहुंचा और पानी की कमी से पौधों के सूख जाने के अपने डर के बारे में बताया। मजदूर रखना सच में महंगा था, मगर दादाजी ने बताया कि घड़े खरीदना उतना महंगा नहीं। हर पौधे के बगल में एक गड्ढा कर के घड़े को मिट्टी में दबा देना था। घड़े की पेंदी में एक छोटा-सा छेद होता। अब जब इस घड़े में पानी डाला जाता तो वो थोड़ा-थोड़ा करके जमीन में रिसता रहता।
इस साधारण से तरीके से पानी डालने की मेहनत करीब एक-तिहाई हो जाती थी। घड़े में पानी करीब तीन दिन रहता था। सूखा पड़ा, लेकिन पौधे बच गए। ये नुस्खा बिलकुल साधारण, परम्परागत नुस्खा है। तथाकथित “विज्ञानी सोच” और शोध के नाम पर ऐसे देसी ज्ञान को भुला दिया गया। पिछले सत्तर वर्षों में ऐसी ज्यादातर जानकारी खो भी गयी होगी, क्योंकि जो लोग जानते थे उनसे किसी ने उनके जीवित रहते पूछा ही नहीं होगा। लिखने की बजाय बोलकर सीखने-सिखाने वाले देश से पारंपरिक ज्ञान जाता रहा।
वृक्षारोपण के साथ साथ ड्रिप-फार्मिंग का यह तरीका सिखाया जाना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि पेड़ लगाने के साथ साथ इसमें प्लास्टिक कचरे का प्रबंधन भी शामिल हो सकता है। इस तकनीक के बारे में प्रोफेसर एस राजेश्वरण बताते हैं कि इसका दूसरा फायदा यह है कि इसमें अलग से कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। कचरे की मदद से और कम मेहनत में इस तरीके से पौधों को लगातार पानी मिलना भी सुनिश्चित हो जाता है। हर पौधे के साथ दो लीटर का एक बोतल भी लगाई जा सकती है, जिसका एक सिरा पानी डालने के लिए खुला हो और दूसरे सिरे पर छेद करके पर रुई लगा दी गई हो ताकि थोड़ा-थोड़ा रिसकर पानी लगातार पौधे को मिलता रहे।
विकास प्रबंधन संस्थान (डीएमआई, पटना) के प्रोफेसर एस राजेश्वरण ने हाल ही में छात्रों को वृक्षारोपण कराते समय इस तकनीक की जानकारी दी। ऊपर की तरफ से भर देने पर इस तकनीक से दो से तीन दिन तक पौधों को पानी मिलता रहता है। एक बार इस्तेमाल करने के बाद फेंक दी जाने वाली बोतलों का इस तरह से दोबारा इस्तेमाल भी होता है। अब जबकि जल संकट एक खुली समस्या है, किसी आने वाले समय का भयावह फ़िल्मी दृश्य नहीं, तब ये तरीके और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। हमें अपने परंपरागत तरीकों को वापस नई तकनीकों से जोड़ने की भी जरूरत है।
आज प्रधानमंत्री ने लाल किले से जल की चर्चा करके सरकार की आगे की योजनाओं के बारे में भी इशारा कर दिया है। हम इशारों से कितना सीखते हैं और जनता अपनी चुनी हुई सरकार के साथ मिलकर योजनाओं को कितनी मजबूती से जमीन पर उतारती है, यह अब हम पर निर्भर होगा।