संत शिरोमणि तुकाराम का जन्म पुणे के निकट देहू में हुआ था। यह स्थान आलन्दी से केवल सात किलोमीटर दूर है। संत तुकाराम कुनबी जाति के थे तथा घर में व्यापार का कार्य होता था। कुनबी जाति में जन्म लेने के क्या लाभ हैं, ऐसा गिनाते हुए स्वयं तुकाराम कहते हैं, हे ईश्वर:
शूद्रवंशी जन्मलों। म्हणोनि दंभे मोकलिलों॥
अरे तूंचि माझा आतां। मायबाप पंढरीनाथा॥
घोकाया अक्षर। मज नाहीं अधिकार॥
सर्वभावों दीन। तुका म्हणे यातिहीन॥
अर्थात्,हे भगवान्! मैं शूद्रवंश में उत्पन्न हुआ हूँ- यह बहुत अच्छा हुआ, अन्यथा यदि उच्च जाति में जन्म पाता तो उच्चता के गर्व में अकड़ता फिरता। भला हुआ जो उस गर्व से बच गया। हे मेरे माई-बाप, पंढरीनाथ! शूद्र वंश में जन्म पाने का दूसरा लाभ यह हुआ कि मैं तुझे माँ-बाप मानता हूँ और संसार में मैं केवल तेरा ही हूँ। अक्षर पठन तथा वेदादि शास्त्र अध्ययन का मुझे अधिकार नहीं, यह भी अच्छा ही हुआ, अन्यथा अपने पांडित्य के घमण्ड में इतराता रहता। तुका कहता है- अब मैं हीन जाति का एक दीन-हीन जन बनकर सर्वभावेन तेरी शरण में आ सका हूँ, क्योंकि मैं जाति तथा ज्ञान के अहंकार से दूर था तथा दूर हूँ।
विठोबा के भक्त
संत तुकाराम का परिवार पंढरपुर के विठोबा का भक्त था। समय-समय पर परिवार सहित सभी लोग पण्ढरपुर की तीर्थयात्रा करते थे। माता-पिता की मृत्यु के बाद तुकाराम ने व्यापार चलाने की बहुत कोशिश की, किन्तु भक्ति में रुचि के कारण व्यापार में मन नहीं लगा। व्यापार के बही-खाते, कागज आदि सभी कुछ इन्द्रायणी नदी को समर्पित कर वे भगवद्भक्ति में लग गए। अभंग लिखना और उनको भक्तों के मध्य बैठकर स्वर सहित गाना, इसी में इनका मन लगा रहता था। अपने गुरु के बारे में तुकाराम कहते हैं कि वे स्वप्न में आए थे और मेरे सिर पर हाथ रखकर मुझको अपना शिष्य बनाया है। तुकाराम ने नामदेव, ज्ञानदेव के भजन गाने प्रारम्भ कर दिए। गीता और भागवत का अध्ययन करना और गाना यही उनके जीवन का क्रम बन गया।
अभंगों की पोथी इन्द्रायणी नदी को समर्पित
सैकड़ों वर्षों से धर्मशास्त्रों को संस्कृत में लिखने की ही परम्परा थी। इस कारण जब-जब लोकभाषा में इन धर्मशास्त्रों एवं ईश्वरस्तुति का लेखन प्रारंभ किया गया तब-तब रूढ़िवादी लोगों ने इसका विरोध किया। स्वामी रामानन्द, संत ज्ञानेश्वर, गोस्वामी तुलसीदास आदि संत लोग पहले ही लोकभाषा में शास्त्रों को लिखने के कारण भारी विरोध एवं प्रताड़ना का सामना कर चुके थे। मराठी में लिखे अभंगों का ब्राह्मणों द्वारा विरोध किए जाने पर संत तुकाराम ने अभंगों की पोथी को इन्द्रायणी नदी में प्रवाहित कर दिया। उसके बाद वे चौदह दिन तक उसी नदी के तट पर बैठे साधना करते रहे। कहते हैं कि चौदह दिन बाद वह पोथी पुनः वापस मिल गई।
संत तुकाराम कहते हैं कि एक दिन बाबाजी चैतन्य ने मेरे कान में कहा- ‘रामकृष्ण हरि’ और कहा कि इसका नित्य जाप किया करो। अगले ही मास भगवान् विट्ठल स्वप्न में आए। उन्होंने कहा- ‘तुकाराम! अब तुम्हें लोगों को समझाना होगा, उनका मार्गदर्शन करना होगा। देखो ये कैसे भटक रहे हैं, गड्ढे में गिर रहे हैं, आत्मनाश कर रहे हैं। क्या तुम इन्हें इसी घृणास्पद अवस्था में पड़े रहने दोगे? जिसे भी दृष्टि प्राप्त है उसका यह कर्तव्य हो जाता है कि वह किसी अंधे को गड्ढे में न गिरने दे।’ कुछ दिनों बाद भक्त नामदेव उनके स्वप्न में आए। नामदेव जी ने कहा- ‘सर्वत्र भक्ति-मार्ग का प्रसार करने की मेरी इच्छा थी, उसी हेतु मैं शतकोटि अभंग लिखना चाहता था, किन्तु मेरी इच्छा वैसी ही रह गई। मैं चाहता हूँ कि उस कार्य को तुम पूरा करो। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। अभंग लिखो, विपुल संख्या में लिखो, सामान्य जनों की समझ में आवे, उनके मन में ईश्वरभक्ति पैठे ऐसा लिखो।’ संत तुकाराम जी ने कहा- ‘महाराज! आपकी आज्ञा शिरोधार्य। अब तुकाराम बड़े ही उत्साह के साथ अभंग लेखन के कार्य में लग गए। इस कार्य में उनका सहयोगी था उनका बालकपन का मित्र। नाम था- संताजी जगनाडे।
आषाढ़ मास की एकादशी के दिन पण्ढरपुर तथा आलंदी में भक्तों का विराट् समागम होता है। मीलों दूर से लोग पैदल चलकर आते हैं। संघ बनाकर चलते हुए लोग समवेत स्वर में कीर्तन गाते चलते हैं। उनके कीर्तन-भजन का ‘मुख्य स्वर’ होता है- ‘ज्ञानबा-तुकाराम।’ अर्थात् संत ज्ञानेश्वर (ज्ञानबा) और संत तुकाराम को वे ईश्वर (विट्ठल) के समकक्ष मानते हैं। इसलिए संत बहिणाबाई लिखती हैं;
संतकृपा झाली। इमारत फळा आली।
ज्ञानदेवे रचिला पाया। उभारिलें देवालया॥
नामा तयाचा किंकर। तेणें रचिलें तें आवार॥
जनार्दन एकनाथ। खांब दिला भागवत॥
रानी तुका झालासे कळस। भजन करा सावकाश॥
अर्थात्, संतों की कृपा से वारकरी सम्प्रदाय का यह मन्दिर खड़ा हुआ है, जिसकी नींव ज्ञानेश्वर ने डाली है। नामदेव ने पत्थर बनाकर उसे मजबूती प्रदान की है। जनार्दन के शिष्य एकनाथ ने ‘भागवत’ रूपी स्तम्भ का आधार प्रदान किया है। तुकाराम ने इस मन्दिर का कलश बनकर इस सम्प्रदाय को पूर्णता प्रदान की है। अब आप सुख से भजन कर लो।
इस प्रकार भजन में तुकाराम की महत्ता कलश के रूप में स्थापित की गई है। इसलिए संत तुकाराम को वारकरी सम्प्रदाय में संतशिरोमणि कहा जाता है।
सन् 1636 का एक प्रसंग है छत्रपति शिवाजी महाराज के पीछे मुगलों की सेना पड़ी थी तथा शिवाजी बचने के लिए उपयुक्त स्थान ढूँढ़ रहे थे। निकट ही लोहगाँव में संत तुकाराम का कीर्तन चल रहा था। ताल-मृदंगढोल-मजीरे के साथ-साथ ‘राम-कृष्ण-हरि’ के संकीर्तन की गूंज ऊँचे स्वर से उठ रही थी, हजारों लोग बैठे थे। शिवाजी महाराज भी इन्हीं के साथ मिलकर बैठ जाते हैं। अब म्लेच्छों से शिवाजी को बचाना भी है, यह दायित्व संत तुकाराम के ऊपर आ गया। संत तुकाराम विष्णु को पुकारने लगे। वे कहते हैं- हे प्रभु! बचाओ-बचाओ, एक क्षण की भी देरी मत करो;
न देखवे डोळां ऐसा हा आकांत। परपीडे चित्त दुःखी होतें॥
काय तुम्ही येथे नसालसें जालें। आम्हीं न देखले पाहिजे हे॥
परचक्र कोठे हरिदासांच्या वासें। न देखिजेत देशें राहातिया॥
तुका म्हणे माझी लाजविली सेवा। हीनपणे देवा जिणें जालें॥
अर्थात्, हे विठ्ठल! यह कैसा हाहाकार मचा है, गाँव सारा भयभीत है, अस्त है। दूसरों की ऐसी पीड़ा देखकर मेरा मन बहुत दुःखी हो रहा है। यह क्या हो रहा है? लगता है कि जैसे तुम यहाँ नहीं हो। हे विठ्ठल! ऐसा दृश्य हमें फिर मत दिखलाओ। अरे, जिस देश-प्रदेश में हरि के भक्तों का निवास हो, वहाँ यह परचक्र (शत्रु का आक्रमण) आया ही कैसे? तेरे भक्तों के देश में ऐसा भीषण दृश्य दिखलाई देना उचित नहीं। तुका कहता है- हे विट्ठल! तुमने आज मेरी सेवा व्यर्थ कर दी। मेरी सेवा पर आज मुझे लजाने की नौबत आ गई है और मेरा जीवन हीनता पूर्ण बन गया है। तात्पर्य यह कि विपत्ति के समय भगवान् भक्तों की रक्षा करते हैं, यह मेरा कथन असत्य हुआ जाता है। यदि अब ग्राम की रक्षा नहीं हुई तो मेरी सेवा का लाभ क्या हुआ?
इस घटना की ऐतिहासिक जानकारी यह है कि बाद में मुगलों की सेना लोहगाँव छोड़कर चली गयी। तुकाराम मुगलों के अत्याचारों से दुखी हैं। पूजा-अर्चना के स्थान भी सुरक्षित नहीं हैं।
भीत नाहीं आतां आपुल्या मरणा। दुःखी होतां जना न देखवे॥
आमची तो जाती ऐसी परम्परा। कां तुम्ही दातारा नेणां ऐसें॥॥
भजनी विक्षेप तेंचि पैं मरण। न वजावा क्षण एक वांयां॥
तुका म्हणे नाहीं आघाताचा वारा। ते स्थळी दातारा ठाव मागें॥
अर्थात्, हे विट्ठल! मैं अपनी मृत्यु से भयभीत नहीं हूँ, दूसरों के ऊपर जो आक्रमण हो रहे हैं, यह अत्याचार मुझसे देखा नहीं जाता। हे दाता प्रभो! क्या तुम-हम भक्तों की परम्परा नहीं जानते हो कि हम मृत्यु से कभी भयभीत नहीं होते? कीर्तन-भजन में विक्षेप आना मरणतुल्य है। हे दयालु! इस आपत्ति को दूर करो। आने में एक क्षण की भी देरी मत करो। तुकाराम कहता है कि यह जो संकट की आँधी आई है उसको दूर करने के लिए हे विट्ठल! हम आपसे सहायता की शरणस्थली माँगते हैं, हमें तू ऐसे स्थान पर ले चल, जहाँ कीर्तन-भजन में रुकावट न आवे।
इस भजन के अर्थ को शिवाजी और उनके साथी लोग भली प्रकार समझ रहे थे। लोहगाँव पर आक्रमण के इस प्रसंग पर तुकाराम महाराज ने तीन अभंग लिखे थे। यह शत्रु-आक्रमण प्रसंग के नाम से अभंगगाथा में सम्मिलित हैं। कहते हैं एक बार शिवाजी महाराज ने तुकाराम के पास बहुत सोना-आभूषण आदि भेंट में भिजवाया, किन्तु तुकाराम ने श्रद्धापूर्वक सभी कुछ वापस कर दिया और लिखकर भेजा;
आम्ही तेणे सुखी। म्हणा विट्ठल विठ्ठल मुखी॥
अर्थात्, मैं तो वैसे ही सुखी हूँ (आपके इस धन से मेरे को कोई सुख नहीं मिलेगा)। आप मुख से विट्ठल-विट्ठल कहें उसी से मेरे को सुख मिलेगा।
शिवाजी सब कुछ छोड़ कर भक्तिभाव से तुकाराम के साथ रहना चाहते थे। किन्तु तुकाराम ने शिवाजी से कहा कि आप जो कर रहे हैं वही आवश्यक है। परामर्श के लिए समर्थ गुरु रामदास से मिलने को कहा। समर्थ गुरु रामदास तो प्रवृत्तिमार्ग के संत थे और ‘मारिता-मारिता घ्यावें राज्य आपुलें’ अर्थात् ‘मारते-मारते अपना राज्य प्राप्त करो’ वाली नीति में विश्वास करते थे। समर्थ गुरु रामदास ने शिवाजी का योग्य मार्गदर्शन किया। सगुण भक्ति के उपासक संत तुकाराम का कहना था कि भक्ति तो समर्पण की सर्वोच्च स्थिति है। भक्ति तो मुक्ति से भी उच्च है।
जातिगत भेदभाव में कोई विश्वास नहीं
संत तुकाराम ने जाति की कभी कोई चिन्ता नहीं की। वे स्वयं शूद्र कहलाते थे, किन्तु भक्तिभाव के कारण सभी जातियों के भक्तगण उनके पास आते थे। वे जहाँ जाते, वहीं मेला लग जाता था। उनका कहना था, “ईश्वर प्राप्ति में जाति का कोई स्थान नहीं है। वेद-शास्त्रों का भी यही कहना है कि ईश्वर की सेवा में जाति महत्वहीन है। जो ब्राह्मण हरिस्मरण की चिन्ता नहीं कर पाता, वह ब्राह्मण कहलाने के कतई योग्य नहीं है। वहीं निम्न जाति का कहलाने वाला व्यक्ति प्रभु से प्रेम करता है तो वह सच्चा ब्राह्मण है। सभी जातियाँ उसी एक ब्रह्म में से ही निकली हैं।” अपने मनोगत भक्तिभावों को सुन्दर ढंग से तुकाराम रखते हैं, “मैं ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि उसने हमको विद्वान् ब्राह्मण नहीं बनाया। क्योंकि वह तो अबोध लोगों को विद्वानों की तुलना में अधिक प्यार करता है और हमारी असहाय स्थिति में हमारा अधिक संरक्षण भी तो करता है।” उस समय की सामाजिक परिस्थितियों में जब हिन्दू समाज के ही एक बड़े वर्ग को मन्दिर में प्रवेश नहीं मिल पा रहा था तब तुकाराम उन्हें भगवन्नाम का जाप करने का आग्रह करके भक्ति-भाव के साथ जोड़े रख रहे थे। प्रभु का नाम सभी को पवित्र करता है। तुकाराम कहते हैं;
हो कां दुराचारी। वाचे नाम जो उच्चारी॥
त्याचा दास मी अंकित। कायावाचामने सहित॥
नसो भाव चित्तीं। हरिचे गुण गातां गीतीं॥
करी अनाचार। वाचे हरिनाम उच्चार॥
हो कां भलते कुल। शुचि अथवा चांडाल॥
म्हणवी हरिचा दास। तुका म्हणे धन्य त्यास॥
अर्थात्, चाहे कोई दुराचारी हो, तथापि यदि वह भगवन्नाम का उच्चारण करता है, मैं तन, मन, वाणी सहित उसका दास होने के लिए तत्पर हूँ। चाहे किसी के हृदय में भाव-भावना ना हो, किन्तु यदि वह हरि के गुण गाता है, यह मनुष्य भी प्रशंसा के योग्य है। जो अनाचार करता है, तथापि वाणी से हरिनाम का जाप करता है, वह चाहे किसी भी कुल का हो कुलीन हो, अकुलीन हो; पवित्र हो अथवा चांडाल हो, किन्तु अपने को हरि का दास कहलाता है। तुका कहता है- वह व्यक्ति भी धन्य है।
तुकाराम महाराज की बातों में जातिगत भाव का स्पर्श भी नहीं था। वे तो मानवता की महत्ता में विश्वास रखते थे। उनके विचारानुसार ब्राह्मण या शूद्र जन्मगत नहीं वरन् गुणों के अनुसार ही होना चाहिए। वे अपने गुणोपासक सिद्धान्त को ही पुनः प्रतिपादित करते हैं;
ब्राह्मण तो याती अंत्यज असतां। मानावा तत्त्वता निश्चयेसीं॥
रामकृष्ण नामें उच्चारी सरळें। आठवी सांवळे रूप मनीं॥
शांति क्षमा दया अलंकार अंगीं। अभंग प्रसंगी धैर्यवंत॥
तुका म्हणे गेल्या षड्ऊर्मी अंगें। सांडुनियां मग ब्रह्मचि तो॥
अर्थात्, चाहे कोई जाति से अंत्यज (शूद्र) हो, किन्तु यदि वह सरल, मधुर राम कृष्ण नाम का उच्चारण करता है, मन में श्री विठ्ठल के साँवले रूप का ध्यान करता है, शान्ति, क्षमा, दया आदि सद्गुण उसके स्वभाव में बस गए हैं तथा दुःख एवं संकट के समय भी उसका धैर्य अभंग बना रहता है उस शूद्र को भी ब्राह्मण ही मानना चाहिए। तुका कहता है- जिसने काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मत्सर इन छह विकारों पर विजय पा ली है, उसकी जाति नीच अथवा अन्त्यज क्यों न हो, वह साक्षात् ब्रह्म ही है। वही सच्चा ब्राह्मण है।’
संत तुकाराम की विचारधारा में तीन बातें महत्वपूर्ण हैं;
- वे निःसंकोच भाव से यह स्वीकार करते हैं कि जो मैं बोल रहा हूँ वह पहले के श्रेष्ठ-संत-जनों की जूठन ही बोल रहा हूँ।
- श्रेष्ठ विचारों के क्षेत्र में तुकाराम महाराज जाति को कतई महत्व नहीं देते हैं। व्यक्ति की कोई भी जाति क्यों न हो, उसके विचारों का ही मूल्यांकन होना चाहिए। श्रेष्ठ विचारों पर किसी एक जाति का एकाधिकार नहीं हो सकता।
- तीसरी बात यह कि उनका परमेश्वर पर पूरा विश्वास है और वे मानते हैं कि वे जो भी बोल रहे हैं वह उनका विठ्ठल ही उनसे बुलवा रहा है। अतः यह देववाणी है।
वे कहते हैं;
संतांची उच्छिष्टं बोलतों उत्तरें। काय म्या गव्हारें जाणावें हैं॥
विट्ठलाचे नाम घेतां नये शुद्ध । तेथें मज बोध काय कले॥
करितों कवतुक बोबडा उत्तरीं। झणी मजवरि कोप धरा॥
काय माझी याति नेणां हा विचार। काय मी ते फार बोलों नेणे॥
तुका म्हणे मज बोलवितो देव। अर्थ गुह्य भाव तोचि जाणे॥
अर्थात्, मैं जो बातें, अथवा विचार कहता हूँ, वे संतों की, विद्वानों की जूठन हैं, अन्यथा मैं निपट, गँवार ज्ञान या उपदेश क्या जानूँ । मैं तो ‘विट्ठल’ शब्द का उच्चारण तक ठीक तरह नहीं कर सकता, फिर उसका ज्ञान, परिचय मैं कहाँ से पाऊँगा। मैं तो अपनी तुतलाती बोली में कुछ कहने का यत्न करता हूँ- हे भाइयो! मेरे इस कार्य के कारण कोई मुझ पर क्रोध मत करना। आप मेरी जाति का भी कोई विचार मत कीजिएगा, मैं क्या हूँ, मेरी जाति क्या है, इस बारे में अधिक क्या कहूँ। आप सब जानते हैं। तुका कहता है- भाइयो! वास्तविक तथ्य यह है कि वह भगवान् ही मुझसे बुलवाता है और मैं बोलता है, इसलिए उन वचनों का या अभंगों का अर्थ क्या है, इनमें कौन-सा गुह्य आशय छिपा है, इसे मैं क्या जानूँ ? मुझसे बुलवाने वाला वह भगवान् ही जाने।
कबीरदास का कहना है कि पुस्तकीय ज्ञान से ही ब्रह्म की अनुभूति नहीं हो सकती। सच्चा ज्ञानी तो वह है जो सभी से प्रेम करता है। संत तुकाराम ने भी हिम्मत के साथ सच बात कही और केवल कुछ श्लोक कण्ठस्थ करने मात्र को ही ज्ञानी होने का आधार नहीं माना। यद्यपि उनके खरा कहने के कारण कुछ लोग उनसे नाराज रहने लगे, किन्तु वे खरा बोल कहने से चूके नहीं;
वेदाचा तो अर्थ आम्हांसी च ठावा। येरांनी वाहावा भार माथां॥
खादल्याची गोडी देखिल्यासी नाहीं। भार धन वाही मजुरीचें॥
उत्पत्तिपालणसंहाराचे निज। जेणे नेलें बीज त्याचे हातीं॥
तुका म्हणे आले आपण चि फळ। हातोहातीं मूल सांपडळे॥
अर्थात्, वेद का सच्चा अर्थ क्या है, यह हम ही जानते हैं। अन्य जन, जो अपने आप को वेदपाठी या वैदिक मानते हैं, वे तो केवल वेद की पोथी को सिर पर ढोने वाले श्रमिक हैं। अर्थात् केवल पाठ करने से या वेदों को रट लेने से कुछ नहीं होता। वेदों के अनुसार जिसका आचरण है, जो सबसे प्रेम का नाता जोड़ता है, वही सच्चा वेदपाठी है। स्वादिष्ट भोजन का स्वाद खाकर ही जाना जा सकता है, केवल देखने से नहीं- उसी प्रकार वेदों के ज्ञान के अनुसार जिसका जीवन है, वही सच्चे रूप में वेदार्थ जानता है। मजदूर धन का बोझा सिर पर उठाकर घूमता है, उस धन का मूल्य वह क्या जाने! जिस परमेश्वर ने जगत् की उत्पत्ति की, जो पालनकर्ता तथा संहारकर्ता है, उस मूलतत्व को जिसने पाया, वही वेदार्थ जानता है| तुका कहता है, सारे संसार का जो मूल है, अर्थात् ब्रह्म जिसके हाथ में आ गया, फल तो स्वयमेव उसके हाथ आ जाएगा। अर्थात् वेद जिस ईश्वर का वर्णन करते हैं, उस निराकार निर्गुण को जान कर जिसने आत्मज्ञान पा लिया है, उसने ही वेदों को जाना है। केवल स्मरण रखने वाले तो भारवाही श्रमिक मात्र हैं।
संत तुकाराम महाराज की ‘अभंगगाथा’ महाराष्ट्र में अत्यन्त जनप्रिय एवं लोकग्राही होने के साथ ही मार्मिक, सुबोध तथा हृदयस्पर्शी रही है। सम्पूर्ण महाराष्ट्र में इसकी सर्वस्पर्शता तथा सर्वोद्धारकता सर्वमान्य है। सभी विद्वानों ने इसे ‘तुकोपनिषद्’ तथा ‘पंचम वेद’ का सम्मानजनक स्थान प्रदान किया।
वर्तमान में उपलब्ध ‘तुकाराम-अभंग गाथा’ नामक ग्रन्थ में पाँच हजार से अधिक अभंग हैं। इसको मराठी भाषा का वेद कहा जाता है। मात्र इकतालीस वर्ष की आयु में ही संत तुकाराम चले गए। उनका यही सन्देश रहा – ‘जय-जय रामकृष्ण हरि का जप करो, विट्ठल-विट्ठल, पाण्डुरंग-पाण्डुरंग ही सबका सहारा है।
संदर्भ: डॉ. कृष्ण गोपाल की भारत की संत परम्परा और सामाजिक समरसता, तुकाराम-अभंगगाथा, महाराष्ट्र की संत परम्परा