स्वामी विवेकानंद के जीवन का उपदेश उपनिषदों के निचोड़ से निकला था। वह निर्भीक समाज की संरचना के लिए कार्य करते रहे सम्पूर्ण जीवन। “अभय बनो-अभय बनो” का मंत्र उन्होंने युवाओं के बीच प्रचारित किया, जो आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के लिए अत्यावश्यक है।
स्वामी विवेकानंद के विचार को उनके जीवन काल में लाखों लोगों ने सुना और समझा। उनकी समाधि के उपरांत यह विचार करोड़ों लोगों तक पहुँचा, जिन्होंने अपनी सुविधा अनुसार इसको धारण किया। कुछ ऐसे भी व्यक्तित्व हुए, जिन्होंने उनके विचार को ऐसे अंगीकार किया, जिसके कारण सिर्फ उनका जीवन ही राष्ट्रधारा में नहीं प्रवाहित हुआ बल्कि उनके साथ-साथ लाखों के हृदय में राष्ट्र जीवन की ज्वाला जगी।
इस शृखंला में अगर सबसे पहले किसी का नाम आता है तो वह हैं नेताजी सुभाष चंद्र बोस। भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेताओं में से एक सुभाष चन्द्र बोस, जिनको करोड़ों भारतीय ‘नेताजी’ के नाम से सम्बोधित करते हैं। जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए भारतीय युद्ध बंदियों में से आज़ाद हिन्द फौज का नेतृत्व किया और “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा” के नारे का उद्धघोष भरा था। जिनकी जयन्ती 23 जनवरी को भारत सरकार पराक्रम दिवस के रूप में मनाती है।
वह महान क्रन्तिकारी नेताजी सुभाष चन्द्र बोस कहते हैं, ”वर्तमान स्वतंत्रता आंदोलनों की नींव स्वामी विवेकानंद के संदेश के मूल में है।” नेताजी सुभाष के लिए प्रेरणापुरुष थे स्वामी विवेकानन्द। स्वामी विवेकानंद का नेताजी के जीवन में महज 15 वर्ष की उम्र में प्रवेश हो गया था। उनके द्वारा रचित साहित्य का अध्ययन करके नेताजी के अंदर एक मानसिक क्रांति का उदय हुआ। उनका भटकाव खत्म हो गया और उनको आधारभूत सिद्धांत मिल गया था, जिससे वह अपने जीवन का उद्देश्य बना सके।
सुभाष चन्द्र बोस ने हृदय से स्वामी विवेकानंद का सन्देश स्वीकार कर लिया था कि मनुष्य सेवा ही ईश्वर सेवा है। नेताजी ने स्वामी विवेकानंद के इस विचार को अंगीकार किया कि प्रत्येक भारतीय उनके भाई-बहन हैं और भारत की मुक्ति के लिए राष्ट्रीय जागृति अति आवश्यक है। सुभाष चन्द्र बोस लिखते हैं:
”उन्होंने स्वस्थ राष्ट्रीय गतिविधि के हर रूप को प्रेरित करने में सक्रिय हिस्सा लिया। उनके साथ धर्म राष्ट्रवाद को प्रेरणादेता था। उन्होंने नई पीढ़ी में भारत के अतीत में गर्व की भावना, भारत के भविष्य में विश्वास और आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की भावना का संचार करने की कोशिश की। स्वामी विवेकानंद ने हालाँकि कभी कोई राजनीतिक संदेश नहीं दिया, लेकिन उनके संपर्क में आने वाले या उनकी रचनाओं से देशभक्ति और राजनीतिक मानसिकता की भावना विकसित हुई। उनकी 1902 में बहुत युवा उम्र में मृत्यु हो गई, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद से उनका प्रभाव और भी अधिक हो गया है।”
नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जीवन पर स्वामी विवेकानंद की छाप, प्रभाव, प्रभुत्व, उनके प्रति स्नेह और सम्मान हम उनके इन शब्दों से समझने की कोशिश कर सकते हैं, जब एक जगह वह ऐसा कहते हैं कि अगर वो जीवित होते, तो वह उनके चरणों में होते। स्वामी विवेकानंद उनके गुरु होते, वो उनको अपने गुरु के रूप में स्वीकार कर लिए होते।
सुभाष चन्द्र बोस आगे कहते हैं, ”जब तक मैं जियूँगा, मैं रामकृष्ण और विवेकानंद के प्रति बिल्कुल वफादार और समर्पित रहूँगा।” स्वामी विवेकानंद का चित्र नेताजी अपने साथ हमेशा रखते थे और अपने अत्यंत व्यस्त दिनचर्या के बीच में भी रामकृष्ण मिशन आश्रम की नजदीकी शाखाओं में जाकर ध्यान करते थे।