मराठी में जिसे ‘दंडपट्ट‘ कहते हैं लगभग वैसी ही तलवार को उड़िया में सिर्फ ‘पट्ट’ कहा जाता है। संभवतः आपने इसे किसी संग्रहालय में देखा भी होगा। इसमें कलाई तक ढकने वाली बंधी मुट्ठी के आगे एक धारदार टुकड़ा लगा हुआ दिखता है। देखने में भले ये ऐसा लगता है जैसे इसका इस्तेमाल घोंपने में होता होगा, लेकिन असल में ये छुरे की तरह नहीं बल्कि काटने में इस्तेमाल होने वाली तलवार है। पैदल सैनिकों का सामना बख्तरबंद घुड़सवारों से हो, तो ये तलवार बहुत काम की होती थी। इसके साथ जो दूसरे किस्म की तलवार इस्तेमाल होती थी, उसे खांडा कहा जाता है। मराठा क्षेत्रों में भी ये अक्सर दिख जाएँगी क्योंकि इन इलाकों में जिन फौजों का सामना करना पड़ता था वो अक्सर बख्तरबंद घुड़सवार हमलावर होते थे।
पैदल सैनिकों के लिए इस्तेमाल होने वाले संस्कृत शब्द के मामूली से अपभ्रंश से ‘पाइका’ शब्द बना। ये अखाड़े होते थे जो अभी भी ओडिशा में पाए जाते हैं। कलिंग के काल से ही ओडिशा की सैन्य सुरक्षा का काफी हिस्सा इन्हीं ‘पाइका’ अखाड़ों पर निर्भर था। बंगाल के इस्लामिक शासक भी इन्हीं पाइका अखाड़ों के कारण ओडिशा पर विजय नहीं पा सके थे। ऐसे अखाड़ों का नियंत्रण ‘खंडायत’ के हाथ में होता था। इस शब्द में भी फ़ौरन ‘खांडा‘ यानी दूसरी किस्म की तलवार नजर आ जाएगी। सन 1817 में जगबंधु बिद्याधर मोहपात्रा राय के नेतृत्व में पाइका अखाड़ों ने फिरंगियों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूँक दिया था। दूसरे कई विद्रोहों की तरह ही ये विद्रोह भी कुचला गया था।
गजपति वंश के शासन काल में पाइका अखाड़े अपने चरम पर थे। अंग्रेजों का समय आने तक इनकी क्षमता लगातार इस्लामिक आक्रमणों के कारण काफी कम पड़ चुकी होगी। अंग्रेजों के आक्रमण के बाद से जब हिन्दुओं पर शस्त्र रखने और उनके संचालन की शिक्षा-दीक्षा पर पाबन्दी लगी तो अपनी कला को जीवित रखने के लिए इन्होंने एक अनूठा तरीका चुना। तलवार चलाने की कला, नृत्य के रूप में सिखाई जाने लगी। आज जो कलाएँ बिहार में परी-खांडा और ओडिशा में छाऊ नृत्य के नाम से जानी जाती हैं, ये वही तलवारबाजी के करतब होते हैं। छाऊ शब्द भी सेना की छावनी शब्द से ही बना हुआ है। अभी भी पाइका अखाड़े अपनी कला का प्रदर्शन दुर्गा-पूजा या नवरात्रि के अवसर पर करते हैं।
कल (22 जुलाई 2019) जब जगन्नाथ पुरी के एक पुजारी की तस्वीरें इन्टरनेट पर नजर आने लगीं तो कुछ तथाकथित हिन्दुओं की मासूम, अहिंसक, गाँधीवादी, सेक्युलर भावना बड़ी बुरी तरह आहत हो गईं। गोरे साहबों के जाने के बाद आए भूरे साहबों ने भी भारतीय युद्धकलाओं की हत्या करने में उससे ज्यादा तत्परता दिखाई थी, जितनी उनके गोरे साहब दिखा पाते। इस वजह से शारीरिक शौष्ठव, शस्त्र इत्यादि देखकर उनका छाती कूट कुहर्रम मचाना कोई आश्चर्यजनक भी नहीं। अब अगर वापस पट्ट नाम के इस हथियार की ओर आएँ तो ये सबसे भयावह हथियारों में से एक माना जाता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि अक्सर योद्धा इसका प्रयोग अपने अंतिम समय में करना शुरू करते थे।
कई बार दो-दो के जोड़ों में योद्धा पट्ट चलाना शुरू करते, कलाई इसके दस्ते को पकड़ने पर मुड़े नहीं इसलिए ये दो लोगों के सम्मिलित नृत्य जैसा कुछ दृश्य होता होगा। ये एक तथ्य है कि मराठा सैनिक गिरते समय इसका इस्तेमाल करते थे ताकि अपने साथ-साथ ज्यादा से ज्यादा मलेच्छ शत्रुओं को भी लिए जाएँ। दो की जोड़ी में अगर पट्ट चलाया जा रहा हो तो अन्दर प्रवेश करके चलाने वालों पर प्रहार करना बहुत मुश्किल होगा। अब पहली किस्म के खड़ग यानी खांडा से तो खंडायत नाम बना था, दूसरे किस्म के लिए पट्टनायक नाम के बारे में सोचिये।
बाकी जब याद आ जाए कि जाने-माने लेखक देवदत्त पट्टनायक के नाम में आपको नायक शब्द का मतलब तो पता है, तब ये सोचिएगा कि भला ये ‘पट्ट’ क्या होता होगा? तब तक पाइका अखाड़ों और पाइका विद्रोह भी पढ़िएगा। हम बताते चलें कि शेखुलरों के लिए ओडिशा का इतिहास हजम करने में दिक्कत होनी तय है!