Sunday, November 3, 2024
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श्रीकृष्ण के परपोते का बनाया केशवदेव मंदिर, जिसे खंडहर में तब्दील कर औरंगजेब ने पढ़ी नमाज: अकबर ने तोड़ने के लिए भेजा, मानसिंह ने करा दिया भव्य निर्माण

मथुरा में मंदिर का चबूतरा तोड़ने पहुँची अकबर की मुगल सेना से राजा मानसिंह की सेना के सेनापति ने कहा, "अगर यहाँ के एक भी हिंदू को हाथ लगाया गया तो मुगल सैनिकों को कब्रों में दफना दिया जाएगा।" इसके बाद चबूतरा को तोड़े बिना मुगल सेनापति वापस दिल्ली लौट गया।

अयोध्या और मथुरा को भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। इसकी सबसे बड़ी वजह है कि ये भारत की आत्मा में रचे-बसे दो अवतारों के जन्मस्थान हैं। अयोध्या मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की जन्मस्थली है तो मथुरा योगेश्वर कृष्ण की जन्मभूमि है। ये दोनों ही स्थान कालांतर में मुस्लिम आक्रमणकारियों के निशाना बने।

मथुरा का केशवदेव मंदिर अति प्राचीन मंदिर है, लगभग पाँच हजार वर्ष पुराना। कहा जाता है कि जिस जगह पर कंस के कारागार में देवकी के गर्भ से भगवान विष्णु के परमावतार श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था, कालांतर में वहीं केशवदेव मंदिर का निर्माण हुआ था।

हालाँकि, आज इस स्थान पर शाही ईदगाह मस्जिद स्थित है, जो केशवदेव मंदिर को तोड़कर बनाया गया है। मुगल आक्रांता औरंगजेब के विध्वंस के बाद मंदिर के गर्भगृह पर बने इस मस्जिद को लेकर न्यायालय में मुकदमे चल रहे हैं। हालाँकि, इस आलेख का विषय मंदिर और उसके इतिहास से जुड़ा है और आज हम उसी की बात करेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ने कराया था केशवदेव मंदिर का निर्माण

केशवदेव मंदिर का इतिहास द्वापर युग से जुड़ा है, जो पाँच हजार साल पुराना है। कुछ इतिहासकार कहते हैं कि इस मंदिर का सर्वप्रथम निर्माण भगवान कृष्ण के प्रपौत्र व्रजनाभ ने छठी शताब्दी ईसा पूर्व में कराया था। वज्रनाम के पिता का नाम अनिरुद्ध था। अनिरुद्ध भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न के बेटे थे।

महाभारत के युद्ध में हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र और महारानी गांधारी का वंश खत्म हो गया। गांधारी ने वियोग में श्रीकृष्ण को शाप दिया था कि जिस तरह से उनके कारण कौरव वंश का नाश हुआ, उसी तरह से उनके भी कुल यदुवंश का नाश हो जाएगा।

कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध की समाप्ति के 36 वर्ष के प्रारंभ में श्रीकृष्ण और जाम्बवंती के पुत्र जाम्ब के कारण द्वारिका में यदुवंशी क्षत्रियों के बीच मूसल युद्ध प्रारंभ हुआ। इसमें यदुवंशी क्षत्रियों का नाश हो गया। उसके बाद बलराम ने समुद्र में समाधि ले ली और श्रीकृष्ण एक वृक्ष के नीचे लेट गए, जहाँ एक भील ने हिरण समझकर उन्हें तीर मार दिया। इसके बाद वे अपने लोक चले गए।

लेकिन, इस युद्ध में श्रीकृष्ण के प्रपौत्र व्रज और व्रजनाभ बच गए। श्रीकृष्ण के पृथ्वी छोड़ने के बाद द्वारिका समुद्र में डूब गया। दोनों भाई बचे हुए यदुवंशी क्षत्रियों के साथ हस्तिनापुर चले आए। यहाँ आकर उन्होंने हस्तिनापुर के राजा और अभिमन्यु (अर्जुन और उत्तरा के पुत्र थे अभिमन्यु) के पुत्र महाराजा परीक्षित के सहयोग से व्रजक्षेत्र का निर्माण किया। उनके ही नाम पर इसे व्रजमंडल कहा जाता है।

यहाँ दोनों भाइयों ने कई मंदिरों, तालाबों एवं अन्य लोकोपयोगी संरचनाओं का निर्माण कराया। व्रजनाभ ने जिन मंदिरों का निर्माण कराया था, उनमें भगवान श्रीकृष्ण का केशवदेव मंदिर भी शामिल था।

कालांतर में होता रहा पुनर्निर्माण

कालांतर में इस मंदिर का जीर्णोद्धार विभिन्न राजाओं द्वारा किया जाता रहा। इतिहासकारों के अनुसार, ईसा पूर्व 85-57 में श्रीकृष्ण मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया था। महाक्षत्रप सौदास के काल में ब्राह्मी लिपि में लिखे शिलालेखों से पता चलता है कि वसु नामक व्यक्ति ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था।

कहा जाता है कि समय बीतने के साथ ही मंदिर पुराना पड़ने लगा और इसकी हालत जर्जर हो गई। उसके बाद 5वीं शताब्दी में इस मंदिर का दूसरी बार जीर्णोद्धार हुआ। गुप्त वंश के सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने इसका जीर्णोद्धार कराया था। इस बात का जिक्र सम्राट के दरबार में आए चीनी यात्री फाह्यान ने किया है। फाह्यान 399 ईस्वी से 414 ईस्वी तक भारत भ्रमण पर था।

मुस्लिम आक्रांताओं का सिलसिला शुरू: पहला आक्रमण महमूद गजनवी का

सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के जीर्णोद्धार के बाद मथुरा का केशवदेव मंदिर लगभग 500 वर्षों तक अडिग खड़ा रहा, लेकिन हालात पहले की तरह नहीं रह गए थे। अब भारत पर इस्लाम के मजहबी आक्रमणकारियों की नजर पड़ गई थी। ग्रंथों में इन्हें ‘म्लेच्छ’ कहा गया है।

केशवदेव मंदिर पर पहला हमला अफगानिस्तान का शासक महमूद गजनवी ने सन 1017-1018 में किया था। वह मंदिरों के वैभव और यहाँ की अतुल संपदा को देखकर हतप्रभ था। मुस्लिम आक्रमण के बाद रेगिस्तान में परिवर्तित हो चुके अफगानिस्तान और उसके आसपास के निर्माणों में ऐसी भव्यता कहाँ थी।

महमूद के हमले के समय उसका दरबारी इतिहासकार अल उत्बी भी उसके साथ था। उत्बी ने अपनी किताब ‘तारीख-ए-यामिनी’ में लिखा है, “हैरान महमूद ने मंदिर की भव्यता देखकर कहा कि अगर कोई इसकी जैसी इमारत बनाना चाहे तो उसे 100 करोड़ दीनार खर्च करने पड़ेंगे। माहिर कारीगरों को भी इसे बनाने में कम-से-कम 200 साल लगेंगे।”

मंदिर की भव्यता देख चिढ़े महमूद ने केशवदेव मंदिर को तुड़वा दिया। इतना ही नहीं, उसने मथुरा शहर के सारे मंदिरों को तुड़वा दिया और इनमें स्थापित सोने-चाँदी की मूर्तियों को लूट लिया और पूरे शहर को तहस-नहस कर दिया।

अल उत्बी ने लिखा है कि केशवदेव मंदिर में सोने की पाँच मूर्तियाँ थीं। इन मूर्तियों की आँखों में माणिक्य जड़े थे। मंदिर में इतना सोना मिला था कि उसे ले जाना संभव नहीं था। इसलिए उसने काफी सोना गला दिया था। कहा जाता है कि सोने को ले जाने के लिए महमूद गजनवी ने कई ऊँटों का इस्तेमाल किया था। 

सन 1860-90 तक मथुरा के अंग्रेज कलेक्टर रहे एफएस ग्रौसे ने ‘मथुरा-वृंदावन: द मिस्टिकल लैंड ऑफ लॉर्ड कृष्णा’ नामक पुस्तक में लिखा है कि महमूद गजनवी ने श्रीकृष्ण मंदिर के साथ-साथ शहर के सैकड़ों मंदिरों को तुड़वा दिया था। मंदिरों को लूटने के साथ ही उसने शहर में भी जमकर उत्पाद मचाया था।

मंदिर पुनर्निर्माण और दूसरा हमला सिकंदर लोदी का

महमूद गजनवी के आक्रमण के बाद मथुरा तहस-नहस होकर गया था, लेकिन सनातन धर्मांवलंबियों की जिजीविषा और उनकी आस्था ने उन्हें दोबारा उठ खड़े होने के लिए प्रेरित किया। गजनवी के आक्रमण के बाद साल सन 1150 में जज्ज नाम के एक जागीरदार ने यहाँ एक भव्य विष्णु मंदिर बनवाया।

इस बात का उल्लेख श्रीकृष्ण जन्मभूमि स्थान से मिले संस्कृत के एक शिलालेख से पता चलता है। माना जाता है कि जज्ज कन्नौज के गढ़वाल राजवंश के अधीन एक जागीरदार थे। वहीं, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि वे मथुरा के राजा विजयपाल देव से संबंधित हैं।

समय के साथ दिल्ली के तख्त पर मुस्लिमों का अधिकार हो गया। गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश और सैय्यद वंश गद्दी पर बैठा। सैय्यद को हराकर बहलोल लोदी गद्दी पर बैठा और लोदी वंश की नींव डाली। बहलोल लोदी की मौत के बाद उसका बेटा निजाम खान सिकंदर लोदी के नाम से सन 1489 में दिल्ली की तख्त पर बैठा और सन 1517 तक शासन किया।

सिकंदर लोदी कट्टर सोच का शासक था। जब मथुरा के केशवदेव मंदिर की प्रसिद्धि उस तक पहुँची तो उसने मंदिर पर हमला कर इसे नष्ट कर दिया। इतना ही नहीं, उसने हिंदुओं पर फिर से जजिया कर लगा दिया।

अंग्रेज कलेक्टर एफएस ग्रौस ने जहाँगीर के शासनकाल के इतिहासकार अब्दुल्ला की किताब ‘तारिख-ए-दाउदी’ के हवाले से लिखा है कि सिकंदर लोदी ने हिंदुओं के नदी में स्नान करने और उसके किनारे मुंडन कराने पर भी प्रतिबंध लगा दिया था।

अकबर ने तोड़ने के लिए सेना भेजी, मानसिंह ने मंदिर बनवा दिया

समय के साथ दिल्ली के तख्त से लोदी वंश का अंत हो गया। सन 1526 ईस्वी में बाबर दिल्ली की गद्दी पर बैठा और मुगल वंश को स्थापित किया। इसी मुगल वंश में आगे चलकर अकबर हुआ, जिसे भारत का इतिहास ‘अकबर महान’ बताता है। अकबर मुगल वंश के संस्थापक बाबर का पौत्र और हुमायूँ का बेटा था।

अकबर ने दिल्ली की गद्दी पर सन 1556 ईस्वी से 1605 ईस्वी तक शासन किया। अकबर के दरबार में नौ रत्न थे, जिनमें तानसेन, राजा बीरबल, राजा मानसिंह, राजा भारमल, अब्दुर्रहीम आदि प्रमुख थे। इस वजह से अकबर को धर्मनिरपेक्ष बताने की कोशिश की जाती है, लेकिन स्वभाव में वह ऐसा नहीं था।

अकबर ना सिर्फ मेवाड़ में जौहर और शाका के लिए जिम्मेदार था, बल्कि उसने मथुरा के केशवदेव मंदिर के चबूतरे को भी तोड़ने का प्रयास किया था। सिकंदर लोदी के विध्वंस के बाद मथुरा मंदिर विहीन हो गया था और मुस्लिम शासन में कोई मंदिर निर्माण का साहस नहीं कर पा रहा था।

जिस जगह मंदिर का गर्भगृह था, उसके बगल में ही चौबे नाम के एक व्यक्ति ने चबूतरा बनवा दिया। बीतते समय के साथ हिंदू उस चबूतरे को पूजने लगे और उसका परिक्रमा करने लगे। यह बात शहर के काजी (इस्लामी धर्मगुरु और जज) शेख अब्दुल नबी को नागवार गुजरी। उसने हिंदुओं को ऐसा करने से रोका, लेकिन हिंदू नहीं माने। मथुरा राजा मानसिंह की जागीर थी, इसलिए वहाँ उनके हिंदू सैनिक तैनात थे। इस बात ने भी हिंदुओं को आत्मबल दिया।

जिस बंगाल को बाबर, हुमायूँ और अकबर नहीं जीत सके, उसे जीतकर राजा मानसिंह लौटे तो अकबर ने उनका खूब स्वागत किया और बंगाल (आज का बिहार, बंगाल और ओडिशा) को की जागीर दे दी। राजा मानसिंह ने मथुरा भी माँग लिया और अकबर ने दे भी दिया। बंगाल की देखभाल राजा मानसिंह बिहार के रोहतासगढ़ किले से करते थे और यही रहते थे। उस दौरान इस इलाके (बिहार, बंगाल, उड़ीसा) का नाम भी बदलकर वीर मानसिंह भूमि कर दिया गया था। इस तरह हिंदुओं पर उनका प्रबल प्रभाव था।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा वाराणसी में हनुमान मंदिर बनवाने के बाद अकबर ने उसे तोड़ने का आदेश दिया था, लेकिन राजा मानसिंह के हस्तक्षेप के बाद अकबर ऐसा नहीं कर सका। यह बात भी मथुरा के हिंदुओं को पता थी। मानसिंह के व्यक्तित्व के बारे में काजी और कोतवाल भी अवगत थे और हिंदू भी। इस कारण भी वहाँ के हिंदू काजी की बात को अनसुना कर दे रहे थे

अपनी अवहेलना से चिढ़कर शहर काजी अपनी शिकायत लेकर सीधे अकबर के दरबार में पहुँच गया और उसने हिंदुओं के पूजा-पाठ की शिकायत की। हालाँकि, काजी की बात सुनकर भी अकबर राजा मानसिंह से सीधे दुश्मनी मोल लेना नहीं चाहता था। हल्दीघाटी युद्ध में राजा मानसिंह ने महाराणा प्रताप को जाने देकर जिस प्रकार सहायता दिया था, उससे अकबर वाकिफ था।

उस दौरान भी अकबर अपने प्रबल शत्रु का पीछा नहीं करने के कारण राजा मानसिंह को कुछ नहीं कह पाया था। अकबर नाराज हुआ था और मानसिंह से बातचीत करना बंद कर दिया। इसके साथ ही उसने मानसिंह को संदेश भेजवाया था कि दरबार में आने की आवश्यकता नहीं है। सो मानसिंह भी मुगल दरबार नहीं जाते थे।

इस तरह अकबर दुविधा में पड़कर अकबर ने काजी शेख अब्दुल नबी को बोला की काजी होने के कारण जो आप फैसला लेना चाहें लें। इसके बाद काजी अपने साथ दो हजार मुगल सैनिक, जिनमें सारे मुस्लिम थे, लेकर मथुरा गया और चबूतरे को तोड़ने का आदेश दिया। इस खबर को सुनते ही मथुरा के आसपास के हिंदू क्रोधित हो उठे।

मुगल सैनिकों को मथुरा भेजने की बात जब राजा मानसिंह को पता चली तो उन्होंने अपने कच्छवाहा क्षत्रिय सैनिकों के सेनापति से मुगल सैनिकों को वापस भेजने के लिए कहा। कच्छवाहा सेनापति ने मुगल सेना की टुकड़ी के सरदार से कहा, “अगर यहाँ के एक भी हिंदू को हाथ लगाया गया तो मुगल सैनिकों को कब्रों में दफना दिया जाएगा।” इसके बाद मजबूर होकर मुगल सेनापति वापस दिल्ली लौट गया।

आगे चलकर चौबे ने उस स्थान चबूतरे पर भगवान का विग्रह रखकर प्राण-प्रतिष्ठा करा दिए और विधिवत पूजा होने लगी। अंग्रेज कलेक्टर एफएस ग्रौसे ने अपनी किताब में लिखा है कि सन 1590 ईस्वी में राजा मानसिंह ने मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण के मूल स्थान पर भव्य मंदिर बनवा दिया। इस दौरान अकबर चाहकर भी कुछ नहीं कर पाया।

ओरछा के राजा वीर सिंह ने मंदिर को और भव्य बनवाया

समय बीतने के साथ अकबर के बेटे और मुगल बादशाह जहाँगीर का शासनकाल आया और 1618 ईस्वी में ओरछा के राजा वीर सिंह देव बुंदेला ने इस मंदिर को और भव्य बनवाया। राजा वीर सिंह उस दौरान मंदिर पर 33 लाख रुपए खर्च किए। कहा जाता है कि यह मंदिर इतना ऊँचा था कि उसकी रोशनी दिल्ली और आगरा से दिखाई देती थी। इस मंदिर के शीर्ष पर सोने की छतरी लगी थी।

सन 1650 में मथुरा आने वाले फ्रांसीसी यात्री टैवर्नियर और मुगल दरबार में आए इटली के यात्री निकोलाओ मानुची ने इस मंदिर का जिक्र अपने-अपने संस्मरणों में किया है। टैवर्नियर ने लिखा है कि बनारस के बाद भारत का सबसे प्रसिद्ध मंदिर मथुरा में है। वहीं, मानुची ने लिखा कि मंदिर के शीर्ष पर लगी सोने की छतरी को आगरा से भी देखा जा सकता था।

क्रूर औरंगजेब का हमला और मंदिर का तीसरी बार विध्वंस

मुगल शासन की बागडोर अब जहाँगीर के पौत्र और शाहजहाँ के बेटे औरंगजेब के हाथों में आ गई थी। औरंगजेब सबसे क्रूर, कट्टर और जेहादी विचारधारा का शासक था। उसे हिंदुओं और मंदिरों से विशेष तौर पर घृणा थी। हर मुगल शासक के शासनकाल की तरह औरंगजेब के शासन में भी मंदिरों को तोड़ने की अनुमति थी, लेकिन बनाने की नहीं।

कहा जाता है कि एक बार औरंगजेब आगरा से दिल्ली लौट रहा था। उसने आसमान में रौशनी देखी तो उसने अपने सिपहसलारों से इसके बारे में पूछा। उसके लोगों ने बताया कि यह केशवदेव मंदिर की रौशनी है। इसके बाद उसने मथुरा के इस मंदिर को तोड़ने का निश्चय किया।

साकी मुस्तद खान ने अपनी किताब ‘मासिर-ए-आलमगिरी’ में लिखा है कि औरंगजेब ने सन 1669 में मथुरा पर हमले और कृष्ण मंदिर को नष्ट करने के लिए सेना भेजी थी। अंग्रेज कलेक्टर एफएस ग्रौसे ने अपनी किताब में लिखा है कि औरंगजेब मंदिर की भव्यता से चिढ़ गया था। उसने मंदिर को गिराकर कर उसके खंडहर पर मस्जिद बनवाई थी।

भारतीय स्थापत्य कला और इतिहास में रुचि रखने वाले स्कॉटिश इतिहासकार जेम्स फर्गुसन ने अपनी किताब ‘हिस्ट्री ऑफ इंडियन एंड ईस्टर्न आर्किटेक्टर’ में लिखा है कि मंदिर की चार मंजिला इमारत की ऊपरी दो मंजिलों को काटकर गिरा दिया गया था। इस पर औरंगजेब ने मेहराब बनवाया था, ताकि मथुरा की यात्रा के दौरान वहाँ नमाज पढ़ सके। सन 1670 में औरंगजेब मथुरा गया और मंदिर के खंडहर पर बने ईदगाह मस्जिद में नमाज भी पढ़ी।

वर्तमान में शाही ईदगाह मस्जिद श्रीकृष्ण जन्मभूमि के गर्भगृह पर स्थित है। मस्जिद के दक्षिण में स्थित वर्तमान केशवदेव मंदिर को रामकृष्ण डालमिया ने बनवाया था। इसका उद्घाटन सितंबर 1958 में हुआ था। ब्रिटिश शासनकाल में एक नीलामी के दौरान बनारस के राजा पटनीमल ने मस्जिद की पीछे वाली जगह को खरीदा था। सन 1943 में उस जमीन को राजा के उत्तराधिकारियों से उद्योगपति जुगलकिशोर बिड़ला ने खरीद लिया।

मंदिर से केशवदेव के मूल विग्रह को हटा दिया गया

औरंगजेब के हमले की जानकारी जैसे ही मथुरा के स्थानीय हिंदुओं और पुजारियों को लगी, उन्होंने भगवान केशवदेव के मूल विग्रह को हटा दिया और उसे छुपाते रहे। इस बात का पता जब औरंगजेब को चला तो उसने घोषणा कि जो भी उस मूर्ति को स्थापित करने के लिए भूमि और पुजारियों को आश्रय देगा, उस राज्य का विध्वंस कर दिया जाएगा।

औरंगजेब की क्रूरता से सब वाकिफ थे। कोई भी राजा नहीं चाहता था कि एक प्रतिमा के लिए उसके राज्य पर मुगलों का आक्रमण हो और उनकी जनता के साथ लूटपाट, बलात्कार और हत्या हो। इसलिए किसी राजा ने शरण नहीं दी। लेकिन, पृथ्वी वीरों से खाली नहीं रही कभी।

उस दौरान एक राजा ने सबसे क्रूर मुगल शासक औरंगजेब को चुनौती दी और ना सिर्फ भगवान का विग्रह लेकर घुम रहे पुजारियों को आश्रय दिया, बल्कि प्रतिमा को स्थापित करवाते हुए भव्य मंदिर भी बनवाया। हम अपने अगले लेख में इस कहानी का विस्तार से चर्चा करेंगे।

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सुधीर गहलोत
सुधीर गहलोत
प्रकृति प्रेमी

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