भारत की शीर्ष अदालत ने 11 साल पहले एक 25 वर्षीय आदिवासी महिला को, जिसे महाराष्ट्र में नंगा करके परेड कराया था, न्याय दिया था। हालाँकि जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने 5 जनवरी, 2011 को एक महिला सहित कुल चार आरोपितों को एक साल की जेल की सजा सुनाई तब इस मामले में 16 साल बाद न्याय पाने वाली महिला 40 साल की हो गई थी। अदालत ने या फैसला सुनते हुए अपनी टिप्पणी में कहा था, “भारत के आदिवासियों के साथ किया गया अन्याय हमारे देश के इतिहास का एक शर्मनाक अध्याय है। वे आम तौर पर गैर-आदिवासियों से चरित्र में श्रेष्ठ हैं।”
रिपोर्ट्स के मुताबिक, पीड़ित महिला भील समुदाय की थी और महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के एक गाँव में रहती थी। उसे चार लोगों ने नंगा घुमाया था, जिनमें से एक महिला भी थी। घटना के वक्त पीड़ित महिला 25 साल की थी। कोर्ट ने मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि गाँव की सड़क पर दिन के उजाले में एक आदिवासी महिला की परेड शर्मनाक, चौंकाने वाली और अपमानजनक है।
तब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने महाभारत के उदाहरण का हवाला देते हुए टिप्पणी की थी कि आरोपितों ने गुरु द्रोणाचार्य की तरह ही भील महिला का अनादर किया था, जिसने एकलव्य का अपमान किया था क्योंकि वह आदिवासी समुदाय से था। उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के कृत्य को गुरु दक्षिणा के रूप में एकलव्य के दाहिने अँगूठे की माँग को शर्मनाक बताया और पूछा, “गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को सिखाया भी नहीं था, तो उन्हें गुरु दक्षिणा माँगने का क्या अधिकार था।”
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, “गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य पर अपने शिष्य अर्जुन का पक्ष लिया और जानबूझकर दाहिने हाथ के अँगूठे की माँग की ताकि वह कभी भी सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर न बन सके।” पीठ ने दोहराया, “यह गुरु द्रोणाचार्य की ओर से एक शर्मनाक कार्य था।”
उस समय न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की अगुवाई वाली पीठ ने यह भी कहा था कि आदिवासी समुदाय सम्मान का पात्र है क्योंकि वे भारत के ‘मूल निवासी’ हैं। इसमें कहा गया था, “देश में आदिवासियों के प्रति लोगों की मानसिकता बदलनी चाहिए और उन्हें भारत के मूल निवासियों के रूप में वह सम्मान दिया जाना चाहिए जिसके वे हकदार हैं।” अदालत ने न्याय देते हुए इतिहास से ऐसे कई उदाहरण दिए हैं जो बताते हैं कि गैर-आदिवासी समुदाय हमेशा भारत में आदिवासी समुदाय के प्रति कठोर रहा है।
गुरु द्रोणाचार्य की गुरुदक्षिणा
एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्यों कौरवों और पांडवों के साथ जंगल में गए थे। अर्जुन, जो उस समय केवल एक बच्चा था, ने एक कुत्ते को देखा जिसके जबड़े खुले हुए थे और मुँह के अंदर तीर फँस गए थे। भले ही कुत्ते के जबड़े के अंदर तीर फँस गए हों, लेकिन अर्जुन को चोट के कोई निशान नहीं दिख रहे थे। फिर उन्होंने यह आश्चर्यजनक दृश्य अपने गुरु के ध्यान में लाया, जिन्होंने सोचा कि ऐसा कौन कर सकता है।
बाद में गुरु द्रोणाचार्य को पता चला कि एकलव्य नाम के एक आदिवासी बालक ने श्वान को निशाना बनाया था। उन्होंने एकलव्य से अपनी और अपने गुरु की पहचान प्रकट करने को कहा। एकलव्य ने कहा कि वह निषाद आदिवासी कबीले के हिरण्यधनुस का पुत्र था जो मगध साम्राज्य के प्रति वफादार थे और कहा कि उसने आपसे ही तीरंदाजी की शिक्षा ली है। उन्होंने उन्हें द्रोणाचार्य की एक मिट्टी की मूर्ति भी दिखाई और समझाया कि उन्होंने मूर्ति की अनुमति ली थी और उनके मूर्ति के सानिध्य में बैठकर ही तीरंदाजी का हुनर सीखा था।
कहते हैं कि यह सुनकर, गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य से उन्हें गुरु दक्षिणा देने के लिए कहा था क्योंकि उन्होंने उनसे सबक सीखा था। उन्होंने गुरुदक्षिणा में एकलव्य उसका अँगूठा माँग लिया था। एकलव्य ने अपने गुरु को अपना अंगूठा देने में संकोच नहीं किया था।
द्रोणाचार्य को केवल कुरु वंश परिवार के बच्चों को ही प्रशिक्षित करने के लिए एक शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया था। उस समय कुरु परिवार के सदस्यों के अलावा किसी और को शिक्षित करना भी राज्य के नियम के विरुद्ध था। इसके अलावा, एकलव्य ने द्रोणाचार्य की अनुमति के बिना सबक सीखा था। और यह सीखने के सिद्धांतों के विपरीत था। इसलिए द्रोणाचार्य ने कुरु वंश के प्रति अपनी प्रतिज्ञा का मान रखते हुए एकलव्य के अँगूठे को गुरुदक्षिणा के रूप में माँग लिया था, जिसके बिना धनुर्विद्या का अभ्यास करना असंभव होगा। दूसरी ओर, गुरु द्रोणाचार्य ने कहा कि उन्होंने एकलव्य को दंडित किया अब चाहे वह ब्राह्मण हो या क्षत्रिय हो।
साथ ही, गुरु द्रोणाचार्य जानते थे कि एकलव्य हमेशा मगध के राजा के प्रति वफादार रहेगा जो कुरु वंश हस्तिनापुर का दुश्मन था। इसलिए, वह नहीं चाहते थे कि उसके शत्रु राज्य में एकलव्य के समान धनुर्धर हो।
बता दें कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2011 के फैसले में भी राज्य सरकार को दोषियों की बढ़ी हुई सजा के लिए अपील नहीं करने के लिए फटकार लगाई थी। उच्च न्यायालय ने पहले कठोर अनुसूचित मामले और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत आरोपितों की दोषसिद्धि को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि पीड़ित महिला अपना जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं थी।
पुराने मामले में महिला के साथ हुए अन्याय से व्यथित, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “हमारे देश से प्यार करने वाले सभी लोगों का यह कर्तव्य है कि वे देखें कि अनुसूचित जनजातियों को कोई नुकसान न हो और उन्हें हर संभव मदद दी जाए। उन्हें उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति में लाने के लिए क्योंकि वे हजारों वर्षों से भयानक उत्पीड़न और अत्याचारों के शिकार हैं।”