संसदीय राजभाषा समिति की अध्यक्षता करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अंग्रेजी के विकल्प के रूप में हिंदी को अपनाने का आह्वान किया। साथ ही, उन्होंने बताया कि उत्तर-पूर्व के नौ समुदाय अपनी भाषाओं की लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपना चुके हैं। उत्तर-पूर्व के सभी आठों राज्यों ने दसवीं कक्षा तक हिंदी को अनिवार्य बनाने पर भी सहमति व्यक्त की है। अमित शाह ने यह भी कहा कि हिंदी का विकास और विस्तार भारतीय भाषाओं की कीमत पर नहीं, बल्कि अंग्रेजी के बरक्स होना चाहिए। हालाँकि, कुछ विरोधवादियों को उनकी यह बात रास नहीं आई है। इनमें तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन, ए आर रहमान और प्रकाश राज जैसे लोग शामिल हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि औपनिवेशिक हैंगओवर के शिकार ये लोग अंग्रेजी की वकालत कर रहे हैं। ए आर रहमान और प्रकाश राज जैसे ‘हिंदी की खाने वाले और अंग्रेजी की बजाने’ वालों के बयान भारत की आत्मा से न जुड़ पाने का दुष्परिणाम हैं।
अंग्रेजी से आशंकित हैं भारतीय भाषाएँ
अमित शाह का बयान इस संदर्भ में विशेष महत्व का है कि अभी देशभर में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को लागू करने के लिए जोर-शोर से काम हो रहा है। इस नीति में शिक्षा का माध्यम मातृभाषाओं या भारतीय भाषाओं को बनाने पर विशेष बलाघात है। किंतु वर्तमान शैक्षिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में यह कार्य अत्यंत चुनौतीपूर्ण है क्योंकि भारतीय भाषाएँ औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी से आशंकित, आक्रांत और असुरक्षित हैं। वह धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को लीलती जा रही है। भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल हिंदीतर 21 भारतीय भाषाओं की जगह बौद्धिक जगत में क्रमशः सिकुड़ती जा रही है। अंग्रेजी भाषा के वर्चस्व में क्रमशः बढ़ोतरी हो रही है। सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन, शासन-प्रशासन, बाजार-व्यापार के अलावा शिक्षा के माध्यम के रूप में भी अंग्रेजी ने अभूतपूर्व बढ़त बनाई है। यह आज की बड़ी चुनौती है। वर्तमान केंद्र सरकार के प्रयत्नों से हिंदी और मराठी, तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, असमिया, डोगरी, कश्मीरी और पंजाबी आदि अन्य भारतीय भाषाओं को समर्थन, सम्मान और स्वीकृति प्रदान करने से स्थिति कुछ संतुलित तो हुई है; किंतु अभी बहुत काम करने की आवश्यकता है। मातृभाषा में शिक्षण शिक्षार्थी की बौद्धिक क्षमताओं के अधिकतम विकास और भारतीय भाषाओं के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण भी है। यह भारत को वैश्विक ज्ञान शक्ति अर्थात विश्वगुरू बनाने की महत्वाकांक्षी परियोजना की आधारशिला है। भारत के सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठा का प्रस्थान-बिंदु भारतीय भाषाओं का पारस्परिक संपर्क, संवाद और संगठन है।
अंग्रेजी वर्चस्ववाद से निपटने के लिए भारतीय भाषाओं को एक-दूसरे के निकट आने की आवश्यकता है। उनके आपसी अपरिचय और अलगाव को मिटाने की दिशा में प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाओं के विकास, प्रचार-प्रसार और आपसी संपर्क-संवाद में देवनागरी लिपि की निर्णायक भूमिका हो सकती है। तमाम भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठतम साहित्य को देवनागरी लिपि में लिप्यान्तरित करके बहुसंख्यक और व्यापक हिंदी समाज तक लाने की जरूरत है। सभी भारतीय भाषाओं द्वारा राष्ट्रलिपि या संपर्क लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने की बात राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, महर्षि दयानंद सरस्वती, महात्मा गाँधी, आचार्य विनोबा भावे, कृष्णस्वामी आयंगर, मुहम्मद करीम छागला और बिनेश्वर ब्रह्म जैसे अनेक महापुरुषों ने समय-समय पर की है। आज संकीर्ण राजनीति और क्षेत्रवादी अस्मिताओं से ऊपर उठकर उनके उस स्वप्न को साकार करने की दिशा में आगे बढ़ने का समय है। ‘देवनागरी के नवदेवता’ बिनेश्वर ब्रह्म ने तो इस स्वप्न के लिए ही अपना प्राणोत्सर्ग भी किया था।
एक लिपि होने से क्या होगा फायदा
भारतीय भाषाओं की एक लिपि होने से उनके बीच का अपरिचय, अविश्वास और दूरी मिटेगी। वे एक-दूसरे के अधिक निकट आ सकेंगी। उनके बीच अधिक आत्मीयता पैदा होगी और उनमें बहनापा बढ़ेगा। यह एक दूरगामी महत्व की परियोजना है। संस्कृत से उद्भूत भारतीय भाषाओं और लिपि-हीन भाषाओं एवं बोलियों की लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाकर यह शुरुआत की जा सकती है। आज जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्व, अंडमान-निकोबार और गोवा आदि की अनेक ऐसी भाषाएँ एवं बोलियाँ हैं जो लिपि न होने के अभाव में अस्तित्वसंकट से जूझ रहीं हैं। इन क्रमशः विलुप्त हो रही भाषाओं में श्रुत/मौखिक साहित्य की अत्यंत समृद्ध परम्परा रही है। उस दुर्लभ साहित्य को न सिर्फ संरक्षित करने की आवश्यकता है; बल्कि उसे अब तक अपरिचित रहे व्यापक समाज के बीच ले जाने की भी आवश्यकता है। नयनार-आलवार संतों के साहित्य, जयदेव के गीतगोविन्दं, नानकदेव की गुरुवाणी, शंकरदेव के पदों, लल्लेश्वरी के बाख़, तुलसीदास की रामचरितमानस और गुरुदेव की गीतांजलि को हर साक्षर भारतीय को पढ़ना चाहिए। इससे सामाजिक निकटता और सांस्कृतिक प्रगाढ़ता बढ़ेगी।
तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम आदि जिन भारतीय भाषाओं की अपनी पृथक लिपि है; उनकी सह-लिपि के रूप में देवनागरी लिपि को अपनाने से अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संकीर्णताओं का निदान हो सकता है। भारत की भाषानीति लम्बे समय से चर्चा और चिन्तन का केंद्र रही हैI भारत बहुभाषिक, बहुलिपिक देश है। लेकिन इस बहुलता के बावजूद भारतीयता की अंतर्धारा उसे उसकी सबसे बड़ी विशिष्टता है। भारतीयता की इस अंतर्धारा को और अधिक पुष्ट करने में राष्ट्रभाषा हिंदी की तरह ही राष्ट्रलिपि देवनागरी लिपि की बड़ी भूमिका हो सकती है। तमाम विरोध और संकीर्ण राजनीति को पीछे छोड़ते हुए आज हिंदी देश की स्वाभाविक संपर्क भाषा बन गई है। वह राष्ट्रीय एकीकरण की भी संवाहिका है। इसी प्रकार देवनागरी लिपि को समस्त भारत की संपर्क लिपि बनाने हेतु देशवासियों को संगठित और सक्रिय होना चाहिए। भाषा विशेष की विशिष्ट ध्वनियों को समायोजित करने के लिए देवनागरी लिपि में आंशिक संशोधन/परिवर्द्धन भी किया जा सकता है। देवनागरी लिपि को लचीलापन और उदारता दिखानी चाहिए ताकि अधिकाधिक भारतीय भाषाओं के साथ उसकी सहज निकटता और आत्मीयता स्थापित हो सके।
तमाम भाषाशास्त्री भाषा-शिक्षण के अंतर्गत चार भाषिक कौशलों का उल्लेख करते हैं-सुनना,बोलना,लिखना और पढ़ना। सुनना और बोलना नामक दो भाषिक कौशल भाषा-अधिगम का प्रथम चरण हैं; जबकि लिखना और पढ़ना द्वितीय चरण माने जाते हैं। भाषा-अधिगम के द्वितीय चरण का सम्बन्ध लिपि से है। भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि को अपनाकर भाषा अधिगम की जटिल प्रक्रिया को बहुत सरल और सर्वसाध्य बनाया जा सकता है। ऐसा करके सिर्फ प्रथम चरण के साथ ही नई-नई भाषाओं को सीखा जा सकेगा। द्वितीय चरण के मुश्किल होने के कारण ही किसी भी भाषिक समुदाय में प्रथम चरण में दक्ष अर्थात सुनने-बोलने वाले लोग द्वितीय चरण में दक्ष अर्थात लिखने-पढ़ने वालों की तुलना में बहुत अधिक होते हैं। प्रथम चरण भी काफी आसान हो जाएगा क्योंकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक भारतीय भाषाओं के सांस्कृतिक सन्दर्भ और शब्दावली काफी मिलती-जुलती है। इसका मूल कारण यह है कि अनेक भारतीय भाषाओं की व्युत्पत्ति वेदभाषा संस्कृत से हुई है। यह भारतीयों को बहुभाषिक बनाने की भी कुंजी है। शिक्षित भारतीय अनेक भाषाओं को आसानी से पढ़-लिख सकेगा और उनके समृद्ध साहित्य, अन्तर्निहित सांस्कृतिक परम्पराओं से परिचित हो सकेगा। उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि भारतीय भाषाएँ परस्पर प्रतिस्पर्धी नहीं, बल्कि संपूरक हैं। देवनागरी लिपि को अपनाने से यह पस्परता और संपूरकता क्रमशः बढ़ेगी। भारतीय भाषाओं में शत्रुता नहीं, मैत्री और लेन-देन जरूरी है।
हिंदी के साथ जुड़कर समृद्ध होंगी भारतीय भाषाएँ
अरब जगत की अधिकांश भाषाओं की लिपि अरबी और यूरोप-अमेरिका की अनेक भाषाओं की लिपि रोमन है। इसलिए उनमें न सिर्फ बेहतर सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद है, बल्कि व्यापार और पर्यटन भी खूब फल-फूल रहा है। आज बाज़ार और भाषा का अन्यान्योश्रित सम्बन्ध है। भाषा के माध्यम से बाजार का विस्तार होता है और बाजार के द्वारा भाषा का प्रचार-प्रसार होता है। इसीलिए हिंदी का इतना विकास और विस्तार हो रहा है। अन्य भारतीय भाषाएँ देवनागरी लिपि के माध्यम से अपनी बड़ी बहन हिंदी के साथ जुड़कर न सिर्फ सांस्कृतिक रूप से समृद्ध होंगी; बल्कि रोजगार, व्यापार और पर्यटन क्षेत्र में भी अपनी जगह बना सकेंगी। बड़े बाजार की भाषा होने से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषा की पहचान और पूछ बढ़ती है। वह अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को प्रभावित करते हुए विदेश-नीति निर्धारण में निर्णायक हस्तक्षेप कर सकती है। अंग्रेजी के भाषिक आतंकवाद से निपटने के लिए भारतीय भाषाएँ साझा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, समान शब्दभंडार और देवनागरी लिपि के आधार पर एक संयुक्त मोर्चे का निर्माण कर सकती हैं। डोगरी भाषा की मूल लिपि टाकरी और कश्मीरी भाषा की शारदा थी। लेकिन समयांतराल में डोगरी ने देवनागरी और कश्मीरी ने नस्तालिक को अपना लिया। आज डोगरी हिंदी समाज द्वारा भी पढ़ी-समझी जाती है। लेकिन कश्मीरी भाषा क्रमशः सिमट-सिकुड़ रही है। वह भी देवनागरी को अपनाकर अपना हिंदी और भारतीय भाषाओं से जुड़ सकती है। अपना विकास और विस्तार कर सकती है। यूँ भी देवनागरी लिपि उसकी मुललिपि शारदा से ही विकसित हुई है। अतः स्वाभाविक रूप से उसकी लिपि देवनागरी लिपि ही होनी चाहिए।
यह किसी भी भारतीय भाषा या उसकी लिपि को खत्म करने या उसकी जगह को हड़पने की योजना नहीं; बल्कि भारतीय भाषाओं की आपसी समझदारी, साझेदारी और बहनापे को बढ़ाने की परियोजना है। इस परियोजना से किसी भी भारतीय भाषा को कोई खतरा नहीं होगा। अगर किसी को खतरा होगा तो औपनिवेशिक वर्चस्ववाद को ही होगा। रोमन लिपि के भारतीय भाषाओं की लिपि बन बैठने से पहले ही हमें इस खतरे से निपटने की दिशा में सक्रिय पहल करनी चाहिए। राजनीति जोड़-तोड़ का काम है। इसलिए वह जोड़ती भी है और तोड़ती भी है। लेकिन संस्कृति अगर वह वास्तव में संस्कृति है तो जोड़ती ही जोड़ती है। इसलिए इस परियोजना को फलीभूत करने का उत्तरदायित्व राजनेताओं से ज्यादा संस्कृतिकर्मियों का है। उन्हें आगे आकर और एकमत होकर राष्ट्रीय एकीकरण और भाषा संरक्षण की इस परियोजना में योगदान देना चाहिए।
(लेखक जम्मू केन्द्रीय विश्वविद्यालय के भाषा संकाय के अधिष्ठाता हैं।)