नब्बे का दशक था। तब क्रिकेट की दुनिया में कुछ ही टीमों का दबदबा था। जिन टीमों का सिक्का चलता था, उनके साथ कुछ चलन भी मशहूर थे – कुछ अच्छे तो कुछ बुरे। उस दौर का एक ऐसा ही चलन था ‘स्लेजिंग’। जिन क्रिकेट टीमों का दबदबा था, हर वह टीम स्लेजिंग में पारंगत थी। स्लेजिंग का हासिल भले कुछ नहीं था लेकिन विरोधी टीम पर दबाव खूब बनता था।
नब्बे के एक दशक बाद का सीन – ऑस्ट्रेलियाई टीम मैदान में सामने वाली किसी भी टीम पर दबाव बना लेती थी। मैच के हर अहम पड़ाव पर उनकी टीम का कोई न कोई खिलाड़ी स्लेजिंग शुरू कर देता था। जिससे उनके विरुद्ध खेलने वाले खिलाड़ी पर भरपूर दबाव बने। उस दौर में भारतीय क्रिकेट टीम अपने नवीनीकरण के दौर से गुज़र रही थी, फिक्सिंग के मामलों से बाहर आई भारतीय क्रिकेट टीम के मुखिया बने थे सौरव गांगुली उर्फ़ ‘दादा’।
एक समय के बाद दादा ने किसी भी टीम को भारतीय टीम पर हावी होने का मौक़ा नहीं दिया था। दादा की अगुवाई में टीम ने एक हुनर बखूबी सीखा कि मानसिक दबाव में रहते हुए कैसे बेहतर प्रदर्शन करना है। इस बात की तस्दीक करनी हो तो युवराज, हरभजन, सहवाग, कैफ और ज़हीर जैसे किसी भी खिलाड़ी की दादा पर राय सुनिए। ऐसी बातों का उल्लेख करते हुए साल 2002 के दौरान लॉर्ड्स में हुआ भारत और इंग्लैंड का मुकाबला कैसे भूला जा सकता है?
इस जीत को भारतीय क्रिकेट टीम के इतिहास में सबसे यादगार क्षणों में एक माना जाता है। 13 जुलाई साल 2002 को हुए इस मुकाबले में इंग्लैंड मेज़बान था। इंग्लैंड की टीम ने पहले बल्लेबाजी करते हुए भारतीय टीम को 325 रनों का लक्ष्य दिया था। भारतीय टीम ने लक्ष्य पूरा किया जबकि एक समय पर टीम 146 रन बना कर 5 विकेट खो चुकी थी। भले गांगुली और सहवाग ने टीम को अच्छी शुरुआत दी थी लेकिन बीच में पूरी टीम लड़खड़ा गई थी।
लॉर्ड्स की बालकनी में बैठ कर सभी मैदान की तरफ निगाहें गड़ाए हुए थे और जैसे ही भारत ने लक्ष्य पूरा किया, हज़ारों की भीड़ के सामने दादा ने टी शर्ट उतार कर लहरा दी। फिरंगी धरती पर हुए इस मुकाबले के ज़रिए यह संदेश भी दिया कि इस भारतीय टीम का मिज़ाज कुछ और है। काफी लोग इस कदम को विवादित भी मानते हैं लेकिन उस वक्त के लिए जीत पर जज़्बात हावी थे, सिर्फ दादा के नहीं बल्कि क्रिकेट पसंद करने वाले हर इंसान के ज़हन पर। भारतीय क्रिकेट टीम को दादा की तरफ से मिला स्वभाव का यह हिस्सा भुलाया नहीं जा सकता है।
नैटवेस्ट ट्रॉफ़ी के बाद भारतीय टीम कुछ ऐसी बदली कि पीछे मुड़ कर नहीं देखा। इसके बाद चाहे पाकिस्तान का दौरा रहा हो, इंग्लैंड का दौरा रहा हो या ऑस्ट्रेलिया का दौरा रहा हो, भारतीय क्रिकेट टीम दादा के कलेवर में ही नज़र आई। सौरव गांगुली ने भारतीय क्रिकेट टीम को जो दिया, 2007 का T-20 विश्व कप और 2011 का विश्व कप उसका ही नतीजा है।
बेशक आज भारतीय टीम जितनी मज़बूत नज़र आती है, उसके पीछे तमाम लोगों का योगदान है। लेकिन दादा के हिस्से का संघर्ष सबसे पहले देखा और सुना जाएगा। आखिर ऐसा कप्तान शायद ही नज़र आए, जिसने गोरों की ज़मीन पर भारतीय टीम की टी-शर्ट लहराई हो। वाकई टाइगर दो ही तरह के होते हैं, पहले जंगल में और दूसरे 22 गज की पिच पर।