समाज में महिलाओं की स्थिति और उनके विकास का आँकलन हमेशा से तरह-तरह के सर्वेक्षणों से होता आया है। सरकार अपनी ओर से तमाम योजनाएँ लागू करके स्थिति सुधारने के प्रयास करती है, मगर उनसे जमीनी बदलाव कितना आता है ये जब आँकड़े दिखते हैं तभी पता चलता है। जाहिर है ये निष्कर्ष सटीक नहीं होते। मगर इनके तुलनात्मक अध्य्यन से ये अंदाजा जरूर लग जाता है कि हमारा समाज और हमारे समाज की महिलाएँ किस गति से आगे बढ़ने या पिछड़ने की कगार पर हैं।
हाल में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS 5) द्वारा जारी रिपोर्ट ने भी एक ऐसी तस्वीर दिखाई है। रिपोर्ट में बताया गया कि कैसे महिलाओं की लिटरेसी रेट, फर्टिलिटी रेट में तो पिछले कुछ सालों में बदलाव आया है, मगर आज भी उनके खिलाफ होने वाली हिंसा थमी नहीं है। घर-परिवार में उसका शोषण जारी है और सबसे ज्यादा महिलाओं का शोषण करने वाला कोई बाहर का नहीं, बल्कि अपना पति है।
आइए इन सभी बिंदुओं पर चर्चा करें और रिपोर्ट में दिए आँकड़ों से समझें समाज में महिलाओं की हालत…
सबसे पहले बात शिक्षा पर। एक तरह से देखा जाए तो समाज हित में महिला शिक्षा को बढ़ावा देने का काम हमेशा से होता आया। मगर इसे लेकर जागरूकता उतनी सक्रियता से नहीं फैलाई गई जितनी जरूरत थी। इसकी महत्वता से जन-जन को अवगत कराने के लिए साल 2015 में मोदी सरकार ने बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना, एक अभियान की तरह चलाई और नतीजा क्या रहा ये एनएफएचएस के आँकड़ों में नजर आता है।
NFHS की इस हालिया रिपोर्ट के अनुसार, साल 2015-16 के बाद पुरुषों के साथ-साथ 15-49 उम्र वाली उन महिलाओं की संख्या में औचक वृद्धि हुई जिन्होंने अपनी स्कूल की शिक्षा पूरी की और उस शिक्षा क्षेत्र में अपने दर को ऊपर बढ़ाया। इन वर्षों में स्कूल न जाने वाली महिलाएँ 5 फीसद घटीं जबकि विद्यालय न जाने वाले पुरुषों की गिनती केवल 2 फीसद घट पाई। इतना ही नहीं 12 साल तक स्कूली शिक्षा लेने वाली महिलाएँ भी इस अंतराल में 4 फीसद बढ़ीं और पुरुषों में 3 फीसद सुधार आया।
इसी तरह शहरी और ग्रामीण महिलाओं की शिक्षा को अगर देखें तो अब भी वहाँ 27 फीसद महिलाएँ ऐसी बची हैं जिन्होंने कभी स्कूल का चेहरा नहीं देखा जबकि शहर में ये संख्या 13 फीसद की है। आँकड़े बताते हैं कि गाँव की भी 20 फीसद महिलाएँ अब ऐसी हो चुकी है जो 12वीं तक शिक्षा पूरी कर रही हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, महिलाओं के शिक्षा दर में सुधार होने का परिणाम रोजगार स्तर पर भी देखने को मिलता है। साल 2015-16 के बाद महिलाओं में रोजगार करने का आँकड़ा 24 फीसद बढ़ा जो 2019-21 की रिपोर्ट के मुताबिक भी 25 फीसद तक है।
कुल भारत की बात करें तो महिलाओं की शिक्षा का दर 71.5 फीसद है। 26.9% ऐसी महिलाएँ हैं जिन्होंने 12 साल शिक्षा को पूरे दिए। 15.2% ऐसी महिलाएँ हैं जो 10-11 साल पढ़ सकीं। 8-9 साल पढ़ने वाली महिलाएँ 17.8% हैं, 5-7 वर्ष पढ़ने वाली औरतों का प्रतिशत 13.4 है और स्कूल कभी न जाने वाली अब भी 22.6% महिलाएँ है।
फर्टिलिटी रेट (बच्चे को जन्म देने की दर)
बता दें कि जिस प्रकार देशहित के लिए महिलाओं की शिक्षा का ग्राफ लगातार ऊपर उठना महत्वपूर्ण है उसी प्रकार बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित करना भी समय की माँग है। सरकार कई प्रयास करके इसकी जरूरत जन-जन समझा रही है। ऐसे में महिलाओं का फर्टिलिटी रेट ये बताता है हम इस राह पर आगे बढ़ने को कितने प्रतिबद्ध है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं का फर्टिलिटी रेट समय के साथ कम हुआ है। जो दर 1992-93 में 3.7 फीसद था वो अब 2019-21 में 2.1 रह गया है। ग्रामीण महिलाएँ भले ही अब भी शहरी महिलाओं के मुकाबले ज्यादा बच्चों को जन्म देती हैं मगर पहले के मुकाबले यहाँ भी फर्टिलिटी रेट घटा है। 1992-1993 में ये 2.7 फीसद था जो अब 1.6 रह गया है।
आपको बता दें कि NFHS की ये रिपोर्ट आने के बाद मीडिया में ये चर्चा और भी गर्म है कि कैसे कुछ सालों में मुस्लिम महिलाओं का फर्टिलिटी रेट घट गया है जबकि ओरिजनल रिपोर्ट देखें तो पता चलता है कि ये तुलना वर्गों को लेकर नहीं बल्कि मुस्लिम महिलाओं से जुड़े पहले के आँकड़ों पर है। वर्तमान के नंबर तो यही बताते हैं कि अब भी मुस्लिम महिलाएँ अन्य वर्ग की महिलाओं के मुकाबले सबसे ज्यादा बच्चों को जन्म देती हैं। लेकिन हाँ! उन्हें लेकर जो दर 2015-16 में 2.62 थी वो अब 2.36 रह गई है। रिपोर्ट के अनुसार अपेक्षित दर का आँकड़ा कोई भी समुदाय की महिलाएँ नहीं छू पाई हैं। हिंदुओं और ईसाइयों में ये दर 1.9 है, मुस्लिमों में 2.4, सिखों में 1.6, बौद्धों में 1.4, जैनों में 1.6 है और अन्य में फर्टिलिटी रेट 2.1 है।
मुस्लिम महिलाएँ (64%) अब भी सबसे कम हैं जो चाहती हैं कि वो दोबारा बच्चा न पैदा करें जबकि अधिकांश सिख (72%) और हिंदू महिलाएँ (71%) अधिक बच्चों के खिलाफ हैं। रिपोर्ट ये भी दिखाती है कि शिक्षा के बढ़ते ग्राफ के कारण फर्टिलिटी रेट में पहले से कम हुआ है। स्कूल न जाने वाली महिलाओं में जहाँ बच्चे को जन्म देने की दर 2.2 पाई गई है। वहीं 12 वर्ष शिक्षा पाने वाली महिलाएँ में ये दर 1.6 की है।
महिला विरोधी हिंसा
उल्लेखनीय है कि देश में महिलाओं को सशक्त बनाने के क्रम में उन्हें शिक्षित करने के पुरजोर प्रयास हो रहे हैं। उन्हें तकनीक से जोड़ने की अपार कोशिशें की जा रही हैं। उनके कौशल को बाहर लाने के लिए सरकारी योजनाएँ चल रही हैं। स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों से छुटकारा दिलाने के लिए अभियान चला चला कर जागरूकता फैलाई जा रही है लेकिन इन सबके बीच समाज की कड़वी सच्चाई ये है कि घरेलू स्तर पर महिलाएँ अब भी हाशिए पर हैं। उनके खिलाफ होने वाली हिंसा जारी है। सर्वे के अनुसार 18 से 49 साल की उम्र वाली शादीशुदा महिलाओं में 32 फीसदी फिजिकली, सेक्सुअली और इमोशनली पार्टनर की हिंसा का शिकार होती हैं। इसमें सबसे ज्यादा फिजिकल वायलेंस होता है। इस हिंसा में धक्का-मुक्की, सामान फेंकना, कलाई मरोड़ना, झापड़ मारना, किसी चीज से हमला करना, मुक्के मारना, खींचतान, गला दबाना, जलाने की कोशिश करना, चाकू-बंदूक जैसे जानलेवा हथियारों से हमला करना, बिन मर्जी के सेक्स करना, सेक्स के दौरान ऐसी गतिविधियाँ करवाना जो महिला की इच्छा के विरुद्ध हो, सेक्स के दौरान उसे बाँधना, मारना आदि शामिल है।
एनएफएचएस की रिपोर्ट बताती है कि फिजिकल वायलेंस का सबसे ज्यादा शिकार ग्रामीण महिलाएँ होती हैं वो भी उस श्रेणी की महिलाएँ जो शिक्षा से अछूती रहती हैं। सर्वे दर्शाता है कि महिलाओं पर हाथ अब भी ज्यादातर मामलों में पति द्वारा ही उठाया जाता है। बस शिक्षा के हिसाब से इनके आँकड़े ऊपर नीचे होते हैं। जैसे जिन्होंने स्कूल जाकर 12 साल शिक्षा ली है उनमें से 21% पुरुष ऐसी हिंसा करते हैं जबकि स्कूल नहीं गए 43% अपनी पत्नियों पर हाथ उठाते हैं। सर्वे ये भी बताता है 70% महिलाएँ हैं जिनके पति शराब पीते हैं और उन्हें शारीरिक या यौन हिंसा का शिकार होना पड़ता है जबकि 23 % वो महिलाएँ भी हैं जिनके पति नशा नहीं करते मगर फिर भी हिंसक हैं।