वर्ष 1999 में भारतीय सेना ने पाकिस्तान की घुसपैठिया सेना को हरा कर कारगिल विजय हासिल की थी। कारगिल, द्रास, मशकोह, बटालिक जैसी अति दुर्गम घाटियों में पाकिस्तान की सेना से लड़ते हुए भारतीय सेना (वायुसेना समेत) के 527 जवान वीरगति को प्राप्त हुए थे। इन्हीं में से एक नाम है इस विजय की नींव रखने वाले कैप्टन मनोज पांडे का, जिनकी कारगिल युद्ध में दिखाई गई बहादुरी के किस्से हर किसी के रोंगटे खड़े कर देते हैं।
एनडीए के इंटरव्यू में ही परमवीर चक्र पाने का सपना देखकर भारतीय सेना में शामिल होने वाले जाँबाज मनोज पांडे ने ना केवल यह सम्मान हासिल किया, बल्कि देश की एक बड़ी विजय के सूत्रधार भी बने। हालाँकि जब परमवीर चक्र मिला तो उसे लेने के लिए वे स्वयं मौजूद नहीं थे। उनके पिता श्री गोपी चंद पांडे ने 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन से सम्मान ग्रहण किया। मनोज को भगवद् गीता पढ़ना और बाँसुरी बजाना भी बहुत पसंद था। उनके बक्से में बाँसुरी हमेशा रहती थी।
“मेरा बलिदान सार्थक होने से पहले अगर मौत दस्तक देगी तो संकल्प लेता हूँ कि मैं मौत को मार डालूँगा।”
ये शब्द उस योद्धा कैप्टन मनोज कुमार पांडे के थे जिसने मात्र 24 साल की उम्र में ही कारगिल युद्ध में देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। वीरगति को प्राप्त होने से पहले ही वो कारगिल जंग की जीत की बुनियाद रख चुके थे।
घर जाना था पर कारगिल से आया बुलावा
गोरखा रेजीमेंट के कैप्टन मनोज कुमार पांडे सियाचिन में तैनाती के बाद छुट्टियों पर घर जाने की तैयारी में थे। अचानक 2-3 जुलाई की रात उन्हें बड़े ऑपरेशन की जिम्मेदारी सौंपी गई। खालुबार टॉप सामरिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण इलाका था। यह जगह पाकिस्तानी सैनिकों के लिए एक तरह का कम्यूनिकेशन हब भी था। भारतीय सेना का मानना था कि अगर वहाँ से पाकिस्तानी सैनिक खदेड़ दिए जाएं तो उनके अन्य ठिकाने भी मुश्किल में पड़ जाएँगे। इससे उन्हें वापस भागने में भी समस्या होगी।
खालुबार पोस्ट सबसे मुश्किल लक्ष्य
कैप्टन मनोज कुमार पांडे को खालुबार पोस्ट फतह करने की जिम्मेदारी मिली। रात के अंधेरे में मनोज कुमार पांडे अपने साथियों के साथ दुश्मन पर हमले के लिए कूच कर गए। दुश्मन ऊँचाई पर छिपा बैठा था और नीचे के हर मूवमेंट पर नजर रखे हुए था। वहाँ से वे रॉकेट लाँचर और ग्रेनेड लाँचर का इस्तेमाल कर रहे थे।
भारतीय सैनिकों के ऊपर लगभग 60-70 मशीनगन लगातार फायरिंग कर रहीं थीं। साथ ही गोले भी बरस रहे थे। जिस कारण यह बिल्कुल भी आसान लक्ष्य नहीं था। एक बेहद मुश्किल जंग के लिए मनोज कुमार अपनी टुकड़ी के साथ आगे बढ़ रहे थे। इस दौरान कैप्टन मनोज पांडे के साथ रहे सैनिक बताते हैं कि ठण्ड में राइफ़ल के ब्रीचब्लॉक को जाम होने से बचाने के लिए वे उसे अपने ऊनी मौजे से ढक कर आगे बढ़ रहे थे ताकि वो गरम रहे।
सिर्फ 4 बंकर का था अंदाजा, लेकिन...
पाकिस्तानी सेना को मनोज पांडे के मूवमेंट का जैसे ही पता चला उसने ऊँचाई से फायरिंग शुरू कर दी। लेकिन फायरिंग की परवाह किए बिना कैप्टन मनोज काउंटर अटैक करते और हैंड ग्रेनेड फेंकते हुए आगे बढ़ते गए। सबसे पहले उन्होंने खालुबार की पहली पोजीशन से दुश्मन का सफाया करने का प्लान बनाया। सेना वहाँ पर मात्र चार बंकर होने का अंदाजा लगाकर चल रही थी, लेकिन मनोज ने ऊपर जा देखा तो 6 बंकर थे। हर बंकर से दो-दो मशीनगन भारतीय सेना के ऊपर फायरिंग कर रही थी। थोड़ी दूरी पर स्थित दो बंकरों को उड़ाने के लिए मनोज ने हवलदार दीवान को भेजा। दीवान ने उन बंकरों को तबाह कर दिया। लेकिन इस बीच गोली लगने से वे वीरगति को प्राप्त हो गए।
IMA देहरादून में प्रशिक्षण के दौरान मनोज पांडे
बंकर को उड़ाने का मात्र एक ही तरीका होता है कि उसके लूप होल में ग्रेनेड डालकर उसमें बैठे लोगों को ख़त्म किया जाए। बाकी के 4 बंकरों को ठिकाने लगाने के लिए मनोज पांडे और उनके साथी ज़मीन पर रेंगते हुए बंकरों के पास पहुँच गए। इसके बाद कैप्टन मनोज ने एक-एक कर 3 बंकर ध्वस्त किए, लेकिन चौथे बंकर में ग्रेनेड फेंकते वक़्त उनके शरीर के बाँए हिस्से में कुछ गोलियाँ लगीं, जिससे वो लहूलुहान हो गए।
गोली लगने के बाद जब मनोज पांडे को उनके साथियों ने वहीं रुकने को कहा तो उन्होंने जवाब दिया ‘उन्हें अपने अधिकारियों को आखिरी बंकर को ध्वस्त करने के बाद विजयी निशान दिखाना है’। लहूलुहान होने के बावजूद उन्होंने बंकर में ग्रेनेड फेंकने की कोशिश की। पाकिस्तानी सैनिकों ने उन्हें देख लिया और फायरिंग शुरू कर दी। मनोज पांडे के सिर में 4 गोलियाँ लगी जिससे उनके सर का एक हिस्सा गायब हो गया। लेकिन इसी दौरान अन्य भारतीय सैनिक उस बंकर को तबाह करने में सफल रहे।
मनोज पांडे एक बंकर से दूसरे बंकर अटैक करते हुए आगे बढ़ रहे थे। शरीर से ज्यादा खून बह जाने की वजह से वे अंतिम बंकर पर पस्त पड़ गए। उनके आँखें बंद करने से पहले खालुबार पोस्ट पर तिरंगा लहरा रहा था। जब मनोज पांडे को गोलियाँ लगीं, तब उनकी उम्र मात्र 24 साल और 7 दिन थी।
यकीनन वो अपनी कही हुई बात के साथ ही विदा हुए। हमेशा के लिए आँखें बंद करने से पहले ही वो अपने फर्ज को पूरा कर चुके थे, उन्होंने लहूलुहान शरीर से ही आखिरी बंकर को उड़ाने का हौसला दिखाया।
लखनऊ शहर के गोमती नगर इलाके में मनोज पांडे चौराहे पर लगी प्रतिमा
मरने से पहले उनके अंतिम शब्द थे- ‘ना छोड़नू’। इस नेपाली भाषा का हिंदी में अर्थ होता है- “उन्हें मत छोड़ना।” जब कैप्टन मनोज ने आखिरी साँस ली, तब उनके पास उनकी खुखरी, काले रंग की डिजिटल घड़ी और एक बटुआ था। उस बटुए में 156 रुपए थे।
इस पूरे मिशन का नेतृत्व कर रहे कर्नल ललित राय के पैरों में भी गोली लगी थी। कर्नल रॉय ने जब खालुबार पर भारतीय झंडा फहराया, तो उस समय उनके पास मात्र 8 जवान ही शेष थे, बाकी लोग या तो बलिदान हो चुके थे, या फिर घायल थे। जब-जब भारतीय सेना के वीरों का जिक्र होगा, ‘बटालिक के हीरो’ (Hero of Batalik) मनोज कुमार पांडे याद आएँगे।