वेदवर्धन तीर्थ स्वामी के तौर पर नामित 16 वर्षीय स्वामी अनिरुद्ध सरलथया उडुपी के शिरूर मठ के पीठाधिपति बने रहेंगे। कर्नाटक हाई कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका खारिज कर दी है। अदालत ने बुधावार (29 सितंबर 2021) को बाल संन्यास की वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि 18 वर्ष से पहले किसी व्यक्ति के संन्यास ग्रहण करने पर न तो धर्म प्रतिबंध लगाता है और न ही संविधान में इस पर प्रतिबंध है।
कार्यवाहक चीफ जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा और जस्टिस सचिन शंकर मखदूम की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाया। अदालत ने कहा, “संन्यास/भिक्षा दिए जाने की उम्र को लेकर कोई नियम नहीं है। 18 साल से कम उम्र के व्यक्ति के संन्यास दीक्षा पर रोक लगाने को लेकर कोई कानून भी नहीं है। एमिक्स क्यूरी की दलीलों से यह भी स्पष्ट है कि धर्म 18 साल की उम्र से पहले संन्यासी बनने की अनुमति देता है। अन्य धर्मों में भी मसलन बौद्ध धर्म में कम उम्र के बच्चे भिक्षु बनते रहे हैं।”
अदालत ने इस याचिका के निपटारे के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता एसएस नागानंद को एमिकस क्यूरी के रूप में नियुक्त किया था। याचिका शिरूर मठ भक्त समिति (उडुपी) के सचिव और प्रबंध न्यासी पीएल आचार्य तथा अन्य पदाधिकारियों की ओर से दायर की गई थी।
याचिका में बाल संन्यास को बाल श्रम के समान बताते हुए कहा था कि यह नाबालिग को ‘भौतिक जीवन के परित्याग’ के लिए मजबूर करता है। यह संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार का उल्लंघन है। लिहाजा नाबालिग का मुख्य पुजारी के तौर पर अभिषेक करना उसे वह करने के लिए मजबूर करने के समान जो उसकी उम्र के अनुकूल नहीं है।
एमिकस क्यूरी ने अदालत को बताया कि मुख्य पुजारी का 18 वर्ष से कम होना महज संयोग है। बाल संन्यास ग्रहण करने को लेकर उम्र की सीमा नहीं और न यह बच्चे पर संन्यास थोपने जैसा है। दीक्षा लेने वाला व्यक्ति और उसके माता-पिता की सहमति के बगैर संन्यास की दीक्षा नहीं दी जाती है। अदालत ने उनके तर्कों को मानते हुए बाल संन्यास को वैधानिक माना। इससे पहले इस मामले की सुनवाई के दौरान पीठ ने शंकराचार्य के 12 साल की उम्र में स्वामी बनने का भी हवाला दिया था। राज्य सरकार के वकील ने भी इस याचिका को सुनवाई के योग्य नहीं बताते हुए विरोध किया था। उल्लेखनीय है कि शिरूर मठ के प्रमुख श्री लक्ष्मीवरा तीर्थ स्वामी का 2018 में निधन हो गया था।