पालघर में दो साधुओं की हत्या ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। जिस निर्मम तरीके से साधुओं को पीटा गया और पुलिस ने उनकी मदद करने से इनकार कर दिया, उससे पूरा देश अचंभित है। जिस क्रूरता के साथ इस भयानक घटना को अंजाम दिया गया, ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि जब देश को इस तरह की दुखद घटना देखने को मजबूर किया गया हो। आज से 38 साल पहले पालघर से भी अधिक एक क्रूर घटना घटी थी। उस घटना को वर्षों से बिजोन सेतु नरसंहार (Bijon Setu Massacre) के रूप में जाना जाता रहा है।
30 अप्रैल 1982 को कोलकाता में बॉलीगंज (Ballygunge) के निकट दिनदहाड़े हिंदू संगठन आनंद मार्ग के 16 भिक्षुओं और एक साध्वी की निर्मम तरीके से हत्या कर उन्हें आग में फेंक दिया गया था। उन्हें उनकी टैक्सियों से उस समय बाहर खींच लिया गया था, जब वे कोलकाता के तिलजला स्थित अपने मुख्यालय में आयोजित एक शैक्षिक सम्मलेन में भाग लेने जा रहे थे।
हत्याओं को तीन अलग-अलग स्थानों पर अंजाम दिया गया था। इतना ही नहीं, इन घटनाओं को अपनी आँखों से एक दो नहीं बल्कि हजारों लोगों ने देखा था, इसके बावजूद भी आज तक एक की भी गिरफ्तारी नहीं हो सकी। जबकि 2012 में ही पश्चिम बंगाल सरकार ने इन हत्याओं की जाँच के लिए एकल सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया था।
इन हत्याओं के तत्काल बाद के वर्षों में माकपा सरकार ने इस मामले से संबंधित तथ्यों को छिपाना जारी रखा। वहीं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने 1996 के अंत में इस मामले की जाँच बिठाई थी, लेकिन ज्योति बसु और उनकी सरकार के सहयोग न मिलने के कारण यह जाँच आगे नहीं बढ़ सकी। इतना ही नहीं, मई 1999 तक दो रिमांडर भेजे गए, लेकिन राज्य सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया।
इस बीच पश्चिम बंगाल के एक आईएएस अधिकारी शेर सिंह ने इस मामले से संबंधित दस्तावेजों के साथ तथ्यों को सामने लाने की पेशकश की थी। दरअसल भिक्षुओं के नरसंहार के समय शेर सिंह 24 परगना के अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट थे। सिंह ने केंद्रीय प्रशासन न्यायाधिकरण (CAT) में लगाई अपनी याचिका (1994 की संख्या-1108) में आरोप लगाया था कि उन्हें इस बात के लिए निलंबित कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने मामले पर कम्युनिस्ट सरकार की बातों को मानने से इनकार कर दिया था।
शेर सिंह ने कैट को सूचित किया था कि वह आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम से बंधे हुए हैं, इसलिए यदि किसी सक्षम अधिकारी द्वारा कहा जाता है तो वे केवल रहस्यों का खुलासा कर सकते हैं, लेकिन उनकी याचिका ने पर्याप्त संकेत दिए थे कि कम्युनिस्टों के साथ भूमि विवाद को लेकर आनंद मार्गियों की हत्या की गई थी। माकपा को डर था कि आनंद मार्गी कस्बा बेल्ट में अपना वर्चस्व बना सकते हैं, जो कि उस समय कम्युनिस्टों का एक गढ़ था।
आनंद मार्ग के जनसंपर्क सचिव आचार्य त्रंबकेश्वरानंद अवधूत ने द इंडियन एक्सप्रेस को बताया था कि “बसु सरकार की एक मात्र सफलता राज्य के सबसे बड़े नरसंहार मामले में अपने शामिल होने को छिपाने की रही है।” उनके अनुसार कम्युनिस्ट आनंद मार्ग के शीर्ष नेतृत्व को खत्म करना चाहते थे, लेकिन उनके गुंडों ने गलतफहमी में संगठन से जुड़े साधारण भिक्षुओं की हत्या कर दी।
कुछ रिपोर्टों में दावा किया गया था कि भिक्षुओं की हत्या इसलिए कर दी गई थी, क्योंकि लोगों को उन पर बच्चों के अपहरण का संदेह था, लेकिन वे इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि यह स्पष्ट नहीं था कि उन्हें इस तरह का संदेह क्यों था। पुलिस ने कहा था कि भीड़ ने लकड़ियों के जलते हुए ढेर में उन्हें फेंक दिया था।
आनंद मार्ग प्रचारक सभा ने 1999 में इस मामले की उच्चस्तरीय न्यायिक जाँच की माँग की थी। तब केंद्र सरकार की ओर से ओडिशा में ईसाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बेटों की हत्या की जाँच के लिए एक जाँच बिठाई गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को लिखे 66 पन्नों के एक पत्र में सरकार से आग्रह किया गया था कि वे कलकत्ता में दिनदहाड़े 17 आनंद मार्गियों की हत्याओं की जाँच के लिए एक समान पैनल गठित करे। पत्र में कहा गया था, “कलकत्ता शहर या हमारे देश के किसी भी हिस्से में इस तरह के अमानवीय, क्रूर और व्यवस्थित हत्याकांड को अंजाम नहीं दिया गया, जिसमें डेढ़ घंटे तक पुलिस द्वारा कोई हस्तक्षेप नहीं किया गया, जबकि पुलिस स्टेशन घटना स्थल से कुछ ही दूरी पर था।”
पत्र में जोर देकर कहा गया था कि अगर इस मामले की सही समय पर सही तरीके से जाँच की गई होती तो, अल्पसंख्यक समुदाय (आनंद मार्ग के मानने वाले) पर पिछले 17 वर्षों में लगातार इस तरह हमले नहीं हुए होते।” आनंद मार्ग यह दावा करता है कि वह हिंदू धर्म से जुड़ा नहीं है। इसने एक बार तो खुद को एक अलग धर्म के रूप में नामित करने की माँग की थी, लेकिन भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि आनंद मार्ग अलग धर्म नहीं है, यह हिंदू धर्म का केवल एक ‘धार्मिक संप्रदाय’ है।” हालाँकि आनंद मार्गी लगातार दावा करते रहे हैं कि ‘तंत्र’ कभी हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं माने गए।”
इसके बाद 2012 में ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में निर्वाचित किया गया था, तब राज्य सरकार ने लिंचिंग की घटनाओं की जाँच के लिए एक सदस्यीय न्यायिक आयोग का गठन किया था। कानून मंत्री मलय घटक ने तब कहा था कि मुख्यमंत्री ने जाँच आयोग के गठन पर सहमति दे दी है।
न्यायमूर्ति अमिताव लाला के न्यायिक आयोग की जाँच में पाया गया कि 6 फरवरी 1982 को कस्बा-जादवपुर क्षेत्र के CPI(M)के महत्वपूर्ण नेताओं ने आनंद मार्गियों से चर्चा करने के लिए पिकनिक गार्डन के कॉलोनी बाजार में मुलाकात की थी। कथित तौर पर बैठक में पिछले वाम मोर्चा मंत्रिमंडल में मंत्री रहे कांति गांगुली, CPM के पूर्व विधायक सचिन सेन, जिनकी अब मौत हो चुकी है, स्थानीय CPM नेता निर्मल हलदर, वार्ड नंबर 108 (तिलजला-कस्बा) के पूर्व पार्षद अमल मजूमदार और सोमनाथ चटर्जी, जो उस समय जादवपुर से सांसद और बाद में लोकसभा अध्यक्ष बनाए गए, शामिल थे।
आनंद मार्गियों को कम्युनिस्टों के गुस्से का सामना करना पड़ा, क्योंकि वे वैचारिक रूप से उनके विरोध में थे। आनंद मार्गियों पर पहला हमला 1967 में उनके पुरुलिया स्थित ग्लोबल मुख्यालय में हुआ था, जिसमें CPI(M) के कैडरों द्वारा कथित तौर पर पाँच सेवकों की हत्या कर दी गई थी। इसके दो साल बाद आनंद मार्गियों की कूचबिहार मण्डली पर हमला किया गया था।
बिजोन सेतु हत्याकांड के बाद भी अप्रैल 1990 में CPI(M) के कैडरों द्वारा कथित तौर पर आनंद मार्ग के पाँच सदस्यों की हत्या कर दी गई थी। 1982 की जघन्य हत्याओं के बारे में तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने बड़ी ही बेशर्मी से कहा था, “क्या किया जा सकता है? ऐसी बातें होती रहती हैं।” बंगाल में माकपा के दशकों के शासनकाल के दौरान इन घटनाओं पर कोई न्याय नहीं हुआ, न ही अब तक हुआ है।
ऐसे और भी लोग हैं, जिन्हें कम्युनिस्टों के नरसंहार वाले रास्ते पर चलने से इनकार करने की बदौलत मुश्किलें झेलनी पड़ीं। अप्रैल 2017 में न्यायमूर्ति अमिताव लाला आयोग ने तिलहला थाने के ओसी गंगाधर भट्टाचार्य की पत्नी ममता भट्टाचार्य के घर का दौरा किया था। आपको बता दें कि गंगाधर भट्टाचार्य को 31 अक्टूबर 1983 को बेहाला में बयान रिकॉर्ड करने को लेकर गोली मार दी गई थी।
ममता के मुताबिक, उनके पति एक ईमानदार अधिकारी थे। उन्हें आनंद मार्ग के भिक्षुओं के नरसंहार का समर्थन न करने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी। ममता भट्टाचार्य के अनुसार उन्होंने ज्योति बसु से मदद माँगते हुए अपने पति को आवंटित किडरपोर में पुलिस क्वार्टर पर ही अपना निवास जारी रखने की माँग की थी, लेकिन इसके लिए इनकार कर दिया गया।
तब से आज तक हर साल 30 अप्रैल को आनंद मार्गियों के नरसंहार की सालगिरह पर आनंद मार्गी जुलूस निकालते हैं और उन भिक्षुओं को श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्हें दिनदहाड़े मारने के बाद आग में फेंक दिया गया था। उन्हें घटना के चार दशक बीत जाने के बाद भी आज तक न्याय नहीं मिल सका है। कभी माओ ने कहा था, “राजनीतिक शक्ति बंदूक की नोंक से बढ़ती है।” वर्षों से ये लोग दूसरों के सिर पर बंदूक रखकर राजनीतिक सत्ता हासिल करने में कामयाब रहे हैं। हालाँकि उन्हें राजनीतिक रूप से अलग कर दिया गया है, फिर भी उन्हें न्याय की बारीकियों का अनुभव करना बाकी है।