चंदा बाबू चले गए। वहीं, जहॉं उनके बेटे को बर्बर तरीके से शहाबुद्दीन नाम के गुंडे ने भेजा था। चंदा बाबू भी मर उसी दिन गए थे, वो तो सॉंसे थी जो बुधवार की रात (16 दिसंबर 2020) उखड़ी। ये वही महीना है जिसकी शुरुआत में उस शहाबुद्दीन को हाई कोर्ट ने परिवार से मिलने की सशर्त पेरोल दी थी, जिसके खिलाफ चंदा बाबू ने एक लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी।
चंदा बाबू यानी चंदेश्वर प्रसाद। कभी सीवान का एक जाना-माना दुकानदार। जिसे दुनिया ने एक ऐसे पिता के तौर पर जाना जिसके दो बेटों को तेजाब से नहला दिया गया। तीसरे की गवाह बनने पर हत्या कर दी गई। जो चौथे बेटे के मारे जाने के डर के साए में जीता रहा। लेकिन, फिर भी वह उस गुंडे के सामने नहीं झुका, नहीं टूटा, जिसे लालू-राबड़ी के राज में सीवान में अपनी सरकार चलाने की छूट मिली थी। जिसने महागठबंधन की सरकार में जेल से बाहर निकलने पर नीतीश कुमार को परिस्थितियों का मुख्यमंत्री कह दिया था।
यह घटना 2016 की है। बिहार में महागठबंधन की सरकार चल रही थी और 11 साल बाद शहाबुद्दीन जेल से बाहर निकला था। उस समय दुनिया ने टोल नाके से कानून को ठेंगा दिखाते निकले शहाबुद्दीन के काफिले को देखा था और उन साक्षात्कारों को भी जिसमें उसने बड़े रौब से कहा था कि नीतीश कुमार मास लीडर नहीं हैं। अगर जनता को मैं डॉन के रूप में पसंद हूँ तो मुझे अपनी छवि बदलने की जरूरत नहीं है।
उसी समय सीवान पहुँचे वरिष्ठ पत्रकार व्यालोक पाठक ने ऑपइंडिया को बताया, “बड़रडीहा बस स्टैंड पर उतरने के बाद हम पूछते हुए चंदा बाबू के घर पहुँचे थे। मकान और दुकान साथ ही था। खिचड़ी दाढ़ी, सस्ता चश्मा और एक लुंगी के ऊपर सस्ती मटमैली गंजी पहने चंदा बाबू कुर्सी पर बैठे थे। मुझे उनके चेहरे पर दो रेखाओं का आभास हुआ जो शायद लगातार ऑंसू बहने की वजह से स्थायी निशान बन गए थे।”
अरसे से बीमार चल रहे चंदा बाबू का निधन हृदय गति रुकने से हुआ। आज भले सांत्वना देने वालों का उनके घर में ताता लगा हो, लेकिन कभी कोई भी उनके साथ दिखना नहीं चाहता था। व्यालोक पाठक बताते हैं कि उस समय शहाबुद्दीन की खौफ के कारण कोई भी चंदा बाबू के साथ दिखना नहीं चाहता था। खराब स्वास्थ्य, पत्नी की बीमारी, बेटे की विकलांगता और आर्थिक असमर्थता की उनकी लाचारी झलक रही थी। बात करते-करते आँखें भी बार-बार डबडबा जाती थी। बावजूद अंतिम साँस तक सीवान न छोड़ने और लड़ते जाने की बात कर रहे थे।
व्यालोक पाठक चंदा बाबू के जिस हौसले की बात कर रहे हैं वह उस दिन था जिस दिन उनके घर से कुछ किलोमीटर दूर प्रतापपुर में ‘सीवान का साहेब’ अपना दरबार लगाकर बैठा था। असल में रंगदारी नहीं देने और अपनी जमीन शहाबुद्दीन के हवाले न करने के कारण चंदा बाबू के दो बेटों गिरीश और सतीश का अपहरण कर लिया गया था। इसके बाद उन्हें शहाबुद्दीन के गाँव प्रतापपुर स्थित उसकी कोठी पर ले जाया गया। फिर 16 अगस्त 2004 को वहाँ दोनों भाइयों को तेज़ाब से नहलाया गया और तब तक ऐसा किया गया, जब तक उनकी तड़प-तड़प कर मौत न हो गई। इस मामले में गवाह थे चंदा बाबू के तीसरे बेटे राजीव रौशन, लेकिन कोर्ट जाते समय उनकी भी हत्या कर दी गई थी।
फिर भी चंदा बाबू उस गुंडे के खिलाफ अंत तक लड़े। यह उनकी ही लड़ाई थी जिसके कारण शहाबुद्दीन आज भी जेल में बंद है। जैसा कि व्यालोक पाठक कहते हैं, “चंदा बाबू ने उस वक्त शहाबुद्दीन के खिलाफ खड़ा होने का फैसला किया जिस वक्त उसकी तूती बोलती थी। उसके डर से कोई भी खड़ा होने की हिम्मत नहीं कर पाता था। उस वक्त वे न केवल खड़े हुए, बल्कि अपना सब कुछ गवाँ भी दिया। एक कहावत है कि अर्थी जितनी छोटी होती है उसका बोझ उतना ही बड़ा होता है। चंदा बाबू के एक नहीं तीन-तीन जवान बेटे बलिदान हुए उस युद्ध में। इसलिए जब भी जंगलराज और आतंकराज के खिलाफ खड़े होने की बात होगी चंदा बाबू याद किए जाते रहेंगे।”
यह भी विकट संयोग है कि चंदा बाबू का पूरा जीवन 16 तारीख के इर्द-गिर्द ही घूमती रही। 16 अगस्त 2004 को दो बेटे तेजाब से नहला दिए गए। 16 जून 2014 को बड़े बेटे की गोली मारकर हत्या कर दी गई। अब 16 दिसंबर 2020 को चंदा बाबू खुद दुनिया से विदा हो गए।