एक घरेलू मामले की सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि शादी के बाद एक पति द्वारा अपनी पत्नी से घरेलू काम करने की अपेक्षा करना क्रूरता नहीं कहा जा सकता है। इसके साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि पत्नी द्वारा पति को अपने परिवार से अलग रहने के लिए कहना क्रूरता के समान है। इस आधार पर उच्च न्यायालय ने पति को तलाक की मंजूरी दे दी।
न्यायमूर्ति सुरेश कुमार कैत और न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा की खंडपीठ ने एक पति की अपील पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। पीठ ने कहा, “अगर एक विवाहित महिला को घरेलू काम करने के लिए कहा जाता है तो इसे नौकरानी के काम के बराबर नहीं माना जा सकता है और इसे अपने परिवार के लिए उसके प्यार और स्नेह के रूप में गिना जाएगा।”
पीठ ने यह भी कहा कि कुछ स्तरों में पति वित्तीय दायित्वों को वहन करता है और पत्नी घर की जिम्मेदारी को स्वीकार करती है। मौजूदा मामला भी ऐसा ही है। भले ही अपीलकर्ता पति ने प्रतिवादी पत्नी से घर का काम करने की अपेक्षा की हो, फिर भी इसे क्रूरता नहीं कहा जा सकता। कोर्ट ने कहा कि इसमें प्रत्येक साथी अपनी क्षमताओं और परिस्थितियों के अनुसार योगदान देता है।
दरअसल, दोनों की शादी 30 मार्च 2007 को हुई थी। इसके बाद 2 फरवरी 2008 को उनके बच्चे का जन्म हुआ। इसके बाद पति-पत्नी में विवाद हो गए। पत्नी ने पति के परिवार पर दहेज माँगने और क्रूरता के आरोप लगाए थे। पति का यह भी आरोप था कि उसकी पत्नी संयुक्त परिवार को छोड़कर अलग रहने के लिए उस पर दबाव डालती है।
सीआईएसएफ में काम करने वाले पति ने कोर्ट को बताया कि वह पत्नी द्वराा घर के कामों में हाथ नहीं बँटाने, वैवाहिक घर छोड़ने के लिए कहने और उसे आपराधिक मामलों में झूठे फँसाने से वह व्यथित था। इस आधार पर वह अपनी से अलग होना चाहता था, लेकिन पारिवारिक न्यायालय ने इससे इनकार दिया। इसके बाद पति ने इस निर्णय को कोर्ट में चुनौती दी।
हाई कोर्ट ने कहा कि अपनी पत्नी की इच्छाओं के आगे झुकते हुए पति ने वैवाहिक जीवन को बचाने के लिए एक अलग आवास की व्यवस्था की थी, लेकिन पत्नी ज्यादातर अपने माता-पिता के साथ रहती थी। अपने माता-पिता के साथ रहने का विकल्प चुनकर महिला ने न केवल अपने वैवाहिक दायित्वों की अनदेखी की, बल्कि पति को उसके बेटे से दूर रखकर उसके पितृत्व से भी वंचित कर दिया।
अदालत ने कहा कि अस्थायी अलगाव जीवनसाथी के मन में असुरक्षा की भावना पैदा करता है और महिला का संयुक्त परिवार में रहने का कोई इरादा नहीं था। पीठ ने कहा कि एक बेटे का अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल करना नैतिक और कानूनी दायित्व है, खासकर ऐसे हालात में जब माता-पिता के पास आय का कोई दूसरा स्रोत नहीं है या फिर है तो नगण्य है।
“नरेंद्र बनाम के. मीना के मामले का हवाला देते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने कहा कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह देखा है कि एक बेटे को अपने परिवार से अलग होने के लिए कहना क्रूरता है। इसमें कहा गया था कि भारत में एक हिंदू बेटे के लिए आम बात नहीं है और ना ही शादी के बाद अपने परिवार से अलग होने की वांछनीय संस्कृति है।
अदालत ने कहा, “जब दोनों पक्ष विवाह के बंधन में बँधते हैं तो उनका इरादा भविष्य के जीवन की ज़िम्मेदारियों को साझा करना होता है। कई निर्णयों में यह पहले ही माना जा चुका है कि यदि एक विवाहित महिला को घरेलू काम करने के लिए कहा जाता है तो उसे नौकरानी के बराबर नहीं माना जाता, बल्कि उसे अपने परिवार के प्रति उसके प्यार और स्नेह के रूप में गिना जाता है।