महिलाओं को किसी एक विशेषण में समेटने की कोशिश करना एक नादानी से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता है। महिलाएँ एक माँ, बेटी, बहन, औरत होने के साथ-साथ कितने ही रूपों में अन्य सामाजिक दायित्व भी निभाती हैं, अंकिता जैन इसका एक उदाहरण हैं। अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘मैं से माँ तक़’ और ‘ऐसी वैसी औरत’ (जागरण-नील्सन बेस्ट सेलर) के अलावा अंकिता जैन वर्तमान में किस तरह से एक प्रेरणाश्रोत बनकर महिला सशक्तिकरण की एक मजबूत मिशाल पेश करती हैं।अंकिता जैन ऑपइंडिया के साथ आज शेयर कर रही हैं अपने संघर्ष से सशक्तिकरण तक का अपना सफर।
लेखन जगत में मेरी यात्रा 2011 में शुरू हुई थी। शुरुआत फेसबुक से ही हुई थी। फिर सफ़र आगे बढ़ा और रेडियो के लिए कहानियाँ लिखीं, संपादन और अनुवाद का काम किया, घोस्ट राइटिंग की, और 2017 में पहली हिंदी किताब ‘ऐसी वैसी औरत’ आई।
इसी बीच शादी हुई और मैं छत्तीसगढ़ के आदिवासी बाहुल्य इलाके में पहुँच गई। वहाँ मेरे पति (समर्थ) खेती-बाड़ी करते हैं। रसायन मुक्त खेती। वे एक वैज्ञानिक हैं और पहले बेल्जियम की सरकारी रिसर्च लैब में शोधकर्ता थे। वहाँ वे जब आस-पास के गाँवों के किसानों को देखते, तो उनके आगे उन्हें अपने यहाँ के किसानों की दरिद्र हालत पर दुःख होता। वह ही उनके जीवन का टर्निंग पॉइंट था, जब वे विदेश में नौकरी छोड़कर स्वदेश लौटे और उन्होंने छोटे किसानों के लिए कुछ करने के बारे में सोचा।
शुरुआत में यह कठिन लगता था क्योंकि शिक्षा बिल्कुल अलग विषय में हुई थी, लेकिन किताबों का साथ और शोध की प्रवृत्ति ने उनकी राह आसान बनाई। उनके पास पैतृक ज़मीन थी, जिस पर उन्होंने विभिन्न प्रकार की फसलों के साथ रसायन मुक्त खेती के प्रयोग शुरू किए। सफलता मिलने लगी तो गाँव-गाँव जाकर किसानों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। अब तक लगभग 300 गाँवों के किसानों से जुड़कर वे उन तक रसायन मुक्त खेती के तरीके पहुँचा चुके हैं। कई किसानों ने उनकी बताई राह पर चलना भी शुरू किया है।
रसायन मुक्त खेती के प्रयोगों के दौरान ही उन्होंने रसायन मुक्त खाद एवं दवाइयाँ बनाने के प्रयोग शुरू किए। जब वे सफल रहे तो उन्हें बाज़ार में उतारा। ऐसा नहीं था कि जैविक उत्पाद बाज़ार में उपलब्ध नहीं थे, लेकिन अधिकांश उत्पादों में मिलावट और छल पाया। साथ ही, उनकी कीमतें इतनी अधिक होतीं, कि एक छोटा किसान उसे खरीदने से पहले ही जैविक खेती से विरक्त हो जाए।
अतः समर्थ का मुख्य उद्देश्य कम से कम कीमत पर शुद्ध रसायन मुक्त उत्पाद किसानों तक पहुँचाना एवं उन्हें स्वयं रसायन मुक्त खाद एवं दवाइयाँ बनाना सिखाना था। मैं पिछले चार वर्षों में उनके इस कार्य में सहयोगी रही हूँ। और वे मेरे लेखन में सहयोगी रहे।
मेरी दूसरी किताब ‘मैं से माँ तक’ मैं उनके सहयोग की वजह से ही लिख पाई। अन्यथा मातृत्व, प्रेग्नेंसी के नौ माह, और उस दौरान भारतीय स्त्रियों के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में मुखर होकर लिखना एक ‘बहु’ के लिए आसान नहीं होता।
अधिकांश स्त्रियाँ माँ बनने के दौरान काम से ब्रेक ले लेती हैं। मेरे जीवन में लेखन मुख्य रूप से उसी दौर में शुरू हुआ। मैं माँ बन रही थी, बनी और अब बच्चे के साथ भी काम करती हूँ, रुकना या ब्रेक लेना नहीं चाहती। ऐसा नहीं है कि कठिनाइयों ने परेशान नहीं किया, लेकिन रुक जाऊँगी तो पीछे छूट जाऊँगी, बस यही सोच कर काम में लगाए रखती हूँ।
मैंने जब यह कॉलम लिखना शुरू किया, तो ढेर सारी महिलाओं के संदेश आते। वे सभी किसी न किसी समस्या से जूझते हुए अपने नौ माह काट रही थीं। ऐसे में मुझमें वे डिजिटल सहेली पातीं और अपना मन हल्का करतीं। आज यह किताब के रूप में है और ख़ुशी की बात यह है कि महिलाओं के अलावा पुरुषों से भी इस किताब पर सुंदर और सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलती है।
मेरे लेखन का उद्देश्य यही है कि कोई एक व्यक्ति भी कुछ अच्छा और सही करने के लिए प्रेरित हो सके तो मैं अपना लेखन सार्थक मानूँगी। मेरी आगामी दो किताबें भी इसी उद्देश्य के साथ आ रही हैं। जिनमें से एक उपेक्षित स्त्रियों को केंद्र में रखकर लिखा गया कहानी संग्रह है और दूसरी किसानों से जुड़ी, खेती से जुड़ी, असल समस्याओं और किसानों के जीवन के भीतर की कहानी पर आधारित है।
मैं और समर्थ दोनों ही इसी उद्देश्य के साथ आगे बढ़ रहे हैं कि सकारात्मक रहते हुए इस देश और समाज के लिए कुछ कर पाएँ। इन दिनों समर्थ प्लास्टिक से तेल निकालने की मशीन बना रहे हैं। हमारा बिज़नेस स्टार्टअप इंडिया के तहत रजिस्टर्ड है और हमें सरकार की तरफ से लोन के अलावा गाइडेंस भी मिलती है।
यह इस तरह का पहला एक्सपेरिमेंट नहीं है। दुनियाभर में इसके लिए काम हुआ है और कुछ जगहों पर सफलतापूर्वक प्लास्टिक से तेल निकाला भी जा रहा है। हमारे प्रयोग में जो नई कोशिश है वह है; छोटे-छोटे गाँव और नगरों के लिए न्यूनतम ख़र्च में एक मशीन तैयार करना जो नॉन-रीसायकल या डिस्पोजल प्लास्टिक से तेल निकाल सके। जो तेल निकलेगा वह केरोसीन और डीज़ल के बीच की या कई बार डीज़ल जितनी ही गुणवत्ता का रहेगा और उस तरह से इस्तेमाल किया जा सकेगा।
हमारी कोशिश है कि गाँव वालों के लिए एक ऐसी मशीन बन सके जो उन्हें उन्हीं के गाँव में उपयोग की जा रही प्लास्टिक से तेल निकाल सके और वे उस तेल का प्रयोग रोजमर्रा के कामों में कर सकें। यह प्लास्टिक से तेल निकालने का सबसे अच्छा तरीका जिसकी प्रक्रिया में किसी भी प्रकार का प्रदूषण नहीं होगा। हमारा उद्देश्य बस इतना है कि प्रकृति और समाज स्वस्थ रहें, ख़ुश रहें।
अंकिता जैन जशपुर छतीसगढ़ की रहने वाली हैं। इंजीनियरिंग के बाद विप्रो इंफोटेक में काम कर चुकी हैं। इसके अलावा सीडैक, पुणे में बतौर रिसर्च एसोसिएट एक साल रहीं। साल 2012 में भोपाल के एक इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट में असिस्टेंट प्रोफेसर रहीं। इस सबके बावजूद उनकी दिलचस्पी लेखन और कृषि में है।