अयोध्या के रामजन्मभूमि पर निर्माणाधीन मंदिर में 22 जनवरी 2024 को भगवान रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। यह कार्यक्रम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में होगा, जिसके लिए तैयारियाँ युद्ध स्तर पर चल रही हैं। इस मौके पर देश और दुनिया भर के रामभक्त उन कारसेवकों को याद कर रहे हैं, जिन्होंने मुगल काल से मुलायम काल तक राम के नाम पर खुद को बलिदान कर दिया।
उन्हीं ज्ञात-अज्ञात बलिदानियों में से एक हैं उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के निवासी रमेश चंद्र मिश्रा। ऑपइंडिया ने रमेश चंद्र के घर जा कर वर्तमान हालातों की जानकारी ली। मिश्रा के परिजनों ने राममंदिर आंदोलन के दौरान की घटनाओं और उनके परिजनों को याद किया।
प्राण गए पर भक्ति बरकरार
रमेश चंद्र मिश्रा मूलतः गोंडा जिले के टिकरी क्षेत्र के निवासी थे। उनका गाँव बैरीसालपुर है, जो कि अयोध्या से लगभग 15 किलोमीटर दूर है। जब हम उनके घर पहुँचे तो वह बंद मिला। घर के बाहर शिवलिंग स्थापित है और रोशनदानों में भगवान कृष्ण के चित्र उकेरे गए हैं। ॐ और स्वास्तिक निशान जैसे वैदिक चिन्ह घर की दीवालों पर दिखे।
उनके परिवार के बारे में हमने ग्रामीणों से बातचीत की। ग्रामीणों ने बताया कि रमेश मिश्रा के बलिदान के बाद उनका परिवार बैरीसालपुर छोड़कर अयोध्या में जाकर बस गया है। हमने पाया कि रामजन्मभूमि के लिए 3 दशक पहले खुद को न्योछावर करने वाले रमेश मिश्रा का नाम अभी तक गोंडा के ग्रामीणों के जेहन में ताजा है।
भाजपा विधायक ने सड़क पर लगवाया स्मृति गेट
गाँव से निकलते हुए हमने पाया कि भोगचंद से टिकरी को जोड़ने वाले लिंक मार्ग पर स्थानीय विधायक द्वारा रमेश चंद्र मिश्रा का स्मृति द्वारा लगवाया गया है। लोगों की यात्रा सुखद और सुरक्षित होने की प्रार्थना के साथ बने इस गेट को भाजपा विधायक रमापति शास्त्री द्वारा लगवाया गया है।
इस गेट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, UP के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और गोंडा के स्थानीय सांसद कीर्तिवर्धन सिंह के नाम और चित्र छपे हुए हैं। इस गेट का नाम ‘स्वर्गीय श्री रमेश चंद्र मिश्रा स्मृति द्वार’ रखा गया है। रमेश मिश्रा के परिजनों के मुताबिक, यह गेट लगभग 3-4 माह पहले लगावाया गया है।
रामजन्मभूमि के बगल आकर बसा परिवार
रमेश चंद्र मिश्रा का परिवार अब अयोध्या शहर में रामजन्मभूमि से महज 3 किलोमीटर दूरी पर आकर बस गया है। हालाँकि, गाँव में भी उनका आना-जाना लगा रहता है। रमेश चंद्र मिश्रा के 4 बेटे हैं। उनकी पत्नी का नाम सुशीला देवी था, जो अब दुनिया में नहीं हैं। रमेश चंद्र के बेटे फ़िलहाल सरकारी व प्राइवेट नौकरियों के साथ खेती-बाड़ी कर के परिवार का गुजारा चलाते हैं।
रमेश मिश्रा के बेटे प्रभाकर मिश्रा ने ऑपइंडिया को बताया कि पिता की मौत के बाद उनकी माता मानसिक तौर पर टूट चुकी थीं। हालाँकि, अपनी संतानों का मुँह देखकर उन्होंने हिम्मत बाँधी और अपने बाल-बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा किया। हालाँकि, लगभग 8 साल पहले सुशीला देवी का भी देहांत हो गया।
करते थे सरकारी नौकरी, फिर भी निकले बलिदान देने
रमेश चंद्र मिश्रा के एक अन्य बेटे दिवाकर नाथ मिश्रा ने ऑपइंडिया को 30 अक्टूबर 1990 की घटना के बारे में विस्तार से बताया। उन्होंने बताया कि उनके गाँव बैरीसालपुर में दिल्ली, पंजाब सहित कई अन्य प्रदेशों के कारसेवक जमा थे। वो सभी किसी भी हाल में अयोध्या पहुँचना चाहते थे, लेकिन रास्ते में पुलिस फ़ोर्स उन्हें पकड़ रही थी।
उन्होंने बताया कि ग्रामीणों ने उनके रहने-खाने आदि का इंतजाम किया था। तब रमेश चंद्र डाक विभाग में पोस्टमैन की नौकरी करते थे। उनको गाँव के कई ऐसे रास्ते पता थे, जो पुलिस की जानकारी में नहीं थे। रमेश मिश्रा ने अपने गाँव और आसपास के निवासियों का एक जत्था बनाया और बाहरी कारसेवकों के साथ रामजन्मभूमि की तरफ कूच कर गए।
रामजन्मभूमि के पास हुए बलिदान
दिवाकर नाथ मिश्रा ने हमें बताया कि उनके पिता घर से सबको बताकर निकले थे। वो तमाम रास्तों से सड़क पर तैनात पुलिस वालों से बचते-बचाते अयोध्या शहर में पहुँच गए। यहाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर गोलियाँ चलाई गईं। ये गोलियाँ रमेश चंद्र के पेट में लगीं और वो बलिदान हो गए। उनका शव अयोध्या के श्रीराम अस्पताल में रखा गया था।
दिवाकर मिश्रा ने बताया कि जब उनके पिता रमेश चंद्र मिश्रा लौटकर घर नहीं पहुँचे तो परिजनों ने उनकी तलाश शुरू कर दी। साथ गए जत्थे से पूछा गया और आखिरकार जानकारी मिली कि रमेश चंद्र मिश्रा वीरगति को प्राप्त हो गए। बताया जा रहा है कि रामजन्मभूमि के थोड़ी ही दूर पहले वो गोलियों का शिकार हुए थे। गोली उनके पेट को छेद कर आर-पार हो गई थी।
नहीं करने दिया सनातन परम्परा से अंतिम विधि-विधान
रमेश मिश्रा के बेटे दिवाकर ने हमें आगे बताया कि वो अपनी माँ के साथ अयोध्या के लिए निकले, लेकिन अयोध्या की सीमा पर तैनात पुलिस ने उन्हें शहर में घुसने नहीं दिया। बहुत रोने और मिन्नत के बाद आखिरकार कुछ लोग अयोध्या में प्रवेश कर पाए। यहाँ वो श्रीराम अस्पताल पहुँचे। वहाँ कई लाशें रखी हुईं थीं, जिनमें से काफी खोजबीन के एक कोने में रमेश चंद्र का निर्जीव शव पड़ा हुआ था।
पति का पर्थिव शव लेकर सुशीला देवी अपने बेटे के साथ गाँव के लिए निकलीं तो उनको अयोध्या की सीमा पर फिर रोक लिया गया। तब दिवाकर मिश्रा की उम्र लगभग 20 साल की रही होगी। दिवार ने हमें आगे बताया कि वो अपनी माँ के साथ पुलिस वालों से मिन्नत करते रहे कि उन्हें लाश गाँव ले जाने दी जाए। हालाँकि इस मिन्नत का तैनात पुलिसकर्मियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा।
दिवाकर ने बताया, “एक पुलिस अधिकारी ने मेरी माँ को धमकाते हुए कहा कि या तो लाश अभी और यहीं जलाओ, वरना इसे छीन कर नदी में फेंक देंगे।” रमेश के परिजनों ने वैदिक विधान में रात में दाह संस्कार न होने की दुहाई दी, लेकिन पुलिस वालों पर फर्क नहीं पड़ा। आखिरकार रमेश चंद्र की विधवा और उनके बेटे ने ही हार मान ली और प्रशासन के कहे के मुताबिक शव ले कर पास के श्मशान गए।
लाश ले जाने के दौरान भी उनके साथ पुलिस बल चलता रहा। आखिरकार सनातन पद्धति के विपरीत आधी रात को बिना धुलने आदि की प्रक्रियाओं को पूरा किए ही रमेश चंद्र मिश्रा का अंतिम संस्कार अयोध्या के श्मशान में कर दिया गया। हमसे बात करते हुए दिवाकर मिश्रा भावुक हो गए। उन्होंने बताया कि वो समझ सकते हैं कि इस दौरान वहाँ मौजूद उनकी माँ पर क्या बीती रही होगी।
पिता का बने स्मारक
रमेश चंद्र मिश्रा के बेटों को इस बात का दुःख है कि उनको पिछले 3 दशकों में भुला दिया गया। दुखी होकर दिवाकर ने कहा, “हमें पूछने वाला कोई नहीं है।” राम मंदिर बनने से बेहद खुश इस परिवार ने इसे अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी होने जैसा माना। हालाँकि यह परिवार उम्मीद कर रहा है कि उनके बलिदानी पिता का भी एक स्मारक अयोध्या में सरकार द्वारा बनाया जाएगा, जो भविष्य के रामभक्तों को धर्म के लिए मरने-मिटने की प्रेरणा देगा।