“हम गरीब हैं तो क्या हमारे जान की कीमत नहीं है, हमें इंसाफ नहीं मिलना चाहिए” ये कहना है मधुबनी की 70 वर्षीय मृतक दलित महिला के बेटे सुरेंद्र मंडल का। बिहार के मधुबनी में 5 अप्रैल की रात सुलेमान नदाफ, मलील नदाफ और शरीफ नदाफ ने 70 वर्षीय दलित महिला काला देवी (उर्फ कैली देवी) की हत्या कर दी। हत्या की रात से ही तीनों आरोपित फरार हैं।
घटना को आज 10 दिन हो गए हैं। मगर अभी तक प्रशासन उन तक नहीं पहुँच पाई है। हत्यारे अभी भी कानून की गिरफ्त से बाहर आजाद घूम रहे हैं। मृतक महिला के परिजन प्रशासन से मदद की गुहार लगा रहे हैं, लेकिन उन्हें उनकी तरफ से कोई सहयोग नहीं मिल रहा है। 42 वर्षीय सुरेंद्र मंडल ने आरोप लगाया कि प्रशासन ने आरोपित से पैसा लिया है, इसलिए गिरफ्तार नहीं कर रहा है।
जब हमने जानना चाहा कि उन्हें प्रशासन की तरफ से किस तरह की मदद मिल पा रही और जब वो पुलिस स्टेशन जाते हैं तो उनसे क्या कहा जाता है? इस बात पर सुरेंद्र मंडल ने लगभग बिफरते हुए कहा, “जब भी हम वहाँ (पुलिस स्टेशन) जाते हैं तो बड़ा बाबू कहते हैं- दूर हटो, दूर रहकर बात करो। जब हम केस के बारे में बात करते हैं तो कहते हैं कि हाँ, हम केस बनाने की सोच रहे हैं।”
आगे उन्होंने कहा, “10 दिन बीत जाने के बाद भी अगर वो उन आरोपितों को नहीं पकड़ पाए हैं, तो इसका मतलब है कि रहिका थाना प्रशासन ने उससे पैसा खाया है, वरना इतनी बड़ी घटना के बाद उसके नहीं पकड़े जाने का सवाल ही नहीं है। मतलब साफ है कि उन्होंने पैसा लिया है, इसलिए केस में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। हम गरीब हैं तो क्या हमारे जान की कीमत नहीं है? हमें इंसाफ नहीं मिलना चाहिए?”
इसके साथ ही सुरेंद्र ने ये भी आरोप लगाया कि ये सब कुछ राजद विधायक फैयाज अहमद और सरपंच फकरे आलम के कहने पर हो रहा है। उन्होंने कहा, “राजद विधायक फैयाज अहमद का फिलहाल नाम नहीं आया है, लेकिन हम जानते हैं कि ये सब कुछ उसके कहने पर ही हो रहा है, क्योंकि उसका दायाँ हाथ सरपंच फकरे आलम है और पुलिस प्रशासन फकरे आलम से मिली हुई है। हम तो बस प्रधानमंत्री के कहने पर दीया जला रहे थे। क्या प्रधानमंत्री की बात का पालन करना इतना बड़ा गुनाह है कि हमारी माँ की हत्या कर दी जाएगी? और प्रशासन भी हाथ पर हाथ धरे बैठा है।”
इतना ही नहीं दूसरे समुदाय द्वारा अफवाह भी फैला दी जाती है कि हमने पैसा लेकर केस को रफा-दफा कर दिया है। हम किस-किसको स्पष्टीकरण दें? उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रशासन ने उनके दो-तीन गवाहों का बयान भी नहीं लिया।
सुरेंद्र ने कहा, “हम थाने का घेराव करेंगे। ये काम हम बहुत पहले ही करते, लेकिन हमने प्रशासन पर भरोसा जताया। मगर हमें वहाँ से निराशा ही हाथ लगी। हमने लॉकडाउन की वजह से भी ये नहीं किया। हालाँकि, लॉकडाउन अभी भी है, लेकिन हम क्या करें? हम मजबूर हैं, प्रशासन अपराधियों के साथ मिली है। वो हमारा साथ नहीं दे रही है। आखिर हम इंसाफ के लिए जाएँ तो जाएँ कहाँ? प्रशासन की इसी सुस्ती और लापरवाही की वजह से अपराधियों को सह मिलती है।”
उल्लेखनीय है कि 5 अप्रैल की रात दीप जलाने के बाद सुरेंद्र की माँ काला देवी घर के बाहर ही बेंच पर बैठी हुईं थीं। इस दौरान सुलेमान नदाफ का बेटा मलीन नदाफ ने काला देवी के सिर पर दो-तीन बार मारा। इसके बाद बाद इतनी जोर से उनका गला दबाया कि वह बेंच पर से नीचे गिर गईं। जिसके बाद उन्हें आँगन में लाया गया, जहाँ काला देवी ने दो बार हिचकी ली और फिर वहीं पर दम तोड़ दिया। इससे पहले शरीफ नदाफ ने गाली-गलौज की थी। भद्दी और गंदी गालियाँ देने के साथ ही उसने कहा था कि इस मुहल्ले में कोई भी बच्चा हिंदू का नहीं है।
सोचने वाली बात तो यह भी है कि किसी हिंदू की हत्या की जाती है, तो असहिष्णुता का राग अलापने वाले ये झंडाबरदारों द्वारा चुप्पी साध ली जाती है। स्क्रीन काली कर डालने वाले, हर चीज में ‘मजहब विशेष पर अत्याचार’ ढूँढ़ने वाले मीडिया के एक खास वर्ग के लिए यह खबर नहीं होती। सेकुलरिज्म का चश्मा लगाए चैनलों पर बहस करने वाले पत्रकार ऐसी घटनाओं पर खामोश हो जाते हैं। कथित बुद्धिजीवी दलीलें देते हैं कि मामले को साम्प्रदायिक नजरिए से न देखा जाए। मगर जैसे ही किसी दूसरे मजहब के व्यक्ति की मौत होती है, मामले को तूल देकर ऐसा रंग दिया जाता है, जिससे लगे कि देश में ‘कथित अल्पसंख्यकों पर अत्याचार’ हो रहे हैं। यही है इस समाज की कड़वी सच्चाई।