अजमेर सेक्स कांड कैसे खुला
साल 1992 में अजमेर का यह मामला सुर्खियों में आया था जब शहर में अचानक लड़कियों की न्यूड तस्वीरें वायरल होना शुरू हुई थी। लड़कियाँ सुसाइड करने लगी थीं और पूरा शहर इन तस्वीरों को देख शर्मसार हो रहा था। केस में रसूखदारों के नाम आने लगे थे। पुलिस केस दबाने में जुटी थी। मगर, तब एक न्यूजपेपर में इस घटना को लेकर एक खबर छपी और हड़कंप मच गया। बात बिगड़ती देख राजस्थान की तत्कालीन सरकार भैरोसिंह शेखावत ने जाँच को सीआईडी-सीबी को सौंपा।
कैसे हुई थी अजमेर सेक्स कांड की शुरुआत
पड़ताल हुई तो हर पहलु चौंकाने वाला था। सेक्स कांड के आरोपितों के तार दरगाह के खादिमों से जुड़ते मिले। पूरी साजिश रचने वालों ने सबसे पहले एक बिजनेसमैन के बेटे को निशाना बनाया था। उन्होंने उस लड़के से दोस्ती करके उसकी तस्वीरें उतारी थी और बाद में अपनी गर्लफ्रेंड को पोल्ट्री फार्म पर लाने को कहा था। लड़का जब पोल्ट्री फार्म पर गर्लफ्रेंड लाया तो वहाँ उसका भी रेप हुआ और न्यूड तस्वीरें निकाली गईं। इसके बाद लड़की से कहा गया कि वो अपनी सहेलियों को वहाँ लाए वरना उसकी फोटो हर जगह होगी।
लड़की भी डरकर उनकी बात मान बैठी। इसके बाद फार्म पर आने वाली हर लड़की के साथ रेप हुआ, दूसरों से रेप करवाया गया, उनके न्यूड फोटोशूट हुए और फिर उन्हें उसी के सआधार पर ब्लैकमेल करके अलग-अलग जगह बुलाया जाने लगा। मामले में बड़ा मोड़ तब आया जब आरोपितों ने फोटो को डेवलप कराने के लिए उन्हें लैब भेजा और लैब कर्मचारियों ने उन्हें बेचना शुरू कर दिया। लड़कियों को ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया। हर जगह सर्कुलेट करना शुरू कर दिया।
कौन-कौन था शामिल?
मामले में 18 आरोपितों का नाम उजागर हुआ जिसमें तत्कालीन यूथ कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष फारूख चिश्ती, उपाध्यक्ष नफीस चिश्ती, ज्वाइंट सेक्रेट्री अनवर चिश्ती का नाम शामिल था। इनके नाम इस प्रकार हैं- हरीश तोलानी (कलर लैब मैनेजर), फारुख चिश्ती, नफीस चिश्ती (उपाध्यक्ष), अनवर चिश्ती (ज्वाइंट सेक्रेट्री), पुरुषोत्तम, इकबाल भाटी, कैलाश सोनी, सलीम चिश्ती, सोहैल गनी, जमीन हुसैन, अल्मास महाराज, इशरत अली, मोइजुल्लाह उर्फ पूतन इलाहाबादी, परवेज अंसारी, नसीम उर्फ टारजन, महेश लुधानी, शम्सू उर्फ माराडोना, जहूर चिश्ती, का नाम सामने आया।
चार्जशीट दायर करते समय हुई गलती
अखबार में खबर छपने के बाद जब जाँच एजेंसियों ने इसमें पड़ताल शुरू की तो 12 नाम मुख्य रूप से सामने आए। उसके बाद 30 नवंबर 1992 में इस मामले में जाकर पहली 8 लोगों के खिलाफ चार्जशीट 173 सीआरपीसी के तहत दायर हुई। हीं बाकी चार आरोपितों के खिलाफ मामले में चार अलग-अलग चार्जशीट दायर हुए।
केस में देरी का कारण
दैनिक भास्कर की रिपोर्ट में विशेषज्ञों से की गई बात से पता चलता है कि ये मामला 32 साल तक इसलिए खिंचा क्योंकि जब नई चार्जशीट दायर होती थी तो पहले से चले ट्रायल को रोककर फिर से ट्रायल शुरू करना पड़ता था। अगर 173 सीआरपीसी की जगह 299 सीआरपीसी में चार्जशीट दायर होती तो ऐसा नहीं होता।
इस केस में जितनी देरी हो रही थी आरोपित उतने बेखौफ थे। उन्हें पता था कि हर बार नई चार्जशीट दायर होनी है और हर बार केस नए सिरे से देखा जाएगा। पुलिस की भूल थी या कुछ और लेकिन साल 2003 तक इस केस के 7 आरोपित नफीस चिश्ती , इकबाल भाटी, सलीम चिश्ती, सोहैल गनी, जमीर हुसैन, अल्मास महाराज और नसीम उर्फ टारजन फरार रहे। बाद में जाकर ये पुलिस के हत्थे चढ़े।
साल 2003 में नफीस चिश्ती और नसीम टार्जन के पकड़े जाने के बाद इनके खिलाफ 2004 में चार्जशीट दाखिल हुई। 2005 तक 52 गवाहों के बयान दर्ज कराए गए, लेकिन उसके बाद केस के एक और आरोपित इकबाल भाटी मुबंई से गिरफ्तार हो गया। अब जिस समय 52 गवाह के बयान दर्ज हो चुके थे उसके बाद भी पुलिस को नई चार्जशीट दाखिल करनी पड़ी। दोबारा से गवाहों को कोर्ट में बुलाया गया और बयान दर्ज हुए।
20 गवाहों के बयान दर्ज होने के बाद साल 2012 में सलीम चिश्ती को पुलिस ने पकड़ा और जाकर गिरफ्तारी हुई। वहीं जमीन हुसैन भी अग्रिम जमानत लेकर अमेरिका से भारत लौटा। इस तरह एक बार फिर ट्रायल रुका और नफीस चिश्ती, नसीम, इकबाल भाटी, सलीम चिश्ती और जमीर हुसैन के खिलाफ पुलिस ने फिर बयान दर्ज करने शुरू किए। 69 गवाहों की बयान दर्ज होने के बाद 2018 में फिर सोहैल गनी को पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार किया और इस तरह एक और बार पीछे की गई सारी मेहनत पर पानी फिर गया।
नई चार्जशीट दायर हुई नया ट्रायल हुआ। फिर 104 गवाहों ने कोर्ट में अपना बयान दर्ज कराया और इस तरह पूरा मामला 2024 तक खिंचता ही गया। दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक, विशेषज्ञों ने जो इस केस के लंबे खिंचने के बारे में बताया वो यही था कि आरोपितों को भगौड़ा मानते हुए 173 सीआरपीसी की बजाय 299 के तहत पेश करती तो शायद केस इतना लंबा न खिंचता। 173 सीआरपीसी में केस दर्ज होने के कारण बार-बार गवाही लेनी पड़ी। अगर केस 299 के तहत दर्ज होता तो ट्रायल भी जल्दी पूरा होता और फैसला भी आ जाता। 299 crpc का अर्थ यही होता है कि मामले में साफ किया जाए कि आरोपित फरार हैं और उन्हें तत्काल गिरफ्तार करने की संभावना नहीं है। ऐसे में उनकी अनुपस्थिति में गवाहों के बयान दर्ज हों।
32 साल में आए उतार-चढ़ाव
बता दें कि इस केस में इन 32 सालों में कई उतार-चढ़ाव देखने को मिले। कहने को पहली बार सजा 8 आरोपितों को 1998 में मिल गई थी। 18 मई 1998 को जिला जज ने कैलाश सोनी, हरीश तोलानी, इशरत अली, मोइजुल्लाह उर्फ पूतन इलाहाबादी, परवेज अंसारी, महेश लुधानी, अनवर चिश्ती और शम्सू उर्फ माराडोना को उम्रकैद की सजा दी थी लेकिन इन आरोपितों ने हाईकोर्ट में अपील की और 2001 में 4 आरोपितों महेश लुधानी, कैलाश सोनी, हरीश तोलानी और परवेज अंसारी को बरी कर दिया गया और इशरत अली, मोइजुल्लाह उर्फ पूतन इलाहाबादी, अनवर चिश्ती और शम्सू उर्फ माराडोना की सजा बरकरार रखी।
जिनकी सजा बरकरार रही उन्होंने 2003 में सुप्रीम कोर्ट में अपील की जहाँ उनकी सजा 10 साल कम कर दी गई और इस तरह 10 साल की सजा काटने के बाद वो सब रिहा हो गए। केस का मुख्य आरोपित फारूख चिश्ती पहले ही मानसिक बीमारी का हवाला देकर बचा हुआ था, लेकिन 2007 में उसे उम्रकैद की सजा हो गई। फिर फारूख चिश्ती भी हाईकोर्ट गया और कोर्ट ने इस बात पर गौर करते हुए कि उसे उसे सजा काटते हुए 11 साल हो गए थे इसलिए उसे भी छोड़ दिया गया। अब 20 अगस्त को इस मामले में नफीस चिश्ती, नसीम उर्फ़ टार्जन, सलीम चिश्ती, इकबाल भाटी, सोहेल गनी और सैयद जमीर हुसैन को दोषी ठहराया गया है और इन्हें सजा हुई।
ऐसा नहीं है कि अब इस मामले में हर आरोपित को सजा मिल गई हो। केस का एक आरोपित अल्मास महाराज आज भी फरार है। कहा जाता है कि वो अमेरिका में रहता है। उसके खिलाफ इंटरपोल ने रेड कॉर्नर नोटिस इश्यू कर रखा है। भविष्य जब कभी वो गिरफ्तार होगा तो फिर से वही समस्या देखने को मिलेगी जो इतने समय तक थी। यानी दोबारा नई चार्जशीट और नया ट्रायल। इस केस को इतना समय बीत गया है कि पीड़िताएँ थक चुकी हैं।