बाल लिंगानुपात के आँकड़ों को देखने पर पता चलता है कि उत्तर-पूर्व के कुछ राज्य बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं, वहीं दक्षिण भारतीय राज्य फिसड्डी साबित हुए हैं। रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया द्वारा जारी किए गए आँकड़ों के मुताबिक़ बाल लिंगानुपात में सिक्किम भारतीय राज्यों में सबसे ऊपर रहा है। वहीं अगर केरल को छोड़ दें, तो बाकी दक्षिण भारतीय राज्यों की स्थिति ख़राब है। आंध्र प्रदेश की स्थिति तो पूरे देश में सबसे ज़्यादा बदतर है। वो भी तब, जब मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू राज्यवासियों को ज़्यादा से ज़्यादा बच्चे पैदा करने की सलाह देते हैं। मुख्यमंत्री नायडू अगर इसके बजाय बाल लिंगानुपात बेहतर करने की बात करते, तो शायद परिणाम कुछ बेहतर होते।
उत्तर पूर्व के राज्य सिक्किम ने इस मामले में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है। सिक्किम में बाल लिंगानुपात 999 (प्रति 1000) है। यह अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि है क्योंकि राज्य में बाल लिंगानुपात 2007 में 981 से घट कर 2013 में 956 पर आ गया था। 2014 से सिक्किम ने इस मामले में पीछे मुड़ कर नहीं देखा और साल दर साल प्रदर्शन में सुधार होता गया। सिक्किम ने 2015 के मुक़ाबले 2016 में 26 (प्रति 1000) की छलाँग लगाई है। सिक्किम का प्रदर्शन सराहनीय है और शेष भारत को इससे सीख लेने की जरूरत है। इस से यह भी पता चलता है कि उत्तर-पूर्वी राज्यों पर केंद्र सरकार द्वारा विशेष ध्यान देने के सुखद परिणाम सामने आ रहे हैं।
उत्तर भारतीय राज्यों के मुक़ाबले तुलनात्मक रूप से ज्यादा विकसित दक्षिण भारतीय राज्यों का प्रदर्शन इस मामले में काफ़ी ख़राब रहा है। जैसा की हमने ऊपर बताया, आंध्र प्रदेश 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे फिसड्डी रहा है। राज्य में जन्म लिंगानुपात सिर्फ़ 806 रह गया है। यह राज्य सरकार के लिए ख़तरे की घंटी है। 2008 में यहाँ बाल लिंगानुपात 986 हुआ करता था। अर्थात, 8 वर्षों के भीतर आंध्र में बाल लिंगानुपात तेज़ी से नीचे गिरा है।
हालाँकि, सरकार द्वारा जारी किए गए ताज़ा आँकड़ें 2016 के हैं। बाल लिंगानुपात के क्षेत्र में एक और उत्तर-पूर्वी राज्य नागालैंड ने भी बेहतरीन प्रदर्शन किया है। नागालैंड की स्थिति 2007 में काफ़ी बदतर थी और राज्य इस मामले में पंजाब के बाद सबसे फिसड्डी राज्य था। 2016 में यह तस्वीर बदल गई है और नागालैंड अब बाल लिंगानुपात के मामले में तीसरा सबसे बेहतर राज्य है। बाल लिंगानुपात की लिस्ट में (घटते क्रम में) सिक्किम और छत्तीसगढ़ के बाद नागालैंड का ही स्थान आता है। 2016 में नागालैंड में बाल लिंगानुपात 967 दर्ज़ किया गया। यह अपने आप में सबसे बड़ी बात है क्योंकि 10 सालों में नागालैंड ने पहली बार 900 के आँकड़े को पार किया है। 2015 में 897 से 2016 में सीधा 967 पर आना यह दिखाता है कि राज्य के लोग ‘बेटी बचाओ’ के नारे को सचमुच गंभीरता से ले रहे हैं।
यहाँ छत्तीसगढ़ की बात करना अनिवार्य हो जाता है क्योंकि वहाँ पूर्व मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह द्वारा भ्रूण-हत्या की रोकथाम के लिए, किए गए कार्यों के सीधे परिणाम नज़र आ रहे हैं। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने भी जुलाई 2015 में मुख्यमंत्री सिंह की प्रशंसा करते हुए कहा था कि महिला-पुरुष अनुपात के मामले में छत्तीसगढ़ देश के अग्रणी राज्यों में से एक है। सुचिता योजना के तहत रमण सरकार ने विद्यालयों में बालिकाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन्स भी वितरित करवाए थे। महिलाओं को ध्यान में रख कर चलाई गई ऐसी गई योजनाओं के परिणाम के रूप में छत्तीसगढ़ ने भारतीय राज्यों में दूसरा स्थान प्राप्त किया है।
हमने देखा कि कैसे सिक्किम, छत्तीसगढ़ और नागालैंड जैसे छोटे राज्यों ने बाल लिंगानुपात की सूची में बेहतर स्थान प्राप्त किया तो आंध्र प्रदेश जैसे राज्य बदतर स्थिति में हैं। एक और बड़े राज्य तमिलनाडु की स्थिति भी काफ़ी बदतर है। 2007-18 के दशक में पहले छह सालों में जहाँ तमिलनाडु में बाल लिंगानुपात 900 से नीचे नहीं गिरा, वहीं 2014-16 तक तो यह 800 से भी कम रहा। 2016 में 840 के साथ यह बाल लिंगानुपात के क्षेत्र में देश के सबसे बदतर राज्यों में से एक साबित हुआ। पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता की मृत्यु के बाद राजनीतिक रूप से अस्थिरता झेल रहा राज्य 2015 में राजस्थान के बाद सबसे कम लिंगानुपात वाला राज्य था।
अगर केंद्र-शासित प्रदेशों की बात करें तो सातों केंद्र-शासित प्रदेशों में लिंगानुपात का आँकड़ा 900 के पार रहा। अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह अव्वल रहा तो चंडीगढ़ 901 लिंगानुपात के साथ अंतिम स्थान पर रहा। दिल्ली की बात करें तो वर्ष 2008 में यहाँ बाल लिंगानुपात 1000 को पार कर गया था, जिसके बाद लगा था कि दिल्ली इस मामले में पूरे देश को राह दिखाएगी लेकिन 2008 के मुक़ाबले 2016 में यह आँकड़ा सिर्फ़ 902 रह गया।
आंध्र प्रदेश के साथ जिस राज्य ने ताल से ताल मिलाई, वह है राजस्थान। राजस्थान और आंध्र प्रदेश का बाल लिंगानुपात समान रहा और दोनों ही राज्य पूरे देश में फिसड्डी रहे। राजस्थान में 2014-15 में तो यह आँकड़ा 800 से भी कम रहा। राज्य में भ्रूण-हत्या रोकने और बालिकाओं की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। पहाड़ी राज्य उत्तराखंड उपर्युक्त दोनों राज्यों के बाद देश का दूसरा सबसे फिसड्डी राज्य रहा और 825 बाल लिंगानुपात के साथ राजस्थान, उत्तराखंड और बिहार (837) के साथ क़दमताल करता दिखा। उत्तराखंड में तो 10 सालों में बाल लिंगानुपात कभी 900 की संख्या को पार ही नहीं कर पाया।
एक और बड़े दक्षिण भारतीय राज्य कर्नाटक की स्थिति भी ख़राब है। 2007-09 के दौरान लगातार तीन वर्षों तक कर्नाटक बाल लिंगानुपात के क्षेत्र में पूरे भारत में सबसे अग्रणी राज्य रहा। 2007-10 तक यहाँ बाल लिंगानुपात 1000 के पार रहा। 2011 से इसमें गिरावट शुरु हो गई जो 2015 तक नहीं रुकी। 2016 में भी 896 लिंगानुपात के साथ राज्य बेहतर स्थिति में नहीं है।
यहाँ ओडिशा राज्य की बात करनी ज़रूरी है क्योंकि ओडिशा पूरे भारत में एकमात्र ऐसा राज्य है जहाँ 2009-18 के बीच 9 वर्षों में बाल लिंगानुपात किसी भी वर्ष बढ़ा ही नहीं। 2009 के बाद साल दर साल ओडिशा में बाल लिंगानुपात घटता ही गया और 935 से 858 पर आ गया। इन 9 सालों में एक भी ऐसा साल नहीं आया जब ओडिशा में बाल लिंगानुपात में घटोतरी न दर्ज़ की गई हो। राज्य के लिए यह आँकड़ा भयावह है और चौंकाने वाला भी। एक स्थिर व लम्बे कार्यकाल वाली सरकार और एक मज़बूत मुख्यमंत्री के रहते बाल लिंगानुपात का लगातार कम होना चिंता का विषय होना चाहिए। राज्य को इस क्षेत्र में आत्ममंथन की ज़रूरत है क्योंकि ऐसी स्थिति देश के किसी भी अन्य राज्य में नहीं बनी है।