प्रीतम भरतवाण का नाम सुनते ही उत्तराखंड लोक कला और संस्कृति की वो विरासत दिमाग में कौंधती है जो विलुप्ति के कगार पर खड़ी है। कारण है कि उत्तराखंड जैसा राज्य जो विभिन्न जनजातीय समाज और सभ्यताओं से मिलकर बना है, आज पलायन, बेरोज़गारी और प्रशासन की बेख़याली की मार झेल रहा है। उत्तराखंड राज्य को ‘देवभूमि’ के नाम से भी जाना जाता है, लेकिन यहाँ का एक दूसरा सत्य अभाव और संसाधनहीनता भी है।
ऐसे समय में उत्तराखंड की सुदूर जगहों के रहने वाली ऐसी हस्ती और उसकी विद्या को ढूँढकर उसे पद्म श्री से गौरवान्वित करने का जो काम वर्तमान सरकार ने किया है, वो हर लिहाज़ से सराहनीय है।
इस गणतंत्र दिवस पर भारत सरकार ने चिरकालिक प्रथा से बाहर निकलकर ऐसे लोगों को चुनकर उन्हें सम्मान देने का काम किया है, जो अब तक किसी ना किसी कारण से नज़रअंदाज़ किए जा रहे थे। इसी क्रम में जो एक नाम पद्म श्री पुरुस्कार की श्रेणी में आया, वो है प्रीतम भरतवाण यानि उत्तराखंड गढ़वाल के मशहूर ‘जागर सम्राट’।
जिस उम्र में बच्चे अपने माँ-बाप की उँगली पकड़कर चलना सीखते हैं, उस उम्र में प्रीतम के हाथों ने ‘ढोल-दमाऊँ’ थामा था। उत्तराखंड के लोक संगीत और वाद्य यंत्रों को विलुप्ति के अंधेरे से विश्व पटल पर लाने का श्रेय आज निसंदेह इस सरस्वती पुत्र को जाता है।
देवताओं की इस धरती पर यदि सबसे पहले किसी को नमन किया जाना चाहिए तो वह यह ‘दास समुदाय’ है जिन्हे स्थानीय भाषा में ‘औजी’ कहा जाता है, जिनके आह्वान से ही किसी भी शुभ कार्य या समारोह में सर्वप्रथम देवी-देवताओं का स्मरण किया जाता है। सांस्कृतिक देवताओं के साथ ही उत्तराखंड में स्थानीय देवताओं का भी बहुत महत्त्व है, जिनके स्मरण के लिए ‘औजी’ ढोल-दमाऊँ के साथ ‘जागर’ आदि गाते हैं। गढ़वाल में प्रत्येक सुबह, 4-5 बजे के बीच, उठकर गाँव के औजी ढोल-दमाऊँ द्वारा ‘नौबत’ बजाते हैं और साँझ गोधूलि पर भी ढोल-दमाऊँ के ज़रिए देवताओं को प्रणाम करते हैं।
उत्तराखंड अपनी सभ्यता के अंतिम पड़ाव पर है-
एक समय था जब उत्तराखंड में सभ्यताओं का महाकुम्भ हुआ करता था। सभ्यताओं की सजीव प्रतिमा, यह राज्य, आज उपेक्षाओं के कारण एक त्रासदी से गुजर रहा है। त्रासदी यह है कि अवसरों की कमी और साधनों की कमी के कारण यह राज्य अपनी तमाम पिछली विरासतों से विमुख होकर पलायन के लिए मजबूर है। सबसे त्रासद अगर आज के समय में कुछ है तो वह यही ‘औजी वर्ग’ है। इस वर्ग के लिए ढोल सागर अपनी अगली पीढ़ियों तक पहुँचाना इसलिए चुनौती बन रहा है क्योंकि इस कार्य से उनका पेट नहीं भरता है। सरकार को चाहिए कि उन्हें संरक्षण देकर इस विधा को जीवित रखने का प्रयास करें।
प्रीतम भरतवाण इसी कारण सम्मान के पात्र बने हैं। एक ओर जहाँ गढ़वाल का औजी इस ढोल विद्या को हीन समझकर त्याग रहा था, उसी वक़्त प्रीतम भरतवाण ने अपनी विद्या को सरस्वती बनाकर एक अनोखी मिसाल क़ायम की है। प्रीतम भरतवाण ने इस विरासत को बेहद सादगी से प्रणाम कर ढोल को अपने गले में धारण कर ऐसा जूनून दिखाया कि आज वह देश-विदेशों में अपनी इस कला के लिए सम्मानित किए जा रहे हैं और एक बहुत बड़ा वर्ग उनका प्रशंसक है।
प्रीतम भरतवाण ने गढ़वाल की विलुप्त होती ढोल विधा को परिमार्जित कर समाज पर अनुग्रह किया है। अपने प्रोग्राम के दौरान भी संगीत गाते-बजाते उनका अंग-अंग थिरकता है। उनके दैवीय जागरों को सुनकर नास्तिकों के सर भी देवताओं के सम्मुख अवनत हो जाते हैं। वह सगुण और निर्गुण दोनों भक्तिधारा के उपासक हैं।
एशिया से यूरोप, अमेरिका, कनाडा, जर्मनी, दुबई तक संगीत की ‘जागर’ विधा को पहुँचाने और सम्मान दिलाने का काम प्रीतम भरतवाण ने किया है। आज हालात यह हैं कि देश-विदेश में उनके अनेक शिष्य हैं। बचपन से ही प्रीतम के कण्ठ में सरस्वती जाग्रत रूप में विराजमान हैं, सरस्वती इन्हें सिद्धस्त हैं। अपने बचपन का स्मरण करते हुए प्रीतम भरतवाण ने बताया कि गाँव में जब भी जागर का कोई कार्यक्रम होता था सबसे पहले ‘पिर्ति’ को ही बुलाया जाता था।
स्टेज पर उनके ‘लाइव’ कार्यक्रम देखते और सुनते समय दर्शकों को अपने भीतर किसी दैवीय चेतना का अनुभव होता है और कई लोग दैवीय स्वर में झूमने लगते हैं। प्रीतम भरतवाण बेहद सौम्य व्यव्हार के विराट व्यक्तित्व के धनी पुरुष हैं, इनके व्यक्तित्व की खासियत है कि बचपन के ‘पिर्ति’ की विनम्रता अभी भी उनके व्यक्तित्व में ज्यों की त्यों विद्यमान है।
विरासत में मिली इस सभ्यता को अपने दादा और पिता की तरह ही श्री भरतवाण जी ने भी ढोल वादन को आगे बढ़ाया। मात्र 6 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने विरासत में मिले ढोल वादन और जागर गायन के अपने हुनर का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। उनके घर पर ढोल, डौर-थाली जैसे कई उत्तराखंडी वाद्य यंत्र हुआ करते थे। इसके साथ ही उनके घर में भी संगीत का मौहाल था। वह अपने पिता के साथ गाँव-घरों में गाए जाने वाले जागरों में संगत करने लगे।
लेकिन जागर प्रीतम भरतवाण के संगीत का सिर्फ़ एक पहलू है। अपने संगीत के माध्यम से उन्होंने पहाड़ के अनेक पहलुओं पर गीत लिखे और गाए हैं। ख़ासकर, लोक संगीत पर उनकी पकड़ बेहद मजबूत रही है। लोक जागर के अलावा उन्होंने पहाड़ के दुरूह जीवन का चित्रण करते और पहाड़ से पलायन का दर्द भी अपने गीतों के माध्यम से बयाँ किया है।
अपने बेहद प्रचिलित गीत ‘आज कुजणी किलैई, गौं की याद आणि चा’ में उन्होंने पहाड़ से दूर रहने वाले व्यक्ति की पीड़ा को रखा है। ‘हम कुसल छौं माजी दगड्यून दगड़ी’ गाना सीमा पर तैनात सेना के जवानों की मनोस्थिति पर लिखा और गाया है। इसके अलावा उन्होंने ‘घुट-घुट बाडुलि लगिगे’ जैसे ‘खुदेड़’ लोकगीत भी गाए हैं। ‘धनुली मेरु जिया लगिगे’ और ‘सुंदरा छोरी’ प्रेम मनुहार वाले गाने हैं।
भले ही उनकी पहचान ‘जागर सम्राट’ की है, लेकिन वे गायकी की हर विधा के धनी हैं। अनेक प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय संस्थाएँ प्रीतम भरतवाण को सम्मानित कर चुकी हैं, फिर भी एक अटल तपस्वी की भाँति वे निर्विकार संगीत साधना में लीन हैं।
प्रीतम भरतवाण के प्रयासों का ही नतीजा है कि कभी ‘औजी’ या दास (ढोलवादक) समुदाय तक सीमित रहे जागर आज न केवल समाज के सभी वर्गों में सुने और गाए जाते हैं, बल्कि उन्हें पूरा सम्मान भी दिया जाता है। उनकी इन उपलब्धियों के लिए ही भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से सम्मानित करने का निर्णय लिया।
‘जागर’ क्या है?
‘जागर’ का अर्थ सामान्य शब्दों में ‘जागृत करना’ होता है। उत्तराखंड में ग्राम्य देवताओं का विशेष महत्त्व रहा है और उनकी पूजा की जाती है, जैसे नरसिंह, गंगनाथ, गोलु, भनरीया, काल्सण आदि। कुछ देवताओं को स्थानीय भाषा में ‘ग्राम्य देवता’ कहा जाता है। ग्राम्य देवता का अर्थ गाँव का देवता है। उत्तराखंड की जाति और जनजातियाँ इन्हीं देवताओं को जगाने हेतु ‘जागर’ लगाते हैँ। जागर में ‘जगरिया’ मुख्य पात्र होता है जो रामायण, महाभारत आदि धार्मिक ग्रंथों से होते हैं। इसी जागर मंचन (जैसे देवी/देवता ऊर्जा रूप में शरीर में आ गए हों) के साथ ही जिस देवता का आवाह्न करना होता है, उस देवता के चरित्र को स्थानीय भाषा में वर्णन करता है। ‘औजी’ ढोल-दमाऊँ बजाने के साथ-साथ जगरीया हुड्का (हुडुक) कहानी गाता है।
प्रीतम भरतवाण संक्षिप्त परिचय :
प्रीतम भरतवाण उत्तराखंड के टिहरी जिले के जौनपुर विकासखंड के सिला गाँव के रहने वाले हैं। इस संगीत सम्राट का जन्म और बचपन बहुत कठिनाई में गुजरा है । प्रीतम का जन्म एक ‘औजी’ परिवार में हुआ है, जिस कारण लोक संगीत उन्हे विरासत में मिला है।
वर्ष 2000 के बाद से उत्तराखंड राज्य की अलग से स्थापना के बाद कुछ हद तक यहाँ की दूरस्थ जाति-जनजातियों को पहचान मिलनी शुरू हुई। हालाँकि, एक सत्य यह भी है कि तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उत्तराखंड राज्य पलायन जैसे अभिशाप जीने के लिए मजबूर है, जब गाँव ही नहीं रहे तो सभ्यताएँ किस तरह से जीवित रहेंगी, यह वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है।
प्रीतम भरतवाण के दादा और पिता भी जाने-माने ढोल वादक थे, जिन्होंने पूरा जीवन सरस्वती की साधना में लगाया। जागरों, लोकगीत और पंवाणों के ज्ञाता श्री भरतवाण जी को उत्तराखंड के लोक संगीत में उल्लेखनीय योगदान देखते हुए विगत वर्ष उन्हें उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय (UOU) हल्द्वानी, कुमाऊँ ने (डॉक्ट्रेट) मानद उपाधि से गवर्नर के हाथों सम्मानित किया है।
प्रीतम की शुरूआती शिक्षा गाँव के पास ही एक विद्यालय में हुई। संगीत के प्रति रूझान और उनकी कला की पहचान सबसे पहले स्कूल में ‘रामी-बारौणी’ नाटक में बाल आवाज़ देने से हुई। उन्होंने मसूरी के एक नृत्य-नाटक में डांस किया, जिसके बाद स्कूल के शिक्षकों की उन पर नज़र पड़ी और वे उनका हुनर पहचान गए। इसके बाद तो उन्हें स्कूल के हर कार्यक्रम में गाने का मौका मिलने लगा। सबसे ख़ास बात यह रही कि मात्र 12 साल की उम्र में ही उन्होंने लोगों के सामने जागर गाना शुरू कर दिया था। उनके जीजाजी और चाचाजी से उन्हें जागर गाने के लिए प्रोत्साहित किया और वे उन्हें इसका पूरा श्रेय देते हैं।
उनकी सादगी का परिचय इसी बात से मिलता है कि जब उत्तराखंड के महामहिम राज्यपाल, श्रीमती बेबी रानी मौर्य द्वारा उन्हें मानद उपाधि भेंट की गई तो उनके शब्द थे, “मैं अपने पूर्वजों तथा जागर, पंवाणों, ढोल सागर, ढोल दमों, हुड़का, डौंर, थाली को एवं अपने सम्मानीय श्रोताओं, शुभचिंतकों, मार्गदर्शकों को कोटिशः नमन करता हूँ।”
स्थानीय स्तर पर गायकी और ढोल वादन को सराहना मिली तो प्रीतम भरतवाण ने 1988 में आकाशवाणी के लिए गाना शुरू कर दिया। 4 साल बाद उनका पहला ऑडियो एल्बम ‘रंगीली बौजी’ बाजार में आया, जिसे खूब पसंद किया गया। इसके बाद प्रीतम ने एक के बाद एक तौंसा बौ, पैंछि माया, सुबेर, सरूली, रौंस, तुम्हारी खुद, बाँद अमरावती जैसे सुपरहिट एलबम निकाले। अब तक 50 से अधिक एल्बम में वे 350 से ज्यादा गाने गा चुके हैं।
प्रीतम भरतवाण से पहले वर्ष 2017 में जागर को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए बसन्ती बिष्ट को भी पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। कई वर्षों से समाज और सरकारों की उपेक्षा और संसाधानों के अभाव से दास समुदाय ढोल और दमाऊँ बजाने से परहेज कर रहे थे। ऐसे मौके पर प्रीतम भरतवाण ने ढोल-दमाऊँ को बजाना शुरु किया और नई पहचान दिलाई। उम्मीद है कि भारत सरकार द्वारा उन्हें इस विधा के लिए पुरस्कृत करना औजी समुदाय के लिए प्रेरणा का कार्य करेगा और विलुप्त होती यह परम्परा एक बार फिर जीवित हो उठेगी।
इन दिनों भरतवाण जी पहाड़ी संस्कृति का झंडा अमेरिका में बुलंद कर रहे हैं। अपने अमेरिका प्रवास में वह ओहायो की सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में अमेरिकियों को ढोल-दमाऊँ की बारिकियाँ सिखा रहे हैं।