Sunday, November 17, 2024
Homeदेश-समाजसेकुलर भारत के राष्ट्रपति भवन में 'मुग़ल गार्डन': ग़ुलामी के प्रतीकों पर गर्व करने...

सेकुलर भारत के राष्ट्रपति भवन में ‘मुग़ल गार्डन’: ग़ुलामी के प्रतीकों पर गर्व करने वाली अकेली प्रजाति

ये तमाम नाम आतंकियों की तरह पढ़े जाएँ न कि क़ाबिल शासकों की तरह। इनके कुकृत्यों का ज़िक्र हो किताबों में न कि 'ढिमका-ए-इलाही' मज़हब का। इन्हें 'मुग़ल सल्तनत' नहीं, 'मुग़लिया आतंकियों के हमले का दौर' मानकर पढ़ाया जाए।

ख़बर आई कि कल से राष्ट्रपति भवन परिसर का ‘मुग़ल गार्डन’ आम जनता के लिए खोल दिया जाएगा। हर साल ये ख़बर आती है, लोग घूमने जाते हैं, राष्ट्रपति जी स्वयं इसे जनता के लिए खोलते हैं। सवाल यह आता है कि जिस देश में केन्द्रीय विद्यालय में संस्कृत प्रार्थना पर सुप्रीम कोर्ट पहुँच जाते हैं लोग, उस देश में आतंकी मुग़लों के नाम पर गार्डन क्यों है?

क्योंकि जहाँ तक इनका इतिहास रहा है, इनके गार्डन तो ख़ून से सने रहे हैं, फिर इन्हें गार्डन और फूल किस कारण दिया जा रहा है? दूसरी बात यह है कि जिस समय हिन्दी नाम से लेकर, संस्कृत प्रार्थना और नेताओं के दिवाली मनाने तक को साम्प्रदायिक क़रार दिया जा रहा है, उस समय इन आतंकियों के नाम पर ये गार्डन है ही क्यों? गार्डन का नाम ‘कलाम गार्डन’ कर दो जो कि एक आदर्श नागरिक थे, भारत रत्न थे। आक्रांताओं के नाम पर गार्डन! 

अब यह न कहा जाए कि ये उद्यान मुग़ल स्टाइल में हैं इसलिए इसका नाम ऐसा है। बात यह है कि आतंकियों, लुटेरों, बलात्कारियों, हत्यारों, नरसंहारकों, मूर्तिभंजकों, आतताइयों, धर्मांध अत्याचारियों आदि के नाम से कुछ भी है ही क्यों इस देश में? अगर इस देश के एक तबके को वन्दे मातरम में मूर्ति दिखती है, और संस्कृत प्रार्थना में हिन्दू धर्म, तो जिन लाखों लोगों को काटकर, हज़ारों मंदिरों को तोड़कर, लूटपाट और आगजनी करते हुए इन आतंकियों का शासन चला, उनके नाम के जश्न मनाएँ?

दिल्ली सल्तनत, मुग़ल वंश और ब्रिटिश राज पर दसियों पन्ने इतिहास की किताबों में पढ़ाने और सारे प्रतियोगी परीक्षाओं में उनके गुणगान, महानता और मानवीय छूटों के बखान को दिमाग में ड्रिल कर घुसवाने वाली प्रजाति भारतीय कही जाती है। बहुत ही सहजता से कुल तीन पन्नों में आपको गुप्त वंश, मौर्य वंश, चोल, पांड्य, चेर, सातवाहन आदि को पैराग्राफ़ दे-देकर समेट दिया जाता है। बताया जाता है कि 200 साल तक ग़ुलाम बनाकर रखने वाले, हम पर बलात्कार करने वाले और तलवार की नोक परधर्म परिवर्तन कराने वाले आतंकी शासकों के साम्राज्य में सूर्यास्त नहीं होता था और फलाना आदमी कितना महान था! 

बलात्कारियों, हत्यारों और नरसंहारों को अंजाम देने वालों के नाम पर हमने सड़कें बनवाई हैं। नालंदा के विश्वविद्यालय में छः फ़ीट लम्बी घास उग रही है, और उसे तबाह करने वाले के नाम पर बगल ही में शहर बसा हुआ है! बोधगया के मंदिरों की हालत बदतर होती जा रही है, हिन्दू मंदिरों से आने वाले दान का नियंत्रण मंदिरों के पास नहीं, और वहीं इस्लामी आक्रांताओं के ख़ूनी साम्राज्य की गवाही देती इमारतों के संरक्षण में सरकारें करोड़ों ख़र्च करती रहती हैं। 

लालक़िला से आज़ादी का झंडा फहराया जाता है। क्या हुआ जो तुम्हारी दस-बीस पीढ़ी पहले हुई औरतों का बलात्कार किया गया? क्या हुआ जो तुम्हारे पूर्वजों को हज़ारों की संख्या में काटा गया? क्या हुआ जो तुम्हारे सारे संसाधन लूट कर कोई ले जाता रहा? अरे उन्होंने यहाँ से वहाँ तक राज किया! अरे उन्होंने ताजमहल बनवाया, लालक़िले बवनाए, क्रिकेट दिया, अंग्रेज़ी भाषा दी, उर्दू दी… और हाँ नाला-नाली तहज़ीब भी! वही तहज़ीब जिसका भार एक ही तरफ़ के लोग उठाते रहते हैं, और दूसरी तरफ़ के बहुत लोगों के लिए देश असहिष्णु हो गया है।

एक संसद भवन तो हम बनवा न सके, कहाँ से ग़ुलामी मानसिकता से बाहर आ पाएँगे! तुम्हारे सैनिकों को मरने विश्वयुद्ध में भेज दिया और दिल्ली में बना दी इंडिया गेट, लिख दिए गए नाम शहीदों के और तुमसे इस ग़ुलामी के प्रतीक को ध्वस्त करना न हुआ। तुमसे किसी नए स्मारक पर उनका नाम स्थानांतरित न हुआ। तुमने जॉर्ज पंचम की मूर्ति को संभालकर बुराड़ी में रखा हुआ है ताकि हमें याद रहे कि हमें कितनी ख़ूबसूरती से लूटा गया! 

दुनिया के इतिहास में एक तो पाकिस्तान है जो गौरी, गजनी जैसे लुटेरों को सेलिब्रेट करता है क्योंकि वो मजहब विशेष के थे। इस्लामी होना काफी है, भले ही वो बलात्कारी हों, तुम्हारी माँओं का बलात्कार किया, उनके बापों के सर पर तलवार रखकर इस्लाम कबूल करवाया, लेकिन उसने भारत में आतंक मचाया तो वो पाकिस्तान के हीरो हैं। ख़ैर, पाकिस्तान की बात तो अलग ही है। 

बाकी देशों के इतिहास देख लीजिए, जिनके लोगों में थोड़ी सी भी शर्म थी, थोड़ा भी गौरव था अपने इतिहास और संस्कृति को लेकर, उन सबने आज़ादी पाते ही सबसे पहले आक्रांताओं के सारे चिह्न मिटाए। हमारे लिए वो ज़रूरी नहीं था क्योंकि हमारे नेता लोग अंग्रेज़ों के संसद से राज चलाने तक के लिए राज़ी थे। हमारे लिए ज़रूरी था कि हमें मालिकों ने अंग्रेज़ी दी। हमने मुग़लों के स्मारकों को नहीं तोड़ा क्योंकि यहाँ के समुदाय विशेष के वो आदर्श हो गए थे और ऐसे लुटेरों के चिह्न हमारा ‘समृद्ध इतिहास’ हो गए। 

हमने हर विदेशी को ऐसे देखा मानो हम गरीबी, बीमारी, और भुखमरी से मर रहे थे, फिर वो आए और हमें खाने को दिया, पढ़ना सिखाया, काम करना सिखाया और उसके बदले में फीस भी नहीं ली। जब हम सभ्य हो गए तो वो चले गए। इस्लामी आतंकियों के नाम पर सड़के, गाँव, ज़िले और नगरों के नाम क्यों हैं, ये मेरी समझ से बाहर है। चाहे वो शाहजहाँ हो, बाबर हो, अकबर हो, ऐबक हो, रज़िया हो या कोई और। वो चोर, बलात्कारी, लुटेरे और आतंकी थे, उनकी निशानियाँ हम क्यों ढो रहे हैं, मेरी समझ के बाहर हैं। 

‘उन्होंने क्या किया’ से पहले ये जानना ज़रूरी है कि उन्हें वैसा करने के लिए बुलाया किसने था? लुटेरों का झुंड आता है, तुम्हारी बहनों के साथ बलात्कार करता है, तुम्हारे परिवार को नमाज़ी बनाता है, और तुम बाद में उसे खाना देते हो, उसके पाँव दबाते हो। वो मरता है तो तुम्हारे बच्चे उसके बच्चों के पाँव दबाते हैं। फिर उनके बच्चे उनके बच्चों के… ये किस तरह की मानसिकता है? 

लोग ये भूल गए हैं कि भले ही उनका धर्म आज कुछ भी है, लेकिन स्वेच्छा से भी धर्म बदलने के बावजूद वो उन आतंकी शासकों को कैसे भला कह सकते हैं जिनका मूल उद्देश्य लूट और हत्या थी। वो ये कैसे भूल जाते हैं कि हर मंदिर को तोड़ने वाले लुटेरों की फ़ौज को जस्टिफाय नहीं किया जा सकता। 

अंग्रेज़ गए तथा अपनी सत्ता और लूट को व्यवस्थित बनाकर चलाने के लिए उन्होंने जो ढाँचे बनाए थे उन्हें हम उनका महान योगदान समझकर पूजते हैं। लोग कहते पाए जाते हैं कि उन्होंने रेल दी, डाक दिया, कई बिल्डिंगें दी… क्या हमने माँगी थी? या हम मर रहे थे उनके बिना? उनके बाप-दादा जब कुल्हाड़ी लेकर लड़ रहे थे, उससे दो हज़ार साल पहले यहाँ लोकतंत्र भी था, दर्शन भी था, विकेन्द्रीकरण से चलने वाली व्यवस्था भी थी, शिक्षित और समृद्ध समाज भी था। उन्होंने कुछ नहीं दिया। हजारों भाषाओं वाली ज़मीन पर अंग्रेज़ी लाना कोई उपहार नहीं, ग़ुलाम मानसिकता को बरक़रार रखने की सोच है। 

बाबर हर जगह से दुत्कारा और भगाया हुआ इस्लामी आतंकी लुटेरा था, जिसके पास कहीं जाने को नहीं था। वो अगर कहीं जा सकता तो गजनी-गौरी-शाह-खान की तरह समान लूटकर वापस चला जाता। यहाँ रुकना उसका चुनाव नहीं, मजबूरी थी। सेक्स किया तो बच्चे भी हुए, और उनके पास भी घर नहीं था कि वापस कहीं जाते। बाकी का काम यहाँ के राजाओं ने एक दूसरे की मदद न करके कर दी। और हम उनके नाम से सड़कें बनवाकर इस बात पर उलझे हैं कि वो रहमदिल था कि नहीं! 

ये इतिहास कोई भव्य नहीं है कि उसे संरक्षित किया जाए। ब्रिटेन अपनी लूट और नरसंहारों की दास्तान अपनी किताबों में नहीं पढ़ाता। उनके बच्चों को पता भी नहीं कि चर्चिल ने पचास लाख लोगों को बंगाल में अकाल ‘लाकर’ में मार दिया, जबकि वो गेहूँ भारत से निकालकर युद्ध की तैयारी का बफ़र स्टॉक तैयार कर रहा था। लेकिन हमने लालक़िला बचाया हुआ है, संसद भवन बचाकर रखा हुआ है, लुटयन ज़ोन में होने पर गर्व महसूस करते हैं। 

तुम ग्रीक नस्ल नहीं हो, तुम रोमन नहीं हो कि तुम्हारे लोगों ने बाहर जाकर साम्राज्य बढ़ाया तो उनकी मूर्तियाँ चौराहों पर लगाकर, उनके नाम सड़कें, शहर और नगरों पर लगा दिया। तुमने अपने लुटेरों, हत्यारों और बलात्कारियों के नाम अपने चारों तरफ़ ऐसे लगा रखे हैं मानो वो न होते तो तुम्हारी ज़िंदगी बेकार होती। 

ऐसे हर चिह्न को मिटाना ज़रूरी है जो एक प्रतीक के रूप में हमारी आँखों के सामने है। ये काम पंद्रह अगस्त 1947 को शुरु होना चाहिए था और हर भारतीय को ग़ुलामी की हर इमारत, किले और प्रतीकों को ध्वस्त करते रहना चाहिए था। हमारी संसद किसी टेंट में चल सकती थी, तिरपाल खींचकर संविधान समिति संविधान बना लेती। लेकिन वो नहीं हुआ, उसके उलट आज़ादी का पहला भाषण हमने औपनिवेशिक भाषा में दिया जबकि अट्ठाइस भाषाएँ उपलब्ध थीं चुनने के लिए। 

ये सब बताता है कि हमारे नेताओं की मानसिकता कैसी थी। जो इस देश की दिशा बदल सकते थे, स्वाभिमान का दौर ला सकते थे, उन्होंने अंग्रेज़ों और मुग़ल आतंकियों के घरों में रहकर नए देश की दिशा तय की। उन्होंने उनके कानून रखे, उनकी इमारतें रखीं, और उन्हीं की भाषा में हमारे देश का आने वाला भविष्य लिखा। 

मेरी इच्छा है कि ये तमाम इमारतें गिरा दी जाएँ, ये सारे चिह्न मिटा दिए जाएँ जो हम पर हुए हमलों की याद दिलाते हैं। मेरी इच्छा है कि ये तमाम नाम आतंकियों की तरह पढ़े जाएँ न कि क़ाबिल शासकों की तरह। इनके कुकृत्यों का ज़िक्र हो किताबों में न कि ‘ढिमका-ए-इलाही’ मज़हब का। इन्हें ‘मुग़ल सल्तनत’ नहीं, ‘मुग़लिया आतंकियों के हमले का दौर’ मानकर पढ़ाया जाए, और उन तमाम नामों को सामने लाया जाए जिन्होंने लगातार इनके ख़िलाफ़ आवाज़ें उठाईं। 

जिसे ‘भारत का इतिहास’ कहकर उपन्यास रूप में पढ़ाया जाता है, वो इतिहास नहीं, इतिहास पर किया गया हमला है। उसमें किसी भी तरह की सकारात्मकता ढूँढना ये बताता है कि हम एक कायर और पराश्रित नस्ल हैं जिसके पास न तो स्वाभिमान है, न ये क्षमता कि वो अपने सही इतिहास को जान सके, और गलत को ठीक कर सके। 

Join OpIndia's official WhatsApp channel

  सहयोग करें  

एनडीटीवी हो या 'द वायर', इन्हें कभी पैसों की कमी नहीं होती। देश-विदेश से क्रांति के नाम पर ख़ूब फ़ंडिग मिलती है इन्हें। इनसे लड़ने के लिए हमारे हाथ मज़बूत करें। जितना बन सके, सहयोग करें

अजीत भारती
अजीत भारती
पूर्व सम्पादक (फ़रवरी 2021 तक), ऑपइंडिया हिन्दी

संबंधित ख़बरें

ख़ास ख़बरें

दिल्ली सरकार के मंत्री कैलाश गहलोत का AAP से इस्तीफा: कहा- ‘शीशमहल’ से पार्टी की छवि हुई खराब, जनता का काम करने की जगह...

दिल्ली सरकार में मंत्री कैलाश गहलोत ने अरविंद केजरीवाल एवं AAP पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाकार पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया है।

क्या है ऑपरेशन सागर मंथन, कौन है लॉर्ड ऑफ ड्रग्स हाजी सलीम, कैसे दाऊद इब्राहिम-ISI के नशा सिंडिकेट का भारत ने किया शिकार: सब...

हाजी सलीम बड़े पैमाने पर हेरोइन, मेथामफेटामाइन और अन्य अवैध नशीले पदार्थों की खेप एशिया, अफ्रीका और पश्चिमी देशों में पहुँचाता है।

प्रचलित ख़बरें

- विज्ञापन -