हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवारलाल नेहरू भारतीय इतिहास के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक रहे हैं। लगभग 17 वर्षों तक दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान जवाहरलाल नेहरू की कई ऐसी भी नीतियाँ रही हैं, जिनके परिणाम देश आज तक भुगत रहा है। हमने एक विकीलीक्स केबल के माध्यम से बताया था कि अमेरिका सोचता है कि अगर नेहरू ने सरदार पटेल की बात मान ली होती तो सिक्किम को भारत का हिस्सा बनने में 25 साल नहीं लगते।
इसी तरह नेहरू की लचर कश्मीर नीति पर भी बात होती रही है। इस मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ले जाकर नेहरू ने कश्मीर मुद्दे को और उलझा दिया था। नेहरू ने सेना की ज़रूरतों पर भी ध्यान नहीं दिया और एक बार तो उन्होंने रक्षा नीति की आवश्यकता को ही नकार दिया था। इसी तरह जिस चीन को नेहरू अपना दोस्त मान कर अन्य नेताओं की चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करते रहे, उसी चीन ने भारत की पीठ में छुरा घोंपा और 1962 युद्ध में भारत को भारी क्षति हुई।
आज चीन को लेकर ख़बर आई है कि उसने एक बार फिर से मसूद अज़हर को आतंकी घोषित करने की भारत की माँग को सुरक्षा परिषद में ठुकरा दिया। चीन के इस रवैये के कारण मसूद अज़हर को ग्लोबल आतंकी घोषित नहीं किया जा सका। चीन के इस रवैये से न सिर्फ़ भारत बल्कि अमेरिका व अन्य देश भी परेशान हो चले हैं। लेकिन, क्या आपको पता है कि चीन के इस दुःसाहस के पीछे जवाहरलाल नेहरू की लचर नीतियाँ रही है। चीन आज सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है और भारत नहीं है। इसमें भी जवाहरलाल नेहरू के एक निर्णय का हाथ है। ऐसा ख़ुद कॉन्ग्रेस पार्टी के ही नेता व पूर्व राजनयिक शशि थरूर ने लिखा है। भारत के पूर्व विदेश राज्यमंत्री ने अपनी पुस्तक ‘Nehru: The Invention Of India‘ में लिखा है कि नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता ठुकरा दी थी। बकौल थरूर, उन्होंने इसे से सम्बंधित फाइलें UN में देख रखी हैं।
आतंकवादी मसूद अजहर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने पर आज चीन को छोड़कर पूरी दुनिया भारत के साथ खड़ी है। ये एक तरह से भारत की कूटनीतिक जीत है : श्री @rsprasad
— BJP (@BJP4India) March 14, 2019
नेहरू ने सुझाव देते हुए कहा था कि ये सीट चीन को दे दी जाए। थरूर लिखते हैं कि नेहरू चीन के प्रति सहानुभूति वाला रवैया रखते थे। नेहरू की विदेश नीति की बात करें तो बाबासाहब भीमराव अंबेडकर की बातों को समझना पड़ेगा। बाबासाहब ने नेहरू की आलोचना करते हुए कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। अपने इस्तीफा पत्र में उन्होंने नेहरू की विदेश नीति की ख़ासी आलोचना की थी। इस बारे में प्रकाश नंदा ने न्यूज़ 18 में एक ब्लॉग लिख कर अधिक जानकारी दी थी। अंबेडकर के इस्तीफा पत्र की बात करते हुए नंदा ने बताया कि वो मानते थे कि आज़ादी के समय कोई भी ऐसा देश नहीं था जिसने भारत के लिए बुरा सोचा हो। सभी देश भारत के दोस्त थे। बकौल अंबेडकर (सितम्बर 7, 1951), चार वर्षों बाद स्थिति एकदम उलट गई थी। उन्होंने अपने पत्र में लिखा है, “विश्व पटल पर भारत आज अलग-थलग हो गया है और संयुक्त राष्ट्र में हमारे प्रस्तावों का समर्थन करने वाला कोई देश नहीं बचा है।”
उन्होंने लचर पाकिस्तान नीति के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराते हुए लिखा था कि वे कश्मीर मुद्दा और पूर्वी बंगाल के लोगों पर हो रहे अत्याचार को देख कर व्यथित थे। उन्होंने भारत को पूर्वी बंगाल में रह रहे अपने लोगों के साथ खड़े रहने को कहा था। पूर्वी बंगाल के हिन्दुओं की चिंता करने के साथ-साथ उन्होंने कहा था कि कश्मीर के बौद्ध और हिन्दुओं को भी पाकिस्तान में जबरदस्ती मिलाया जा सकता है, जो उनकी इच्छा के विरुद्ध होगा। बाबासाहब की राय चीन को लेकर भी नेहरू से अलग थी। उन्होंने भारत की लचर चीन नीति की आलोचना करते हुए कहा था कि चीन ने तिब्बत को जबरदस्ती सेना के दम पर हथिया लिया। 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों को सम्बोधित करते हुए बाबासाहब ने कहा था कि तिब्बत में चीन की मौजूदगी भारत के लिए लम्बे समय तक ख़तरा बनी रहेगी। तिब्बत की स्वतन्त्रता की वकालत करने वाले अम्बेडकर हमेशा हिमालयी राज्यों में चीन के हतस्क्षेप के प्रखर विरोधी रहे।
टाइम मैगज़ीन ने भी इस बात की तरफ ध्यान दिलाया था कि डॉक्टर अम्बेडकर भारत के अकेले बड़े नेता थे जो नेहरू और चीन की दोस्ती की खुली आलोचना किया करते थे। अम्बेडकर ने कहा था कि भारत को वामपंथी तानाशाही और संसदीय लोकतंत्र में से किसी एक को चुनना चाहिए। उन्होंने पूछा था कि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता क्यों नहीं मिली? प्रधानमंत्री नेहरू ने इसके लिए क्यों नहीं प्रयास किए? पंचशील नीति पर निशाना साधते हुए अम्बेडकर ने कहा था कि अगर माओ को पंचशील पर थोड़ा भी भरोसा होता तो वे अपने ही देश में बौद्धों के साथ अलग तरह का व्यवहार क्यों करते। उन्होंने अपने देश के ही बौद्धों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। अफ़सोस यह कि नेहरू ने कई मुद्दों पर अम्बेडकर जैसे विद्वान और पटेल जैसे महान प्रशासक की बात नहीं सुनी, जिसका खामियाजा हमारा देश आज तक भुगत रहा है।
भारत-चीन युद्ध के कारणों की बात करते हुए मेजर इयान कार्डोज़ो अपनी पुस्तक ‘परम वीर चक्र‘ में लिखते हैं कि नेहरू ने विस्तारवादी चीन को अनावश्यक रियायतें देना प्रारम्भ कर दिया। चीन की कुटिल चाल से वे हमेशा बेखबर रहे। 1971 भारत-पाक युद्ध में जब मेजर जनरल इयान का पाँव बुरी तरह घायल हो गया तो वहाँ किसी भी प्रकार की मेडिकल सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी। बहादुर इयान ने ख़ुद खुर्की का प्रयोग कर के अपना पाँव काट डाला था। बाद में एक पाकिस्तानी सर्जन को कब्ज़े में लेकर उनका ऑपरेशन कराया गया। इन सबके बावजूद वे एक आर्टिफीसियल पैर के साथ मैराथन वगैरह में हिस्सा लेते हैं और फिट रहते हैं। अपनी पुस्तक में उन्होंने आगे लिखा है कि तिब्बत को लेकर भारत की हल्की-फुल्की प्रतिक्रिया ने चीन को और बढ़ावा देने का कार्य किया। यहाँ तक कि भारतीय शासन प्रतिष्ठान ने अपने इस निर्णय के पीछे बेशर्मी से भरे बेढंगे तर्क भी दिए। मेजर जनरल ने नेहरू को सैन्य नेतृत्व को कमजोर करने के लिए जिम्मेदार ठहराया है।
Insightful read on how Jawaharlal Nehru compromised India’s interest with respect to UNSC. May be Rahul Gandhi should read before he tweets.
— BJP (@BJP4India) March 14, 2019
Excerpt from his letter dated Aug 2, 1955. Source: ‘Letters for a Nation: From Jawaharlal Nehru to His Chief Ministers 1947-1963’. pic.twitter.com/eMthTobAO7
नेहरू तो चीन की बड़ी इज्जत करते थे, आदर देते थे लेकिन चीन नेहरू के बारे में क्या सोचता था? चीनी राजनेताओं के उनके बारे में क्या राय थी? पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के पहले प्रीमियर चाउ एन-लाइ की नेहरू के बारे में सोच का विवरण इंडियन एक्सप्रेस व टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर रहे अरुण शौरी अपनी पुस्तक ‘भारत-चीन सम्बन्ध‘ में देते हैं। लाइ नेहरू को एक घमंडी व्यक्ति मानते थे और उनका सोचना था कि नेहरू के इस घमंड को तोड़ना ज़रूरी है। शौरी ने नेहरू की विचित्र चीन नीति का जिक्र करते हुए बताया है कि नेहरू ने 22 दिसंबर 1962 को मुख्यमंत्रियों को भेजे गए पत्र में लिखा था कि चीनियों द्वारा भारत पर किया गया आकस्मिक हमला भारत के लिए लाभप्रद सिद्ध होगा। अब सोचने वाली बात है कि किस देश को दूसरे देश द्वारा किए गए अपमान से लाभ होता है? नेहरू ने चीनियों को न सिर्फ़ अपना बल्कि देश का भी अपमान करने दिया। भारत की हार में भारत का लाभ कहाँ था?
संघ में कई अहम पद संभाल चुके राम माधव अपनी पुस्तक ‘असहज पड़ोसी‘ में एक ऐसी घटना का जिक्र करते हैं, जिस से नेहरू की अदूरदर्शिता का पता चलता है। भारत के दो सैन्य अधिकारियों ने नेहरू को चीन द्वारा संभावित हमले को लेकर आगाह किया था। यह चेतावनी बेजा अफवाहों पर नहीं बल्कि प्रत्यक्ष सबूतों पर आधारित थी। चीनी सैनिकों को एक गलत नक़्शे के साथ पकड़ा गया था, जिसमें उत्तर-पूर्वी भारत के सीमान्त प्रांत को चीन का हिस्सा बताया गया था। सारी कड़ियों को जोड़ कर तत्कालीन कमांडर-इन-चीफ केएम करियप्पा ने जब नेहरू से इस बारे में बात की तो उन्होंने करियप्पा की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि देश का दुश्मन कौन है और कौन नहीं, यह फ़ैसला करना सेना का काम नहीं है। उन्होंने करियप्पा को झिड़कते हुए कहा कि चीन नेफा सीमा की रक्षा करेगा, वह दोस्त है। किसी दूसरी ही दुनिया में जी रहे नेहरू अगर 1950 के दशक की शुरुआत में ही सेना की बात मान कर देश को तैयार रखते तो शायद 1962 में चीन को मुँह की खानी पड़ती।
Weak Modi is scared of Xi. Not a word comes out of his mouth when China acts against India.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) March 14, 2019
NoMo’s China Diplomacy:
1. Swing with Xi in Gujarat
2. Hug Xi in Delhi
3. Bow to Xi in China https://t.co/7QBjY4e0z3
नेहरू जी अलग ही दुनिया में जी रहे थे। सेना, अम्बेडकर, पटेल, सभी की बातें उन्हें अपनी सोच के सामने तुच्छ लगती थी। करियप्पा को झिड़क देना, थिमैया को इस्तीफा देने को मजबूर कर देना- यह सब दिखाता है कि वे राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर गंभीर नहीं थे। अगर समय रहते चीन को उचित सबक सिखाया जाता, सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता ले ली गई होती, चीन के ख़िलाफ़ सबकी बात मान कर सेना को तैयार रखा जाता, तो क्या आज चीन की डोकलाम में घुस आने की हिम्मत होती? क्या आज चीन सुरक्षा परिषद में बैठ कर भारतीय भूमि पर रक्त बहाने वाले पाकिस्तानी आतंकी मसूद अज़हर को ग्लोबल आतंकी घोषित करने की राह में आड़े आ रहा होता? अब जब राहुल गाँधी कह रहे हैं कि मोदी शी जिनपिंग से डर गए हैं, तो भाजपा ने उन्हें इतिहास याद दिलाते हुए नेहरू की चीन नीति के बारे में जानने को कहा है। आशा है, इस संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण करने से विपक्षी दल बचेंगे।