कोरोना संकट के इस दौर में द प्रिंट रुबिका लियाकत और सईद अंसारी जैसे पत्रकारों का ‘अच्छे’ और ‘बुरे’ मुस्लिम वर्गीकरण में लगा है।
वामपंथी मीडिया पोर्टल द प्रिंट ने दिलीप मंडल का एक लेख छापा है। इस लेख में बुद्धिजीवी लेखक ने शोध करने की अपनी ताकत एबीपी न्यूज की एंकर रुबिका लियाकत और आजतक के एंकर सईद अंसारी जैसे मुस्लिम एंकरों की रिपोर्टिंग समझाने में लगा दी है।
पाठकों को ये बताने की कोशिश की है कि भारत में दो तरह के मुस्लिम हैं। एक तो वे जो खुलेआम उनके प्रोपेगेंडा को बढ़ाने में हवा का काम करते हैं और अपने अस्तित्व को बचाए रखते हैं। दूसरे वे जो उनके ख़िलाफ़ जाकर भाजपा का मुखपत्र बन रहे हैं और ‘अपने’ लोगों में ‘अपनी’ पहचान खो रहे हैं।
दि प्रिंट के इस लेख में जिसका शीर्षक “रुबिका लियाकत और सईद अंसारी जैसे हिंदी समाचार एंकर भाजपा के मुस्लिम नेताओं की तरह हैं” है। इसमें रुबिका लियाकत पर केंद्रित होकर उनके बारे में कहा गया कि मीडिया में कुछ एक ऐसे पत्रकार हैं जो अपनी अंतरात्मा, अपने जमीर और वजूद को खतरे में डालकर उसे बचाने की कोशिश कर रहे हैं।
वरना, बहुत से मुस्लिम पत्रकार तो ऐसे हैं जो मीडिया में विविधता न होने के कारण इस पेशे को ही छोड़ देते हैं या फिर न्यूज रूम में साम्प्रदायिक माहौल देखकर त्रस्त हो जाते हैं। मगर, रुबिका और सईद जैसे पत्रकार ऐसे हैं जो सार्वजनिक-प्रोफेशनल काम और निजी विचारों और जीवन के साथ सामंजस्य बिठा रहे हैं।
सबसे पहले तो लेखक की मानसिक स्थिति देखकर ही इतनी दया आती है कि वे कोरोना वारयस के समय में भी ऐसे मुद्दों को अपने भीतर विमर्श के लिए लेकर आए। लेकिन जब लेकर आए भी तो ऐसे जैसे उनके भीतर का अवसाद शब्दों में उतर आया हो।
अवसाद इस बात का कि आखिर जिस समय में अधिकांश मुस्लिम मीडियाकर्मी उनके विचारों के इर्द-गिर्द चकरघिन्नी की तरह चक्कर लगा रहे हैं, उस समय रुबिका और सईद जैसे मुस्लिम पत्रकार आखिर कैसे अलग धारा में बह रहे हैं।
उन्हें दिक्कत इस बात से है कि रुबिका लियाकत मुस्लिम होने के बावजूद उस एजेंडे को आगे नहीं बढ़ातीं, जिसे वामपंथी मीडिया ने उन्हीं के ‘मजहबी वजूद’ को बचाने के नाम पर तैयार किया है। वो वजूद जिसमें सरकार को गाली देने की आजादी है। उनसे निराधार प्रश्न करने की स्वतंत्रता है और बात बे-बात खुद के अस्तित्व को खतरे में बताने के तर्क हैं।
लेखक का कहना है कि रुबिका और सईद जो रिपोर्टिंग कर रहे हैं, वो अपने वजूद के उलट जाकर कर रहे हैं। उनका शायद पूछना कि तबलीगी जमात के कारनामे, शाहीनबाग के मनसूबे, मरकज के उद्देश्यों का खुलासा एक मुस्लिम एंकर आखिर कैसे कर सकता है? क्यूँकि, वामपंथी गिरोह के मुताबिक तो उनकी विचारधारा ये कहती है कि ये काम केवल आरएसएस या फिर बजरंग दल से जुड़े एंकर ही कर सकते हैं। अगर, कोई मुस्लिम पत्रकार इस तरह की जुर्रत कर रहा है, तो ये उसका अपना मन नहीं है, बल्कि उस पर कॉरपोरेट दुनिया का दबाव है।
दरअसल, लेखक चाहते हैं कि रुबिका लियाकत जैसी पत्रकार शाहीनबाग प्रदर्शनों का खुलकर समर्थन करें, क्योंकि वे एक मुस्लिम हैं। वहीं सईद अंसारी जैसे पत्रकार जामिया हिंसा में छात्रों की तरफ से पत्थर फेंके, क्यूँकि वे मुस्लिम हैं।
लेकिन, ये एंकर अगर, इससे उलट कुछ कर रहे हैं, जैसे रुबिका शाहीनबाग को खाली कराने की माँग कर रही हैं और सईद अपनी रिपोर्टिंग में पुलिस की तारीफ कर रहे हैं, तो दोनों बहके मुस्लिम हैं या फिर ऐसे दबे मुस्लिम हैं, जो बेचारे आज अपने घर के चूल्हे को जलाने के लिए अपने ईमान से, अपने मजहब से, खुद से गद्दारी करने लगे हैं। लेकिन गाहे-बगाहे सोशल मीडिया पर कुरान की आयतें शेयर करके अपने मजहब के साथ तालमेल भी बिठा रहे हैं।
इस लेख में गौर कीजिए कि लेखक इतने सेकुलर विचारों वाले हैं कि वे मानना ही नहीं चाहते कि किसी मुस्लिम में अपनी समझ या फिर अपना मत विकसित हो सकता है या वो अपनी इच्छा से अपना कार्यक्षेत्र व विचारधारा चुन सकता है।
इस लेख में दोहरेपन की हदों को महसूस कीजिए कि लेखक के लिए हिंदू बनाम मुस्लिम पत्रकार कितना महत्वपूर्ण विषय है कि वे खुद ही इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि आज मुस्लिमों को हैरानी है कि मुस्लिम एंकर ऐसा कैसे कर सकते है?
द प्रिंट का ये लेख प्रमाण है इस बात का कि लेखक को मुस्लिमों से तो बहुत प्रेम है, लेकिन वो अपने मजहबी कट्टरपंथ से हटकर यदि कुछ ऐसा करें, जो देश की बहुसंख्यक आबादी के विचारों/मतों से मेल खाता हो, तो उन्हें उनकी स्थिति पर अचंभा होता है, विचारों पर दया आती है।
आप खुद लेख को पढ़िए। आपको खुद समझ नहीं आएगा कि द प्रिंट के इस लेख में रुबिका जैसे पत्रकारों की उनके काम के लिए आलोचना हुई है या फिर ये बताया गया कि मुस्लिम एंकर मजहब के उलट जाकर अपना काम केवल दबाव में कर रहे हैं। वरना उनकी ऐसी प्रवृत्ति ही नहीं है और ये सब उनसे 2014 के बाद तैयार हुआ माहौल करवा रहा है।
लेख में बताया गया है कि मुस्लिमों की ऐसी एंकरिंग देखते हुए हम उन्हें इन बिंदुओ पर आँक कर संतोष कर सकते हैं कि वे या तो इस माहौल में अपनी पहचान बनाने के लिए ऐसा कर रहे हैं, या सरकार के आगे-पीछे घूमने के लिए ऐसा कर रहे हैं, या फिर बहुसंख्यक आबादी को खुश करने के लिए ये सब कर रहे हैं।
लेख के जरिए बताया जाता है कि ऐसे मुस्लिम चेहरों का इस्तेमाल भाजपा हिंदू नैरेटिव गढ़ने के लिए करती हैं। जिसे प्रतीकवाद भी कहा जा सकता है। उनके मुताबिक, इन चेहरों से हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने में विश्वसनीयता मिलती है और पाठक-दर्शक इस बात को स्वीकारते हैं कि मुस्लिम लोग भी जब इनके पक्ष में बोल रहे हैं, तो यही सच होगा…मगर, वास्तविकता कुछ और होती है।
द प्रिंट के इस लेख के मुताबिक, रुबिका लियाकत, सईद अंसारी जैसे मुस्लिम चेहरे, वे रंगमंच की जीती-जागती, विचारवान कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर किसी और के हाथ में है और उनका किरदार भी किसी और ने और काफी हद तक जमाने ने लिखा है।
उल्लेखनीय है कि ये पहली बार नहीं है जब कुछ मुस्लिमों के अलग मतों को जानकर उनके मजहब पर, उनके काम पर निशाना साधा गया हो। इससे पहले कई बार राणा अय्यूब जैसे पत्रकारों व इस्लामोफोबिया का प्रमोशन करने वाला ये धड़ा मुख्तार अब्बास नकवी और मोहम्मद आरिफ खान जैसे लोगों पर भी भाजपा से जुड़े होने के कारण अपना गुस्सा निकाल चुके हैं।
जैसे द प्रिंट के इस लेख में एक जगह नकवी और शाहनवाज हुसैन का नाम लिया जाता है और उन्हें भी भाजपा की कठपुतली बताते हुए लिखा जाता है कि भाजपा इन जैसे नेताओं को भी अपने पास शोकेज में सजाकर रखती है, जिनकी नीति-निर्धारण में न्यूनतम भूमिका होती है।
बता दें, ये बातें सिर्फ़ यही नहीं थमती। आज भाजपा सरकार में नकवी, जो एक महत्वपूर्ण पद पर हैं, उनके लिए द प्रिंट इससे पहले छाप चुका है कि मुख्तार अब्बास वास्तविक में कपिल मिश्रा ही हैं, बस उनके मुख पर नाम अल्लाह का रहता है।
इसके अलावा आरिफ मोहम्मद खान को लेकर भी ये पोर्टल इस विषय पर अपना लेख प्रकाशित कर चुका है कि अगर भाजपा के लिए अच्छा मुस्लिम बनना है तो आरिफ मोहम्मद से सीखिए।