अरविन्द केजरीवाल ने मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए ‘किसी भी हद’ तक जाने की बात कही है। उनकी हद कहाँ शुरू होती है और कहाँ ख़त्म, इस पर चर्चा जरूरी है लेकिन सबसे पहले उनके बयान के परिपेक्ष्य और बैकग्राउंड को समझने की जरूरत है।
सेक्युलर वातावरण में दिया गया बयान
अरविन्द केजरीवाल ने एक चौंकाने वाला बयान दिया है। यह बयान ऐसी परिस्थिति में दिया गया है, ताकि यह एकदम सेक्युलर लगे और मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा सवाल ही न पूछे जा सके। मौका था- दिल्ली के मौलवियों को सम्बोधित करने का। जिस कार्यक्रम स्थल पर उन्होंने यह बड़ा बयान दिया, उसका नाम था- ऐवान-ए-ग़ालिब। सब कुछ लग रहा है न सेक्युलर-सेक्युलर सा। और तो और, अरविन्द केजरीवाल ने यहाँ जो घोषणाएँ कीं, वो भी इतनी सेक्युलर थीं कि कोई इस पर सवाल खड़ा करने से पहले हज़ार बार सोचे।
दरअसल, इस कार्यक्रम में केजरीवाल ने दिल्ली की क़रीब 200 मस्ज़िदों के मौलवियों के वेतन में भारी बढ़ोतरी की और 1500 अन्य मस्जिदों के कर्मचारियों को भी वेतन देने की घोषणा की। इस पर अलग से सवाल खड़ा किया जा सकता है कि दिल्ली के इमाम, मुअज़्ज़िन व मस्ज़िद के अन्य कर्मचारी जनता की कौन सी ऐसी सेवा कर रहे हैं, जिसके कारण केजरीवाल उन पर सरकारी ख़ज़ाना लुटाने को तैयार बैठे हैं। इस बात पर भी बहस की जा सकती है कि मस्जिदों पर सरकारी रुपयों के वारे-न्यारे करने वाली AAP सरकार पुजारियों को कितने भत्ते दे रही है।
मज़बूरी में व्यक्तिगत राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पर ब्रेक?
लेकिन यहाँ हम केजरीवाल के उस बयान की चर्चा करेंगे, जिस में उन्होंने मोदी-शाह के ख़िलाफ़ किसी भी हद तक जाने की बात कही है। मौलवियों को सम्बोधित करते हुए अरविन्द केजरीवाल ने कहा:
“अभी तो यह किसी को पता नहीं है कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा, लेकिन मोदी-शाह को नहीं बनने देंगे। इसके लिए मैं किसी भी हद तक जाने को तैयार हूँ। इसके अलावा, जो भी बन रहा होगा उसको समर्थन दे देंगे। कांग्रेस अगर जीतती है तो उसको भी समर्थन देने को तैयार हैं।”
केजरीवाल के इस बयान के जो मायने निकल कर आ रहे हैं, वो राजनीतिक पंडितों की समझ से परे नहीं हैं, लेकिन इस पर मेनस्ट्रीम मीडिया में ज़्यादा विश्लेषण नहीं किया जाएगा। ऐसा इसीलिए, क्योंकि इस बयान के साथ ही अरविन्द केजरीवाल ने इस बात को स्वीकार कर लिया है कि वो प्रधानमंत्री की रेस में नहीं हैं। ये उन पत्रकारों और मीडिया हाउसेज के लिए शॉकिंग है, जिन्होंने केजरीवाल को पीएम मटेरियल बता-बता कर हमारा कान ख़राब कर दिया था।
सबसे पहले तो इस बात पर चर्चा करते हैं कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा? अरविन्द केजरीवाल ने कहा कि यह किसी को पता नहीं है कि पीएम कौन बनेगा? महागठबंधन और कथित तीसरे मोर्चे के नेताओं का भी इस बारे में क़रीबन यही बयान होता है। सभी ये कहते हुए पाए जाते हैं कि पीएम कौन बनेगा, यह ‘जनता’ तय करेगी। उन्हें पता होना चाहिए कि आज़ादी के बाद 70 सालों से जनता ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री तय करते आ रही है। राजनीति, वंशवाद और मौक़ापरस्ती की मारी भारतीय लोकतंत्र में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि ही पीएम का चुनाव करते आ रहे हैं।
केजरीवाल का यह कहना उनकी इस मौन स्वीकृति को दिखाता है कि उन्होंने अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा पर फ़िलहाल ब्रेक लगा दिया है। उन्होंने ऐसा मज़बूरी में किया है क्योंकि उन्हें अब इस बात का अहसास हो गया है कि AAP के लिए कुछ साल पहले जो वसंती हवा बहाई गई थी, उसने एक ऐसे लू का रूप ले लिया है, जिसमें लोग झुलसना नहीं चाहते। कम से कम केजरीवाल जनता को ये दिखाने की कोशिश कर रहे हैं कि वह पीएम की रेस में नहीं हैं और पीएम कोई और ही बनेगा।
आपकी ‘हद’ क्या है केजरीवाल ‘सड़’?
अगर अरविन्द केजरीवाल की ‘हद’ की बात करनी हो तो हमें 2014 के आम चुनाव की एक घटना याद करनी पड़ेगी। उत्तर प्रदेश के बाहुबली नेता और कई अपराधों में जेल की हवा खा रहे मुख़्तार अंसारी का यूपी के कई इलाक़ों के मुस्लिमों में अच्छा-ख़ासा प्रभाव था। कई ख़बरों के अनुसार वाराणसी से मोदी के ख़िलाफ़ ताल ठोक रहे केजरीवाल और उनकी पार्टी AAP ने मुख़्तार को लुभाने की भरपूर कोशिश की थी। उस दौरान केजरीवाल ने कहा था कि वाराणसी से मोदी को हराने के लिए वो किसी का भी समर्थन ले सकते हैं।
ताज़ा बयान इस बात की पुष्टि करते हैं कि केजरीवाल की राजनीति कभी अलग थी ही नहीं। आज से पाँच साल पहले उन्होंने ‘किसी’ से भी समर्थन लेने की बात कही थी, आज वो ‘किसी’ को भी समर्थन देने की बात कह रहे हैं। उन्होंने कहा कि जो भी पीएम बने, उसे समर्थन दे देंगे। ये इस तरफ इंगित करता है कि केजरीवाल मोदी को रोकने के लिए एक ऐसे मौक़ापरस्त किंगमेकर की भूमिका ढूंढ रहे हैं, जिसकी न कोई राजनीतिक विचारधारा होगी और न कोई नैतिकता।
पहले भी कॉन्ग्रेस के समर्थन से दिल्ली में सरकार चला चुके केजरीवाल ने कभी अपने बच्चों की कसम खाई थी कि कॉन्ग्रेस का साथ कभी नहीं लेंगे। राजनीतिक मौकापरस्ती के सशक्त हस्ताक्षर बन चुके अरविन्द केजरीवाल ने नैतिकता की सारी हदों को ताक पर रखते हुए ऐसे लोगों के साथ मंच साझा किया, जिन्हें वह गालियाँ देते थकते नहीं थे। जिनका विरोध करते-करते सत्ता की सीढ़ी तक चढ़े, आज उन्हीं के सुर में गा रहे केजरीवाल पर ‘धोबी के कुत्ते’ वाली कहावत भी लागू होती है।
महागठबंधन की रैलियों में उन्हें आमंत्रित तो किया जा रहा है, लेकिन कॉन्ग्रेस या कोई भी पार्टी उनके साथ गठबंधन की इच्छुक नहीं है। उन्हें KCR के प्रयासों द्वारा तैयार किए जा रहे तीसरे मोर्चे की तरफ से भी भाव नहीं दिया जा रहा है। इस परिस्थिति में बौखलाए केजरीवाल को पता है कि मोदी को रोकने के लिए अगर दिल्ली में कोई जोड़-तोड़ वाला प्रधानमंत्री बैठता भी है तो एक-एक सीटों का काफ़ी महत्व होगा। दो-चार सीटों के साथ भी मोलभाव का सपना देख रहे केजरीवाल ने ‘किसी’ को समर्थन देने की बात कह इस बात की आधिकारिक घोषणा कर दी है कि उनकी कोई राजनीतिक विचारधारा है ही नहीं।
जाति-धर्म के दलदल में और गहरे उतरने की तैयारी
केजरीवाल ने मुस्लिम धर्मगुरुओं को लुभाते हुए मौलवियों को वेतन का झुनझुना थमाया और कहा:
“दिल्ली में भाजपा को आप ही हरा सकती है। आप इस गणित को समझें और वोटों को बँटने न दें,अगर वोट बँटे तो फिर भाजपा जीत जाएगी।”
मुस्लिमों को यह बात समझाने के लिए उन्होंने बजाप्ते वोट प्रतिशत का अंकगणित भी समझाया। जाति और धर्म की राजनीति के दलदल में गहरे उतर चुके केजरीवाल ने कभी वैश्य समुदाय के लोगों को लुभाने के लिए बनिया कार्ड भी खेला था। आज मुस्लिमों को अपने पाले में करने के लिए उन्हें भाजपा का डर दिखा रहे हैं। यह वही कार्ड है, जिसे पूरे देश में कॉन्ग्रेस, बिहार में लालू, यूपी में मुलायम और कश्मीर में अब्दुल्ला परिवार खेलते आया है। अरविन्द केजरीवाल ने यह बयान देकर यह साबित कर दिया है कि वो उनसे अलग नहीं हैं।
अब ये तो समय ही बताएगा कि सीटों की स्थिति में ख़ुद को किंगमेकर की भूमिका में देख रहे केजरीवाल ‘किसे’ समर्थन देते हैं। फ़िलहाल उन्होंने अपनी व्यक्तिगत लालसा को कुछ पल के लिए किनारे कर लिया है।