Sunday, December 22, 2024
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मजदूरों के आँसू बेच रहा इंडिया टुडे, भरता है नैतिकता का दम्भ: दूसरों को पत्रकारिता सिखाने वालों का सच

'इंडिया टुडे' या किसी भी संस्थान द्वारा किसी भी प्रकार के उनके कंटेंट्स को बेचे जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। हमें दिक्कत है इस बात से कि जो वो करते हैं, दूसरों को वैसा ही करने पर नैतिकता की सलाह देते हैं। ये वही लोग हैं जो अक्षय कुमार पर निशाना साधते हैं कि वो सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्म बनाते हैं और रुपए कमाते हैं।

मीडिया चैनल ‘इंडिया टुडे’ ने एक बार एक पूरा का पूरा शो ये बताने में ख़र्च कर दिया था कि कैसे मंदिरों में दलितों को नहीं जाने दिया जाता है। इस भ्रम को फैलाने वाले मीडिया संस्थान ने शायद ही कोई ऐसा मौका छोड़ा हो, जब इसने ग़रीबों का हितैषी बनने के दावे न किए हों। गोरखनाथ मंदिर को बदनाम करने के लिए दलितों का इस्तेमाल करने वाला ‘इंडिया टुडे‘ अब इन्हीं दलितों और ग़रीब मजदूरों की तस्वीरें बेच कर रुपए कमा रहा है।

₹8000 से लेकर ₹20,000 तक में बिक रही मजदूरों के पलायन की ‘इंडिया टुडे’ की तस्वीरें

आज पत्रकारिता के दौर में ‘Ethics’ यानी नैतिकता का ख़ूब हवाला दिया जाता है। अंग्रेजी टीवी न्यूज़ चैनलों के वो एंकर्स, जिन्होंने कभी ग्राउंड का मुँह भी नहीं देखा है, वो भी सोशल मीडिया पर दूसरों को पत्रकारिता सिखाने में अव्वल आने की कोशिश करते हैं। हर एक ग़रीब की ग़रीबी का दोष न सिर्फ़ सरकार पर मढ़ा जाता है बल्कि अपने विरोधियों को भी देश की तमाम समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए वो पूछते हैं कि तुमने आख़िर इन समस्याओं के समाधान के लिए किया ही क्या है?

नैतिकता सिखाने वालों का जरा मार्केटिंग मॉडल भी देख लें, जो इसी नैतिकता को बेचने पर आधारित है। सुप्रसिद्ध लोक गायिका मालिनी अवस्थी ने कुछ स्क्रीनशॉट्स ट्वीट किए। इनमें दिख रहा है कि प्रवासी मजदूरों के पलायन वाली तस्वीरों को बेचा जा रहा है।

विक्रेता के रूप में ‘इंडिया टुडे ग्रुप’ का नाम दर्ज है और इन तस्वीरों के दाम 8000 रुपए से लेकर 20,000 रुपए तक हैं। इसके अलावा इस पर 18% अतिरिक्त टैक्स भी है। चर्चा से पहले बता दें कि हमें उनके तस्वीरें बेचने से कोई समस्या नहीं है।

अवस्थी ने लिखा कि वो देश के कोने-कोने से अपने घर लौटने वाले प्रवासी मजदूरों की हृदयविदारक तस्वीरों की बिक्री को देख कर हैरान हैं। उन्होंने लिखा, “इन बेचारे प्रवासी मजदूरों को तो पता तक नहीं होगा कि उनकी टूटी चप्पलों से लेकर उनके आँसू और फ़टे हुए बैग तक, सब बिक गए।” उन्होंने पूछा कि सभी को अपना घर चलाना होता है लेकिन क्या इन तस्वीरों से कमाई करना सही है? ये सवाल जायज है।

जिस ‘मार्केटिंग मॉडल’ पर आजकल की पत्रकारिता चल रही है, उस हिसाब से देखने पर ये ठीक लगता है। लेकिन, उस ‘मार्केटिंग मॉडल’ के जरिए कमाई करने वालों के नैतिकता के भाषणों और पत्रकारिता की परिभाषाओं को देखें तो ये दोहरे रवैये से ज्यादा कुछ भी नहीं।

ये वही लोग हैं जो निजीकरण और निगमीकरण को ‘बेच दिया’ कह कर सरकार को बदनाम करने का बीड़ा उठाए हुए हैं। जबकि ख़ुद लाचार और बेसहारा ग़रीबों की तस्वीरें बेच कर कमाई कर रहे हैं।

कैपिटलिज्म का मॉडल, सोशलिज्म का दिखावा: मजदूरों की तस्वीरों की बिक्री का बैकग्राउंड

सवाल है कि 20,000 रुपए में बिकने वाले इन मजदूरों की तस्वीरों से हुई कमाई का कितना हिस्सा उन ग़रीबों तक जाएगा? क्या आमजनों के हित के लिए पत्रकारिता करने का दावा करने वाले (जो कभी ये खुल कर स्वीकार नहीं करते कि वो बम्पर कमाई के लिए ये कर रहे हैं), बताएँगे कि लाचारी और बेबसी की इस तस्वीरों को बेच कर होने वाली कमाई से किस ग़रीब को फायदा हो रहा है? अगर नहीं हो रहा है तो ‘नैतिक पत्रकारिता’ का भाषण क्यों?

यहाँ थोड़ी सी बात कैपिटलिज्म की। कैपिटलिज़्म क्या कहता है? ये कहता है कि अगर जनता किसी चीज के लिए रुपए नहीं देना चाह रही है तो उस चीज को ख़त्म कर दिया जाना चाहिए। इंटरनेट के जमाने में टीवी न्यूज़ चैनलों के समक्ष यही दुविधा खड़ी होते जा रही है।

सूचनाएँ तो लोगों को सोशल मीडिया से मिल ही जा रही हैं और वो भी लगभग मुफ़्त में, तो अब इन मीडिया संस्थानों ने कमाई के लिए अपने ही द्वारा बखान किए जाने वाले नैतिकता से ही समझौता कर लिया है।

यहाँ हम एकदम से नॉन-प्रॉफिट जर्नलिज्म की बात नहीं कर रहे। हम ‘इंडिया टुडे’ द्वारा मजदूरों की तस्वीरें बेचने को ग़लत नहीं बता रहे। हम बात कर रहे हैं राजदीप सरदेसाई और राहुल कँवल जैसों की, जो पत्रकारिता के मामले में कुछ ज्यादा ही जजमेंटल हैं।

कँवल जब अपने चैनल की टीआरपी को फ्लटर कर के उसका बखान करते हैं और उनके ट्वीट्स में जिस तरह से ‘रिपब्लिक टीवी’ को ‘हल्ला-गुल्ला वाला न्यूज़ चैनल’ बताया जाता है, ये बताता है कि पत्रकारिता सिखाने वालों को हम कोई सलाह नहीं दे रहे, बल्कि उनकी ही बनाई परिभाषाओं पर उन्हें ही तौल रहे।

सोशलिज्म के अंतर्गत पत्रकारिता को ‘स्पॉन्सर्ड’ नहीं होना चाहिए, ऐसा बताया गया है। सत्ता से सवाल पूछने का दम्भ भरने वाल पत्रकार इसी मॉडल को फॉलो करने का दिखावा करते हैं, जहाँ सार्वजनिक चर्चा के लिए जगह हो। वे राजनीतिक दबाव के आगे न झुकने की बातें करते हुए निडर और साहसी होने का दावा करते हैं।

लेकिन मजदूरों की बिकती तस्वीरों को देखें तो ये कौन साबित होते हैं? दरअसल, ये कैपिटलिज्म के मॉडल पर काम करने वाले ऐसे लोग हैं, जो सोशलिज्म के मॉडल पर जनहित की बात करने का दम्भ भरते हैं। लेकिन हाँ, खुल कर तो ये दोनों को ही स्वीकार करने में डरते हैं।

यही लोग निजीकरण और निगमीकरण को ‘बेच डाला’ कहते हैं

आपको याद होगा, जब अप्रैल 2018 में केंद्र सरकार ने डालमिया ग्रुप को लाल किले के मरम्मत और रख-रखाव की जिम्मेदारी सौंपी थी, तब पत्रकारों के एक बड़े समूह ने हल्ला मचाया था कि मोदी सरकार ने ऐतिहासिक इमारत को बेच डाला। हालाँकि, ये करार सिर्फ़ पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए था।

इसके तहत पर्यटन सुविधाओं को उन्नत करने की जिम्मेदारी कम्पनी को दी गई थी। लेकिन पर्यटकों को ज्यादा अच्छी सुविधा देने वाले इस स्कीम को दुष्प्रचारित किया गया।

ऐसा दिखाया गया था जैसे कि किसी क्रिकेट स्टेडियम की तरह लाल किले पर पान बहार के एडवर्टाइजमेंट वाले पोस्टर्स चिपके रहेंगे और ये सार्वजनिक संपत्ति नहीं रह जाएगी। निजीकरण और निगमीकरण को ‘बेच डाला’ कह कर हर जगह सोशलिस्ट सामग्रियों के आधार पर नैतिकता का ज्ञान देने वाले इस वर्ग विशेष को प्राइवेट कंपनियों और सरकार के बीच हुए हर करार में खोट दिखता है, भले ही वो जानते के हित में ही क्यों न हों।

हमें ‘इंडिया टुडे’ या किसी भी संस्थान द्वारा किसी भी प्रकार के उनके कंटेंट्स को बेचे जाने पर कोई आपत्ति नहीं है। हमें दिक्कत है इस बात से कि जो वो करते हैं, दूसरों को वैसा ही करने पर नैतिकता की सलाह देते हैं।

ये वही लोग हैं जो अक्षय कुमार पर निशाना साधते हैं कि वो सामाजिक मुद्दों पर फ़िल्म बनाते हैं और रुपए कमाते हैं। सारे सेलेब्रिटीज में अक्षय कुमार ने पीएम केयर्स से लेकर बीएमसी तक को सबसे ज्यादा डोनेशन दिए। आख़िर पता तो चला कि उसका कोई हिस्सा जनता के काम आया। लेकिन, नैतिकता के दम्भ में डूबे इन पत्रकारों का क्या?

आप बेचिए, सड़क की खर-पतवार से लेकर भूख से मरते हुए बच्चों तक की तस्वीरें बेचिए। लेकिन, जब आप नैतिकता की बात करेंगे तो हम नहीं तो दूसरे कुछ लोग आपसे जरूर पूछेंगे कि फोटो खींचने वक़्त उस बच्चे को आपने भोजन दिया था या नहीं?

वो आपसे पूछेंगे कि आपने उसकी तस्वीरें बेच कर जो कमाई की, उसका कितना हिस्सा उस बच्चे को या उसके परिवार को गया? अगर सत्ता से सवाल पूछना ही पत्रकारिता है तो सत्ताधीश तो हर क्षेत्र में हैं, मीडिया में भी।

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ऑपइंडिया स्टाफ़
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कार्यालय संवाददाता, ऑपइंडिया

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