फिल्म ‘सत्ते पे सत्ता’ के एक गाने की कुछ पंक्तियाँ यूँ हैं;
प्यार हमें किस मोड़ पे ले आया
कि दिल करे हाय
हाय
कोई ये बताए क्या होगा
स्वतंत्र भारत में सत्ता से नेहरू-गाँधी परिवार का प्यार कुछ ऐसा चला कि ‘क्या होगा’ यह वही बता सकते थे। लेकिन भारतीय राजनीति ने नरेंद्र मोदी के उदय से ऐसा मोड़ लिया कि अब उसी परिवार का ‘युवा’ बहरूपिया बने घूम रहा है और पूछ रहा है कि ‘कोई बताए क्या होगा’।
राजनीति के इस मोड़ ने उस राहुल गाँधी को बहुरूपिया बनाकर छोड़ दिया है, जिनकी पैदाइश होते ही कॉन्ग्रेसियों ने मुनादी करवा दी थी कि वो आ गया। हमारा प्रधानमंत्री बनने के लिए आ गया। लेकिन अब सत्ता की लालसा में राहुल गाँधी रोज भेष बदल रहे हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब वह ‘कुली’ बनकर ट्रॉली माथे पर ढो रहे थे। 28 सितंबर 2023 को भेष बदलकर वे बढ़ई हो गए। हाल के महीने में वे इसी तरह लगातार भेष बदलते रहे हैं। कभी ट्रक की सवारी तो कभी बाइक मैकेनिक तो कभी बावर्ची…
2019 में राहुल अमेठी से भागकर वायनाड पहुँचे। अब बहुरूपिया बनते बनते 2024 में वे भागकर कहाँ पहुँचेगे यह बताना कॉन्ग्रेसियों के लिए भी नामुमकिन ही लगता है।
भले हर बार भेष बदलकर राहुल को लगता हो कि वे ‘लोक कल्याण मार्ग’ बस पहुँचने ही वाले हैं, भले ‘कॉन्ग्रेस मुक्त भारत’ का नारा बीजेपी का हो, पर हकीकत यही है कि कॉन्ग्रेस को 44 सीट तक लाने में भाजपा से कहीं अधिक बड़ी भूमिका राहुल गाँधी की ही रही है। एक दशक पहले तक स्थितियाँ ऐसीं थीं कि बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे गाँवों तक कॉन्ग्रेस के पास कार्यकर्ताओं की फौज होती थी। चुनाव आते ही यह फौज अपना किला बचाने में जुट जाती थी।
लेकिन अब हालत यह है कि फौज की बात तो दूर कॉन्ग्रेस के पास अपना किला भी नहीं बचा है। जिन इलाकों को कॉन्ग्रेस का गढ़ कहा जाता था, वहाँ ‘स्टार प्रचारक’ राहुल गाँधी की बदौलत पार्टी का नाम लेने वाले लोग ढूँढ़ना मुश्किल हो गया है। सीधे शब्दों में कहें तो 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी शिकस्त और उसके बाद नेतृत्व की कमजोरी के चलते कॉन्ग्रेसी आत्मविश्वास खो चुके हैं।
इसका ठीकरा भले ही किसी के सिर पर फोड़ने की कोशिश की जाए, लेकिन श्रेय प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखने वाले 53 वर्षीय युवा चेहरे को ही जाता है। वो चेहरा जिसके पास न अपनी दृष्टि है। न अपनी रणनीति। जो भाजपा के गलती करने के इंतजार में बैठा है। जो जमीन पर संघर्ष करने की जगह कालनेमि की तरह भेष बदलने में बिजी है। जिसे लगता है कि चुनाव वोट से नहीं ‘सोशल मीडिया’ में नए नए गेटअप में फोटो पोस्ट करने से जीता जाता है।
देश विरोधी बयान से लेकर अडानी-अंबानी का राग, देश की जमीन पर चीन के कब्जे की झूठी कहानी तथा लोकतंत्र और मीडिया पर हमले की इबारत पढ़-पढ़ कर थक चुके राहुल गाँधी को देखकर ऐसा लगता है कि वह अब मुद्दा विहीन हो चुके हैं। हाल ही में हुए उपचुनावों में भी राहुल ने कॉन्ग्रेस की हार पर बात करने से कहीं अधिक भाजपा की हार पर चर्चा करना उचित समझा। वास्तव में वह भाजपा की हार में अपनी जीत तलाशते नजर आते हैं।
सत्ता की लोलुपता किसी को भी किसी भी स्तर तक ले जा सकती है। आज राहुल गाँधी सुर्खियों में बने रहने के लिए विभिन्न प्रकार के रूप धारण कर रहे हैं। या यह कहें कि राजनीतिक बहुरूपिए बनते फिर रहे हैं, तो गलत नहीं होगा। दिल्ली के आनंद विहार स्टेशन में कुली बनने के बाद अब दिल्ली के ही फर्नीचर मार्केट में वे कारपेंटर बने दिखाई दिए हैं। यदि राहुल इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो वह दिन दूर नहीं, जब वह अब्दुल की पंचर दुकान पर भी दिख जाएँ।
दिल्ली के कीर्तिनगर स्थित एशिया के सबसे बड़े फर्नीचर मार्केट जाकर आज बढ़ई भाइयों से मुलाकात की।
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) September 28, 2023
ये मेहनती होने के साथ ही कमाल के कलाकार भी हैं – मज़बूती और खुबसूरती तराशने में माहिर!
काफ़ी बातें हुई, थोड़ा उनके हुनर को जाना और थोड़ा सीखने की कोशिश की। pic.twitter.com/ceNGDWKTR8
बहरहाल, बहरकैफ… मोहनदास करमचंद गाँधी ने देश की आजादी के बाद कॉन्ग्रेस को खत्म करने की इच्छा व्यक्त की थी। एमके गाँधी का कहना था कि कॉन्ग्रेस का मकसद पूरा हो गया है, इसलिए अब इसकी जरूरत नहीं है। लेकिन तब नेहरू ने गाँधी की बात नहीं मानी थी। अब राहुल गाँधी जिस ‘कालनेमि रफ्तार’ में हैं उससे ऐसा लगता है कि वह एमके गाँधी की अधूरी इच्छा को पूरी करके ही दम लेंगे।