अयोध्या में बन रहा राम मंदिर क्या है? भारत की सनातन संस्कृति का प्रतीक। इस्लामी अक्रांताओं की बर्बरता पर मानवता की विजय का चिह्न। या जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2020 में कहा था, “सोमनाथ के पुनर्निर्माण से सरदार पटेल ने भारत के सांस्कृतिक गौरव को लौटाने का जो यज्ञ शुरू किया था, उसका विस्तार देश ने अयोध्या में भी देखा है।” या फिर वेद, हिंदुत्व, योग, आयुर्वेद और वैदिक एस्ट्रोलॉजी पर कई किताबें लिख चुके डेविड डेविड फ्रॉली का यह कहना कि राम मंदिर निर्माण नेहरूवादियों, मार्क्सवादियों, मीडिया, शिक्षाविदों की हार है, जिन्होंने इतिहास, पुरातत्व और आस्था सबको नकारने की कोशिश की।
असल में राम मंदिर यह सब कुछ है। या डेविड फ्रॉली के ही शब्दों में कहे तो राम मंदिर का निर्माण देश की आजादी के बाद आधुनिक भारत की सबसे महत्वपूर्ण घटना है। राम मंदिर भारत के वास्तविक भाग्य को जागृत करेगा।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अयोध्या में भूमि पूजन हो चुका है। राम मंदिर निर्माण के लिए देशव्यापी निधि समर्पण अभियान चल रहा है। ऐसे में आप की सहज जिज्ञासा हो सकती है कि राम मंदिर को लेकर यह सवाल एक बार फिर पूछे जाने का क्या तुक है?
इसकी दो वजहें। पहला, इतिहास के नाम पर काल्पनिक कहानियॉं गढ़ने वाले डीएन झा यानी द्विजेंद्र नारायण झा का गुरुवार (4 फरवरी 2021) को निधन हो गया। इस शख्स की दो महत्वपूर्ण ‘उपलब्धि’ थी;
- राम मंदिर में रोड़े डाले। एक मनगढ़ंत रिपोर्ट सरकार को बनाकर दी जिसमें दावा किया मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद नहीं बनाई गई थी।
- एक अभिनव खोज की जिसके मुताबिक हम हिंदू प्राचीन काल में गाय का भक्षण करते थे।
यदि बात डीएन झा के मरने की ही होती तो सवाल खड़ा नहीं होता। दूसरी वजह वह कॉन्ग्रेस है, जिसने इतिहास के नाम पर प्रोपेगेंडा परोसने वाले इन वामपंथी कहानीकार इतिहासकारों को पोषित किया है। राम के अस्तित्व को लगातार नकारते रही है। जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आई तो मन ही मन इस बात को लेकर खीझी कि वह इस औकात में नहीं रही कि शाहबानो जैसा कोई प्रपंच रच सके। लेकिन, उसने अपना चरित्र नहीं त्यागा है।
अचानक से राम मंदिर के लिए जुटाए रहे निधि समर्पण अभियान को लेकर उसके नेताओं ने ऐसे बयान देने शुरू किए जिससे बहुसंख्यक हिंदुओं को नीचा दिखाया जा सके। इतना ही नहीं उसके पूर्व अध्यक्ष राहुल गाँधी से ट्विटर पर इस्लामवादी सीधे सवाल पूछे रहे और कॉन्ग्रेस उनको जवाब नहीं देकर भी हिंदुओं का एहसास दिला रही है कि राम भले उनके अराध्य हों, कॉन्ग्रेस उनके अस्तित्व को आज भी नहीं स्वीकारती।
कॉन्ग्रेस नेताओं के हालिया बयानों पर गौर करें। मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री रहे पवन बंसल का कहना है कि वह घर में हिंदू और बाहर सेकुलर हैं। उनका दावा है कि उनसे भी राम मंदिर के लिए चंदा मॉंगा गया, लेकिन उन्होंने नहीं दिया। भ्रष्टाचार के आरोपों की वजह से कैबिनेट से इस्तीफा देने को मजबूर हुए बंसल कॉन्ग्रेस के कोषाध्यक्ष भी हैं। राम मंदिर के लिए धन संग्रह स्वैच्छिक है। बंसल को अधिकार है कि वह इसमें योगदान न करें। लेकिन, इसे सार्वजनिक तौर पर खुलकर कहने और खुद के सेकुलर होने की बात बताने के पीछे उनकी मंशा क्या रही होगी?
पूर्व केंद्रीय मंत्री और मध्य प्रदेश के झाबुआ से कॉन्ग्रेस के विधायक कांतिलाल भूरिया ने तो बंसल को भी पीछे छोड़ते हुए राम मंदिर के लिए किए जा रहे धन संग्रह को दारूबाजी से जोड़ दिया। इन सबके बीच यह खबर भी आई थी कि राजस्थान में कॉन्ग्रेस की छात्र विंग एनएसयूआई (NSUI) ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान शुरू किया है। इस अभियान का नाम है, ‘1 रुपया राम के नाम’। इस कैंपेन को लेकर वामपंथियों ने खुलेआम कॉन्ग्रेस को चुनौती दी और चेताया कि यदि इसे बंद नहीं किया तो कॉन्ग्रेस परंपरागत वोट खो देगी। इस्लामवादी पत्रकार राणा अयूब ने तो ट्विटर पर टैग कर सीधे राहुल गॉंधी से सवाल ही पूछ लिया। लेकिन कॉन्ग्रेस ने इस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
क्या कॉन्ग्रेस के लिए राम मंदिर, राम भक्त और बहुसंख्यक हिंदुओं की भावना का सम्मान सांप्रदायिकता है? अतीत तो यही बतलाता है, क्योंकि ये वही कॉन्ग्रेस है जिसने सत्ता में रहते हुए सुप्रीम कोर्ट में रामसेतु को लेकर एक हलफनामा दायर किया था और राम के अस्तित्व को नकार दिया था। यह वही कॉन्ग्रेस है जिसके पितृ पुरुष और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गर्भगृह से रामलला की मूर्तियों को हटाने के लिए तत्कालीन उत्तर प्रदेश की सरकार और फैजाबाद प्रशासन पर पूरा दबाव डाल रखा था। आजाद भारत में राम को झुठलाने की यह कॉन्ग्रेस की पहली कोशिश थी।
कॉन्ग्रेस के राजनीतिक रूप से कमजोर होने की वजह से आज भले राम मंदिर की राह आसान दिख रही हो, लेकिन हमें यह ध्यान रखना होगा कि इन प्रपंचों का जवाब नहीं दिया गया, इसे रिहाना, ग्रेटा और कथित किसान आंदोलन के नाम पर रची जा रही देश विरोधी साजिशों के बीच भूला दिया गया तो, मथुरा-काशी की राह लंबी हो सकती है।