महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना के गठबंधन के साथ ही मीडिया के एक गिरोह विशेष को मिर्ची लगी है। ख़ासकर उन लोगों को, जो शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को मोदी-विरोध का नया ‘पोस्टर बॉय’ मान बैठे थे। अतीत में शिवसेना की बात को गंभीरता से न लेने का दावा करने वाले कुछ तथाकथित पत्रकारों व विश्लेषकों ने सामना में छपने वाले लेखों का शब्दशः भावार्थ कर इसे भगवद् गीता की तरह बाँचना शुरू कर दिया था। ऐसे हथकंडा पसंद गिरोह को विशेषकर धक्का लगा है। यहाँ हम सबसे पहले बात इन्ही से शुरू करेंगे और अंत में सियासी समीकरणों की व्याख्या कर यह समझने की कोशिश करेंगे कि इस गठबंधन के पीछे किन कारकों ने अहम भूमिका निभाई।
जब शुरू हुआ उद्धव का महिमामंडन
उद्धव ठाकरे को कैसे लिबरल गैंग ने अपने ह्रदय में स्थापित कर के देवता की तरह पूजना शुरू कर दिया था, इसे समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना पड़ेगा। बात फरवरी 2017 की है, महाराष्ट्र में नगरपालिका के चुनाव परिणाम आ रहे थे। भाजपा और शिवसेना- दोनों की ही प्रतिष्ठा का प्रश्न बना यह चुनाव काफ़ी महत्वपूर्ण था। उस से भी ज्यादा महत्वपूर्ण था बृहन्मुम्बई नगरपालिका का चुनाव परिणाम। दोपहर तक शिवसेना आगे चल रही थी और लिबरल गैंग गदगद हुआ जा रहा था। आपको याद दिला दें कि उस चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग ताल ठोकी थी।
जब चुनाव परिणाम आए, तो भाजपा 2012 के मुक़ाबले भारी बढ़त में दिखी और शिवसेना का भी प्रदर्शन अच्छा रहा। चुनाव बाद दोनों दलों ने देश की सबसे अमीर नगरपालिका को चलाने के लिए गठबंधन किया और लिबरल गैंग को एक तगड़ा झटका दिया। हालाँकि, शिवसेना के ताज़ा सुर पर नाचने वाला यह गैंग फिर से शिवसेना को अपना फेवरिट मानने लगा जब पार्टी ने भाजपा के ख़िलाफ़ बाँसुरी बजानी शुरू की। उस धुन की हर एक ताल पर थिरकने वाले पत्रकारिता के समुदाय विशेष के पेंडुलम वाले व्यवहार का अध्ययन के लिए बरखा दत्त के एक ट्वीट को देखिए।
I used to call Udhav Thackeray ‘The Reluctant Fundamentalist’- soft spoken, photography lover; the #BMCPolls2017 herald his coming into own
— barkha dutt (@BDUTT) February 23, 2017
पत्रकारों का समुदाय विशेष जिस शिवसेना, बालासाहब ठाकरे और सामना को गाली देते नहीं थकता था, उसकी कुलदेवी ने उद्धव की तारीफ़ों के पुल बाँधने शुरू कर दिए। उन्हें एक झटके में उद्धव मृदुभाषी नज़र आने लगे। उन्हें उद्धव के कैमेरा प्रेम से प्रेम हो गया और उन्हें एक ‘अनिच्छुक रूढ़ीवादी’ बताया। इतना क्यूट विश्लेषण वो आतंकियों के लिए भी लाती रहीं हैं। कभी किसी आतंकी का मानवीय पक्ष उजागर किया जाता है, तो कभी उसके परिवार की कथित ग़रीबी का प्रचार किया जाता है।
सोमवार (फरवरी 18, 2019) को शिवसेना और भाजपा ने आगामी लोकसभा चुनावों में क्रमशः 23 एवं 25 सीटों पर ताल ठोकने का निर्णय लिया है। यह गिरोह विशेष के लिए और ज्यादा दुःखदायी है क्योंकि भाजपा ही बड़े भाई की भूमिका में नज़र आ रही है। यही नहीं, शिवसेना और भाजपा ने आगामी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए भी गठबंधन की घोषणा कर दी है जिसमे सीट शेयरिंग का फॉर्मूला 50-50 रखा गया है। इस तरह से शिवसेना-भाजपा का 30 साल पुराना गठबंधन अब पूरे ज़ोर-शोर से मराठा क्षेत्र में आधिपत्य के लिए चुनावी समर में साथ-साथ उतरेगा।
गडकरी-फडणवीस: महाराष्ट्र के नए महाजन-मुंडे?
वाजपेयी-अडवाणी के दौर में एक समय था जब गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन के नेतृत्व में भाजपा ने महाराष्ट्र में अपने पाँव जमाए थे। दोनों दिग्गज नेता असमय मृत्यु के शिकार हुए, जिसके बाद महराष्ट्र भाजपा में एक ऐसे शून्य का उद्भव हुआ, जिसे भर पाना हर किसी के बस की बात नहीं थी। नागपुर में संघ मुख्यालय होने के कारण महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भाजपा का पराभव पार्टी के लिए किरकिरी की वजह बन सकता था। उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें (48) महाराष्ट्र में ही है। ऐसे में, ऐन वक्त पर मोदी लहर के साथ कदमताल करते हुए देवेंद्र फडणवीस व नितिन गडकरी ने राज्य में भाजपा की मजबूती पर आँच नहीं आने दिया।
मुंडे व महाजन की सबसे बड़ी ख़ासियत थी उनके संयोजन की क्षमता। दोनों जनाधार वाले नेता तो थे ही, लेकिन मुश्किल के पलों में गठबंधन दलों के साथ मोलभाव से लेकर संकटमोचक की भूमिका तक- इन्होने मुंबई से दिल्ली तक भाजपा को कई मुश्किल परिस्थितियों से उबारा। अब यही भूमिका नितिन गडकरी निभा रहे हैं। जहाँ फडणवीस ज़मीनी स्तर पर अपनी पकड़ के लिए जाने जाते हैं, वहीं गडकरी अपनी प्रशासनिक क्षमता व संयोजनात्मक योग्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। भाजपा-शिवसेना गठबंधन में दोनों की भूमिका क़ाफी अहम रही है।
महाराष्ट्र नगर निगम चुनावों में जब भाजपा ने 10 में से 8 नगरपालिकाओं पर क़ब्ज़ा जमाया था, तब गडकरी ने नागपुर में फडणवीस के साथ बैठक कर गठबंधन की रूप-रेखा तय की थी। उन्होंने शिवसेना को चेतावनी देते हुए कहा था कि गठबंधन तभी संभव है जब सामना में पीएम मोदी की आए दिन होने वाली आलोचना बंद हो जाए। ये वाकया उन लोगों को भी जानना चाहिए जो अपने विश्लेषणों में गाहे-बगाहे गडकरी को मोदी के मुक़ाबले खड़ा करने की कोशिश करते रहते हैं।
गडकरी की एंट्री के बाद स्थिति सम्भली और शिवसेना-भाजपा बीएमसी चलाने के लिए साथ आने को तैयार हो गई। हाल के दिनों में जब शिवसेना ने फिर से भाजपा पर हमले शुरू कर पत्रकारों के गिरोह विशेष को आत्मसंतुष्टि देने का कार्य किया, तब फडणवीस ने इसका तोड़ निकाला। जनवरी 2019 में हुई एक कैबिनेट बैठक में शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे की याद में एक मेमोरियल बनाने का निर्णय लिया गया। इतना ही नहीं, उसके लिए तुरंत ₹100 करोड़ का बजट भी ज़ारी कर दिया गया।
मुंबई के दादर स्थित शिवजी पार्क में जब मेमोरियल के लिए ‘गणेश पूजन’ और ‘भूमि पूजन’ हुआ, तब शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे और मुख्यमंत्री फडणवीस ने एक मंच से जनता का अभिवादन किया। फडणवीस के इस दाँव से चित शिवसेना के पास उनका समर्थन करने के अलावा और कोई चारा न बचा। फडणवीस का शिवसेना को लेकर सख्त रुख था, लेकिन अंततः दोनों दल आगामी चुनावों के लिए गठबंधन में क़ामयाब हुए।
हिन्दुत्ववादियों की भावना का ख़्याल रखा
भाजपा और शिवसेना- दोनों को जो विचारधारा जोड़ती है, उसका नाम है हिंदुत्व। शिवसेना की छवि हिंदुत्ववादी पार्टी की रही है और भाजपा की कोर नीति भी भी कमोबेश यही है। इसीलिए संघ से लेकर ग्राउंड ज़ीरो तक जितने भी संगठन या कार्यकर्ता हैं, उन सभी की इच्छा थी कि भाजपा और शिवसेना गठबंधन करे। हाल में में उद्धव ठाकरे ने अयोध्या का दौरा कर अपनी पार्टी की हिंदुत्ववादी छवि को और मजबूती प्रदान किया। हालाँकि, यह दौरा भाजपा को यह बताने के लिए था कि शिवसेना राम मंदिर को लेकर उस से कहीं ज्यादा चिंतित है।
सोमवार को जब आगामी चुनावों के लिए भाजपा-शिवसेना गठबंधन का ऐलान हुआ, तब संघ व अन्य हिन्दू संगठनों से जुड़े सभी नेताओं ने इसका स्वागत किया। दोनों दलों के कई नेताओं के अंदर कहीं न कहीं यही समान भावना थी कि अगर हिंदुत्ववादी ताक़तें बँट जाएँ तो इसका फ़ायदा कॉन्ग्रेस या राकांपा को मिल सकता है।
Inspired by the vision of Atal Ji and Balasaheb Thackeray Ji, BJP-Shiv Sena alliance will continue working for the well-being of Maharashtra and ensuring the state once again elects representatives who are development oriented, non corrupt and proud of India’s cultural ethos.
— Narendra Modi (@narendramodi) February 18, 2019
मीडिया के गलियारों में यह भी चर्चा है कि सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी इस गठबंधन में अहम भूमिका निभाई है। उद्धव ठाकरे कभी मोहन भागवत को राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित करने की माँग कर चुके हैं। शिवसेना भाजपा पर तो हमलावर रही है, लेकिन अयोध्या से लेकर अन्य हिंदुत्ववादी मुद्दों तक- दोनों के सुर लगभग सामान रहे हैं। हाल ही में जदयू के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी शिवसेना नेताओं से मिल कर उन परिस्थितियों से अवगत कराया था।
ज़मीनी सच्चाई को भाँप गई शिवसेना
अब चर्चा आँकड़ों की। अगर भाजपा और शिवसेना के हाल के चुनावी प्रदर्शनों की बात करें तो पता चलता है कि भाजपा के उद्भव से शिवसेना ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही थी। पाँच राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में भाजपा की हार के बाद शिवसेना के तेवर और तल्ख़ हो गए और उसने नए सिरे से भाजपा पर हमले शुरू कर दिए। बिहार में गठबंधन को लेकर चल रहे मोलभाव ने भी शिवसेना को उत्साहित किया। पार्टी का यह मानना था कि वो कड़ा रुख रखने से महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका निभाने में सफल हो जाएगी।
पहले जहाँ शिवसेना राज्य स्तरीय चुनावों में बड़े भाई की भूमिका में रहती थी, वहीं भाजपा लोकसभा चुनावों में बड़े भाई की भूमिका निभाती थी। 2014 के बाद से इस समीकरण में बदलाव आया। उस साल हुए लोकसभा चुनाव में शिवसेना 20 सीटों पर लड़ी जबकि भाजपा 24 पर। उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा भारी फ़ायदे के साथ शिवसेना से लगभग दोगुनी सीटें जीतने में क़ामयाब रही। यहीं से शिवसेना अपने-आप को और ज्यादा असुरक्षित महसूस करने लगी। भाजपा की सीट संख्या 2009 में 46 से 2014 में सीधा 122 पर पहुँच गई। शिवसेना को 63 सीटें मिली जबकि पार्टी ने भाजपा से 22 ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा था।
अब हालिया गठबंधन से यह साफ़ है कि शिवसेना ने अंदर ही अंदर ख़ुद को जूनियर पार्टनर के रूप में स्वीकार कर लिया है। महाराष्ट्र में पहले से ही कमज़ोर नज़र आ रही कॉन्ग्रेस और राकांपा को अब इस गठबंधन का सामना करने के लिए नए सिरे से रणनीति बनानी होगी। राफेल पर कभी नरेंद्र मोदी के पक्ष में बोलने वाले पवार के साथ न तो शिवसेना का गठबंधन मेल खाता, और न भाजपा का। भ्रष्टाचार पर पवार को घेरने वाली भाजपा ने उनके गढ़ बारामती का जिक्र कर माहौल को गरमा दिया है।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस व अमित शाह ने सार्वजनिक तौर पर कहा कि आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा बारामती से जीत दर्ज करेगी। उधर शरद पवार ने पार्टी को उठाने के लिए ख़ुद लोकसभा चुनाव लड़ने का इशारा किया है। शरद पवार के प्रभाव वाले पश्चिमी महाराष्ट्र में भाजपा की आक्रामक नीति से घबराए 78 वर्षीय पवार ने लोकसभा चुनाव में ताल ठोकने की बात कह पार्टी कैडर में जान फूँकने की कोशिश की है। जो भी हो, सेना-भाजपा गठबंधन के बाद महाराष्ट्र का रण अब देखने लायक होगा।