वामपंथ आज किस तरह दुनिया से नकारा जा चुका है और नाकारा हो चुका है, इसकी तस्वीर वह खुद ही पेश भी कर रहा है। आज मजदूर दिवस के दिन अपनी गोष्ठियों में वह यह बैज बाँट रहे थे।
इस पर जो ‘कॉमन’ वाक्य लिखा है, उसे ध्यान से पढ़िए- यह महत्वपूर्ण है। वोट आउट द राईट विंग। अपने लिए कहीं वोट की अपील नहीं है। अपना कोई विचार, कोई प्रोग्राम, कोई एजेंडा नहीं है- बस एक हौव्वे के खिलाफ गोलबंदी है। और या फिर वह इतना घिसा-पिटा है कि उसे सामने रखकर वोट माँगने की हिम्मत ही नहीं है… लोग आपके, स्थान आपका, मौका भी आप ही का (क्योंकि आप ही के वैचारिक पूर्वज मजदूर दिवस शुरू कर गए हैं, और मजदूरों के हक़ की लड़ाई पर आप अपना पेटेंट मानते हैं), और फिर भी आपके पास सामने रखने के लिए अपना कोई मुद्दा, कोई विचार, कोई एजेंडा नहीं है।
दो-तीन महीने पहले मेरे एक मित्र गाँधी शांति संस्थान में कबीर की वैचारिक चेतना पर आधारित एक कार्यक्रम में गए थे। वहाँ भी बमुश्किल पाँच मिनट कबीर पर बात हुई, और उसके बाद “कबीर के समय की ही तरह कट्टरपंथी ताकतें आज भी कायम हैं”, “हमें फासीवादियों से लड़ना है”, “इनटॉलरेंस हावी हो रही है” शुरू हो गया।
क्या आज कम्युनिस्ट गैर-राजनीतिक कार्यक्रमों को ‘हाइजैक’ कर अपने भाषण इसीलिए दे रहे हैं क्योंकि पता है कि कम्युनिस्टों को क्या कहना है, वह सुनने में देश की दिलचस्पी ही खत्म हो गई है? समझ नहीं आ रहा इनकी इस स्थिति को दुःखद कहूँ या हास्यास्पद!
हर पैंतरा चूक चुका है
असहिष्णुता का बाजा बजा के देख लिया, 600 तुर्रम खां कलाकारों से मोदी को हारने की अपील करा ली, थर्ड फ्रंट- ये-वो गठबंधन-महागठबंधन वगैरह सब तरह की गोलबंदी करके देख ली, पर ‘राईट विंग’ को यह रोक नहीं पाए हैं। देश दिन-ब-दिन और ज्यादा राष्ट्रवादी होता जा रहा है, भाजपा का विजय-रथ रोके नहीं रुक रहा है और 2002 से लेकर हिन्दुओं को गरियाने तक इनके सारे पैंतरे उलटे पड़ रहे हैं। क्यों? क्योंकि हिंदुस्तान अब और विष नहीं पीना चाहता। ईर्ष्या और नफ़रत का वह विष जो कम्युनिस्टों की मूल विचारधारा में निहित है, और आज लाल आतंक बनकर इस देश को लहूलुहान कर रहा है।
सर्वहारा के नाम पर लड़ाई लड़ने वाले यह लोग या तो खुद ग़रीबों को मार रहे होते हैं, उनसे जबरन टैक्स-वसूली और अपनी गुरिल्ला-अदालतों में उनका क़त्ल कर रहे होते हैं, और या फिर अर्बन नक्सल बन अपने कॉमरेडों के रक्तरंजित हिंसा पर अकादमिक पर्दा चढ़ा रहे होते हैं। और आज सोशल मीडिया के दौर में जब यह सारा कच्चा चिट्ठा सामने आ रहा है, तो बाढ़ की तरह लोगों का मोह इनके यूटोपियाई सब्जबागों से भंग हो रहा है। और यही बौखलाहट हताशा बन रही है।
हताशा ही हताशा
कम्युनिस्ट खेमे को अच्छी तरह पता है कि आज देश में इनका कोई वजूद नहीं है- हर राज्य में इनके अधिकांश प्रत्याशी जमानत भी नहीं बचा पाते। त्रिपुरा, बंगाल जैसे पारंपरिक गढ़ों से ये खदेड़े जा चुके हैं, और केरल भी सबरीमाला के बाद यह बुरी तरह हारने वाले हैं। और इन्हें हराने वाले वही भाजपा-संघ हैं जिन्हें इन्होंने कॉन्ग्रेस के साथ गठजोड़ कर अपने ‘सम्भ्रांत’ गोले से 70 साल बाहर रखा।
यही खिसियाहट कभी अवार्ड-वापसी, असहिष्णुता जैसे वाहियात झूठों से निकलती थी, आज वही चीज अपनी जीत छोड़ दूसरे को हराने के चुनावी अभियान में दिख रही है। इसे ही साइकोलॉजी वाले हताशा कहते हैं।
यह हताशा ही है जिसके चलते जातिवाद से लड़ने का दावा करने वाले कम्युनिस्टों के नव-नेता पहले तो जातिवाद के पोस्टर-बॉय लालू यादव के श्रीचरणों में स्थान ग्रहण करते हैं, फिर राजद के बेगूसराय टिकट की टकटकी बाँधकर बाट जोहते हैं, और फिर अंत में वहाँ से ठेंगा खाने के बाद दिग्विजय सिंह जैसे अपनी ही पार्टी में वजूद के लिए लड़ रहे नेता से अपने लिए समर्थन जुटाने लगते हैं।
और जब हर पैंतरा फेल हो जाता है तो अंत में बस ‘भाजपा/मोदी/राईट विंग को हरा दो, हमें भले ही वोट मत दो’ की अपील इस बैज जैसे पैंतरों से करने लगते हैं।
इस बैज में जो अपील है, और आज जो गढ़चिरौली में हुआ है, वो बताता है कि यह डरावनी विचारधारा आखिर क्या चाहती है। हर ऐसी हिंसक घटना बताती है कि लेफ़्ट विंग अब सिर्फ और सिर्फ लेफ़्ट विंग टेरर के ही नाम से जाना जाता है क्योंकि इनकी एक अच्छाई इस समाज में सर्वाइव नहीं कर पाई है।
लोगों से अपने नाम पर वोट माँगने लायक इनका मुँह ही नहीं बचा है- FoE से लेकर हिंसा और असहिष्णुता तक हर चीज पर इनका दोहरापन दुनिया के सामने उजागर हो चुका है। इसीलिए यह अब खुद जीतने की बजाय दूसरे को हराने की अपील तक सीमित हो गए हैं।