दो शताब्दियों तक औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार के झंडे तले रहने के बाद भारत की आजादी की पृष्ठभूमि में इसके संविधान निर्माण का कार्य भी शुरू हो चुका था। आज भारतीय संविधान के 71 वर्ष पूरे हो चुके हैं। अक्टूबर 25, 1951 से फरवरी 21, 1952 तक आयोजित भारतीय आम चुनाव भारत की स्वतंत्रता के बाद लोकसभा का पहला चुनाव था। यह भारतीय संविधान के प्रावधानों के तहत आयोजित किया गया, जिसे नवंबर 26, 1949 को अपनाया गया था।
भारत का सर्वोच्च विधान संविधान सभा ने नवम्बर 26, 1949 को पारित किया लेकिन लागू हुआ जनवरी 26, 1950 से! आज के दिन को देश भर में संविधान दिवस के रूप में भी मनाया जाता है। संविधान के मूल्य और इसकी पवित्रता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई स्वतन्त्रता सेनानियों के खून, क्रांतिकारियों के बलिदान और भारत की जनता के शताब्दियों के संघर्ष के बाद भारत देश अपना विधान बनाने में सफल हुआ था। यह संविधान हमारे देश का आईना होने के साथ ही हमारे लोकतान्त्रिक मूल्यों की अभिव्यक्ति भी बना।
संविधान को अंतिम रूप देने की घटना नाटकीय थी और यह कई प्रकार की चर्चा, मनमुटाव और वाद-विवाद के पलों से गुजरा।
यूँ तो यह एक संविधान के तौर पर सम्पूर्ण दस्तावेज ही था मगर फिर भी तत्कालीन भारतीय राजनीति के प्रतिनिधि राजनीतिक पूर्वग्रहों के चलते देश के एक धड़े को संतुष्ट करने के लिए तो अहम फैसले लेते रहे लेकिन इसमें कुछ ऐसी कसर रखते गए, जिन्होंने कालांतर में भारत को गहरे जख्म दिए। इसका नतीजा दंगे, पलायन, कट्टरपंथ के उदय के रूप में सामने आता रहा।
ऐसे एक नहीं बल्कि अनेकों प्रमाण हैं, जो यह साबित करने के लिए काफी हैं कि आजादी के बाद भारत जिस नेहरूवियन मॉडल को लेकर आगे बढ़ रहा था, उसकी मंशा पूर्ण रूप से हिंदुओं को अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बना देने की ही थी।
इसके लिए कुछ बड़े नासूर छोड़ दिए गए। सबसे बड़ी भूल भारत के मस्तक कहे जाने वाले जम्मू कश्मीर राज्य के लिए अलग संविधान को मंजूरी देना था। यह अनुच्छेद 370 और 35 A ही थे, जिन्होंने कश्मीर घाटी में आतंकवाद और कट्टरपंथ को बढ़ावा देने के साथ ही एक ऐसे विचार को सींचने का काम किया, जिसके तहत जम्मू कश्मीर को भारत का हिस्सा बताना ही फासीवादी विचार हो गया। हालाँकि, उनके लिए मजहबी कट्टरपंथ, घाटी के हिंदुओं के साथ हो रही बर्बरता, लोगों के अधिकार कोई बड़ा विषय नहीं रहे।
आखिरकार कई दशकों बाद जब केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त करने का फैसला लिया तो जम्मू कश्मीर को अपनी बपौती समझने वाले राजनीतिक दलों की छटपटाहट देखते ही बन रही है। यह संविधान के सबसे आवश्यक सुधारों में से एक और सबसे अहम था, जिसे केंद्र सरकार की इच्छाशक्ति ने कर दिखाया।
भीमराव अंबेडकर भी इस अनुच्छेद और राज्य के अलग संविधान के खिलाफ थे। वास्तव में यह तथ्य वर्तमान की केंद्र सरकार के फैसले का विरोध करने वाले लोगों के लिए जानना आवश्यक है कि यह अनुच्छेद संविधान में भीमराव अंबेडकर की इच्छा के खिलाफ रखा गया था। इस अनुच्छेद को लेकर बाबा अंबेडकर ने कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला को स्पष्ट रूप से कहा:
“आप चाहते हैं कि भारत को आपकी सीमाओं की रक्षा करनी चाहिए, उसे आपके क्षेत्र में सड़कों का निर्माण करना चाहिए, उसे आपको अनाज की आपूर्ति करनी चाहिए, और कश्मीर को भारत के समान दर्जा देना चाहिए। लेकिन भारत सरकार के पास केवल सीमित शक्तियाँ होनी चाहिए और भारतीय लोगों को कश्मीर में कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। इस प्रस्ताव को सहमति देने के लिए, भारत के कानून मंत्री के रूप में भारत के हितों के खिलाफ एक विश्वासघाती बात होगी।”
अनुच्छेद 370 के अलावा समान नागरिक संहिता (UCC), आरक्षण का विषय, श्रीराम मंदिर जन्मभूमि, NRC, CAA आदि कुछ ऐसे अहम विषय थे, जिन पर यदि आजादी के तुरन्त बाद कोई फैसला लिया जाता तो देश समय-समय पर कई किस्म की त्रासदियों से गुजरने से बच सकता था।
आरक्षण
भारत में आरक्षण आज एक भावनात्मक और राजनीतिक मुद्दा है। अल्प समय के लिए रखे गए इस अस्थायी प्रावधान ने राजनीतिक इच्छाशक्ति और तुष्टिकरण का रूप ले लिया। आज हालात ये हैं कि जिनके पास आरक्षण है, वो इसे छोड़ना नहीं चाहते, और जिनके पास नहीं है वो सूची में नाम जुड़वाना चाहते हैं।
आजादी के संघर्ष के दौरान सबसे मशहूर घटनाक्रमों में से एक पूना पैक्ट आरक्षण की नींव माना जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है। लेकिन इस पर कोई स्थिर और गंभीर फैसला आना सम्भव नजर नहीं आता।
स्वतन्त्रता के सात दशक बाद आरक्षण के विरोध में बोलना राजनीतिक आत्महत्या के बराबर हो चुका है। कोई भी दल, कोई भी नेता आरक्षण के विरोध में जाने की सोचना तो दूर, इसके खिलाफ बोलने की हिमाकत नहीं कर सकता। नतीजा यह है कि आरक्षण का विषय सामाजिक न्याय और वंचितों को मिलने वाले न्याय के बीच ही एक बड़ी दीवार और राजनीतिक हथकंडा बन कर खड़ा है।
समान नागरिक संहिता
समान नागरिक संहिता की आवश्यकता इस देश में आज के समय मे शायद सबसे अधिक है। इसका बड़ा कारण कथित धर्म निरपेक्ष राजनीतिक दलों की समुदाय विशेष के अधिकारों की आड़ में अपनी राजनीति को दिशा देने की कोशिश करना है।
इस देश को यदि धर्म की विभिन्न धूरियों में पिसते रहने के बजाय अन्य जरूरी मामलों में प्रगति करने के बारे में विचार करना है तो उसके लिए समय की माँग समान नागरिकता संहिता ही है। आखिर एक ही देश में एक मजहब अपनी शरीयत को ही हर बड़े-छोटे फैसले का आधार बनाकर और दूसरा धर्म अपने मंदिरों से लेकर अपने राजनीतिक फैसलों के लिए सत्ता और संविधान पर कैसे निर्भर रह सकता है? ऐसे में, संविधान की प्रस्तावना में धर्म निरपेक्षता शब्द का अर्थ क्या सिर्फ एक मजहब विशेष का समर्थन नहीं हो जाता?
संविधान में शरुआत से ही तीन तलाक पर कानून, NRC, CAA जैसे प्रावधानों के लिए जगह होनी चाहिए थी, लेकिन हिंदुओं के अधिकारों की जगह धर्म निरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों ने ली। आज भी भारत नागरिकता कानून पर बहस कर रहा है, हिंदुओं को नागरिकता देने की बात को आश्चर्यजनक रूप से मुस्लिम विरोधी साबित करने के प्रयास किए गए।
यह भारत की धर्म निरपेक्षता के खोखलेपन का ही सबूत है कि हिंदुओं के पास आज अपनी एक ‘होम लैंड’ नहीं है जबकि कथित अल्पसंख्यक, जो संविधान को शरीयत के नीचे ही रखते आए हैं, वो हिंदुओं के अधिकारों पर बहस के बजाय देश जला देने की क्षमता रखते हैं। और उन्होंने इसके लिए जम्मू कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक ऐसा किया भी है।
संविधान की सम्पूर्णता तक पहुँचने के लिए भारत जैसे देश को अभी बहुत लम्बी दूरी तय करनी है। कुछ अहम फैसले हैं, जिनके लिए वर्तमान केंद्र सरकार जितनी ही मजबूत इच्छाशक्ति और राजनीतिक स्थिरता की आवश्यकता होगी। फिलहाल, समय संविधान दिवस का गौरव मनाने का है, क्योंकि नागरिकों के अधिकारों का पहला और आखिरी स्तम्भ हर हाल में यही है। क्योंकि जब संविधान है, तभी हम अधिकारों की भी आशा कर पाते हैं।