महबूबा मुफ़्ती कश्मीर की हैं। महबूबा जी महिला हैं। महबूबा जी मजहब विशेष की हैं। महबूबा जी कश्मीरी आतंकियों की हिमायती हैं। महबूबा जी, इनसे सबसे अलग, एक नेत्री हैं। नेत्री शब्द नेता का स्त्रीलिंग है, लेकिन इस में भी नेता या ‘नेत्ता’ वाले सारे गुण होते हैं। यही गुण आपको मजबूर करता है कि आप वाहियात बातें लिखती रहें ताकि अपने जनाधार को किसी भी क़ीमत पर बचाया जा सके।
महबूबा जी जानती हैं कि कश्मीर में उनकी पार्टी की पोजिशन कैसी है, इसलिए वो कभी आतंकियों को माटी के पूत तो कभी आतंकियों को नेता बताती रहती हैं। साथ ही, महबूबा जी यह भी कहती रहती हैं कि धारा 370 हटा तो पूरा देश जल उठेगा, कोई तिरंगा नहीं उठाएगा और यहाँ तक कि कश्मीर हिन्दुस्तान से अलग हो जाएगा और उनके हाथ काट दिए जाएँगे जो ऐसी कोशिश करेंगे। हालाँकि, महबूबा मुफ़्ती ने यह नहीं बताया कि वो कश्मीर को हिन्दुस्तान से अलग कराएँगी कैसे।
अब कल की बात करते हैं जब श्रीमती महबूबा ने ट्वीट के माध्यम से जीवन-दर्शन दिया कि हर मानव, चाहे वो आतंकी ही क्यों न हो, मृत्यु के बाद मर्यादा का पात्र होता है। आगे उन्होंने भारतीय सेना को आदतानुसार घेरते हुए कहा कि उन्हें पता चला है कि सेना आतंकियों के लिए रसायनों का प्रयोग करती है जिससे लाश बिगड़ जाती है। महबूबा लिखती हैं कि सोचिए उस बालक की स्थिति जो अपने भाई की जली-कटी लाश देखेगा। क्या वह लड़का बंदूक उठा ले तो कोई आश्चर्य होगा हमें?
Every human even a militant deserves dignity after death. Armed forces use of chemicals in encounters disfiguring their bodies is inhuman.Imagine the emotions that’ll overcome a boy who sees his brother’s mutilated charred body. Would you be surprised if he picked up a gun? https://t.co/nzBYxyHk6z
— Mehbooba Mufti (@MehboobaMufti) April 17, 2019
महबूबा जी, ऐसा है कि आप कई मायनों में गलत हैं। पहली बात तो यह है कि यह ज्ञान अपने पास रखिए कि आतंकियों की लाश भी मर्यादित व्यवहार का पात्र होती है। ये किसने कहा, और कहाँ कहा, और क्यों कहा, यह मुझे पता नहीं लेकिन मेरे लिए आतंकी और मर्यादा, टेररिस्ट और डिग्निटी, दोनों शब्द एक पंक्ति में आने योग्य नहीं हैं। दूसरी बात, फर्जी बातों कहते हुए सेना पर लांछन तो मत लगाओ देवी! क्योंकि इस सेना ने जितने जवान खोए हैं, जिस हालात में खोए हैं, और फिर भी जिस सहिष्णुता का परिचय दिया है, उसके मत्थे कैमिकल इस्तेमाल करने की बातें अविश्वसनीय ही लगती हैं।
किस सेना पर इस तरह के आरोप लगा रही हैं आप? भारतीय सेना पर जो सिर्फ सहती आई है, जिन्होंने ग़ज़ब का धैर्य दिखाया है, जिन्होंने हर बाढ़ और आपदा में उन्हीं लोगों को सहारा दिया है जिनकी गलियों में उनकी गाड़ियों पर पत्थर, और उनके जवानों के पैदल जाने पर थप्पड़ तथा गालियाँ सही हैं। इस सेना के तो पाँव भी चूमो तो जन्नत मिल जाए जिन्होंने हर तरह के दुर्व्यवहार के बाद भी, असीम धैर्य का परिचय दिया है।
जिसने मानवता के खिलाफ, अपने मज़हब के नाम पर, या किसी और कारण से निर्दोषों को मारने के लिए हथियार उठा लिए हों, उसके लिए मेरे पास कोई दया, करूणा, क्षमा आदि नहीं। एक आतंकी सिर्फ मारता ही नहीं, वो ख़ौफ़ भी पैदा करता है, वो पूरे समाज को नकारात्मकता की ओर धकेल देता है। आतंकी वारदातों के बाद लोगों की दिनचर्या बदल जाती है, ज़िंदगियाँ बुरी तरह से प्रभावित होती हैं।
इसलिए, आतंकियों के लिए किसी भी तरह के मर्यादित व्यवहार की बात उनके ऊपर ही रहने दीजिए जिनके दोस्त, देशवासी, सहकर्मी, जवान या संबंधी उनका शिकार बने हैं। उनकी मर्ज़ी कि वो आतंकियों में ख़ौफ़ कैसे पैदा करें कि अगर कोई बच्चा अपने भाई की जली-कटी लाश देखे तो वो बंदूक न देखे, वो यह देखे कि बारह सालों के भीतर उसे भी सेना खोज कर मार देगी, अगर उसने गलत राह चुनी।
आखिर आतंकियों के सम्मान का कोई सोच भी कैसे सकता है? फिर याद आता है कि ये तो नेत्री भी हैं, इनको तो वोट भी वही लोग देते हैं जो आतंकियों के जनाज़े में टोपियाँ पहन कर पाकिस्तान परस्ती और भारत को बाँटने की ख्वाहिश का नारा लगाते शामिल होते हैं। आखिर महबूबा इन आतंकियों के सम्मान के लिए नहीं लड़ेगी तो कौन लड़ेगा!
महबूबा जी, अगर कोई बच्चा अपने भाई की लाश देख कर बंदूक उठाता है, और आपको आश्चर्य नहीं होता तो उस बच्चे की और आपकी अपनी परवरिश में समस्या है। मुझे दुःख होता है हर उस बच्चे के लिए जो आतंकी भाई की लाश को देख कर यह नहीं सोच पाता कि किसी निर्दोष की हत्या करना पूरी मानवता के खिलाफ अपराध है, बल्कि यह सोचता है कि उसके भाई को किसी ने मार दिया, तो वो भी किसी की जान ले लेगा।
इसके बाद आप आतंक और उसके कुत्सित चक्र को जस्टिफाय कर रही हैं कि चोर का बेटा चोर बने, रेपिस्ट का भाई पुलिस वाले के घर में बम फोड़ दे, और आतंकी के घर वाले उसकी मौत पर घर से आतंकी होने का कैम्पस सेलेक्शन लेकर एरिया कमांडर बन जाएँ। अगर ऐसा करना एक प्राकृतिक चुनाव होता कि अपराधी के घर वाले, अपराधी की फाँसी पर राष्ट्र के खिलाफ होकर हथियार उठा लेते, तो अपराध कभी कम ही नहीं होते।
लेकिन, कश्मीरी परिवारों का तो पता नहीं, सामान्य बुद्धि का इंसान यह समझता है कि अगर सेना या पुलिस ने किसी आतंकी को, चाहे वो उसका घर वाला ही क्यों न हो, सजा दी है, या एनकाउंटर में वो मारा गया, तो वो एके सैंतालीस लेकर नमाज़ तो पढ़ नहीं रहा होगा, या प्रवचन तो दे नहीं रहा होगा। वो तो इसी फेर में होगा कि सैनिक दिखें तो उसको गोली मार दे। कभी वो गोली मार देता है, कभी सेना उसे घेर कर मार देती है। इसलिए, उसे सगे-संबंधी यह कहते हैं कि उसे वही मिला, जो उसने बोया था। ये न्याय है।
जबकि, आप या आपके राज्य के नेता जब इन आतंकियों की पैरवी में आवाज उठाते हैं, उन्हें एक मौका देने की बात करते हैं, शांति की पहल करने को कहते हैं, तो आप यह भूल जाते हैं कि सरकार ने हर संभव कोशिश कर ली लेकिन भारतीय लोगों की असमय मृत्यु पर रोक नहीं लगी। हर दूसरे दिन सेना के जवान, या आम आदमी को इनके आतंक ने निगल लिया। फिर इनके लिए कैसी दया?
इसलिए महबूबा जी, यह ध्यान रखिए कि लाशों का सम्मान तो ज़रूरी है, लेकिन उन लाशों का जिन्होंने समाज की रक्षा के लिए, उसकी बेहतरी के लिए, देश की सीमा और आंतरिक सुरक्षा के लिए जान दी हो। उन लाशों का सम्मान ज़रूरी है जिन्होंने गाँव-घर में एक अच्छा जीवन जिया, जिन्होंने कुछ वैसा नहीं किया जिससे समाज नकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ हो। सम्मान उस सामान्य व्यक्ति के शव का होना चाहिए जो एक अच्छा व्यक्ति हो, अच्छा पिता हो, अच्छी माँ हो, बहन हो, भाई हो, पति हो, पत्नी हो, किसी का अच्छा मित्र रहा हो, और मानव जीवन की छोटी कमियों के बावजूद उसकी अच्छाई उसके अवगुणों पर भारी पड़ती हो।
आतंकी की लाश इनमें से किसी भी परिभाषा के दायरे में नहीं आती। आतंकियों को ठिकाने लगाने में सरकार का खर्चा होता है। पैसे भी जाते हैं, समय भी, वरना उत्तम तो यही होता जो मैं लिख या बोल नहीं सकता। वैसे भी, जब आतंकी कोई वारदात करता है, तो यही लोग तो सबसे पहले कहते हैं कि वो सच्चा मजहबी नहीं था, आतंक का मज़हब नहीं होता आदि। फिर मरने के बाद उसकी लाश को मज़हब की ज़रूरत क्यों पड़ जाती है?
ऐसे लोग तो उदाहरण बनाए जाने चाहिए ताकि इन्हें देख कर आने वाली पीढ़ी उन्हें हीरो की तरह नहीं, एक आतंकवादी की तरह देखे। माफ कीजिएगा, कश्मीर में तो दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। मेरे कहने का अर्थ है कि इन्हें अपनी ही आबादी, अपने ही समाज, अपने ही राज्य और राष्ट्र का दुश्मन समझा जाए ताकि परिवार वाले भी इन्हें नकार दें।
जब आपके जैसे लोग ऐसे ट्वीट करते हैं, और जब हजारों लोग उन आतंकियों के जनाज़े में जाते हैं तब संदेश यही जाता है कि आतंकी ही सही था। अच्छा लगा कि कम से कम आपके लिए इस ट्वीट के हिसाब से आतंकी गलत तो है। लेकिन जब आप उसे मर्यादा और सम्मान देने की बात करते हैं तो आप उन लोगों को मंसूबों का हवा दे रही होती हैं जो इसे आज़ादी की लड़ाई मानता है, जिसके लिए इस्लाम का परचम लहराना मुख्य लक्ष्य है, जिसके लिए पूरी दुनिया पर ख़िलाफ़त के लिए लड़ना शहादत है।
इसलिए, एक ज़िम्मेदार जगह से इस तरह की भाषा का प्रयोग, और यह कहना कि आतंकी के भाई का बंदूक उठा लेना नेचुरल सी बात है जिस पर किसी को आश्चर्य नहीं होगा, तो आप उसी व्यवस्थित आतंक की बात के पक्ष में खड़ी हो रही हैं, जहाँ हर परिवार का हर व्यक्ति आतंक के सहारे, आज़ादी और इस्लामी शासन की तथाकथित लड़ाई लड़ रहा है। ये जस्टिफिकेशन कश्मीरी जनता को तीस सालों से साल रहा है क्योंकि जिस आवाम के नेता और नेतृत्व आतंकियों के भाई के आतंकी हो जाने पर आश्चर्य नहीं कर पा रहे हों, वहाँ की जनता के लिए तो सच में यह एक नेक कार्य है।