Sunday, November 17, 2024
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हिंदुओं के जख्मों पर ‘खेला होबे’: बंगाल ने न डायरेक्ट एक्शन डे से सीखा, न गोपाल पाठा को याद रखा

आम नागरिक के लिए डायरेक्ट एक्शन डे जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को जानबूझकर याद न रखना या उन्हें भूल जाना बंगाल की राजनीतिक संस्कृति के लिए नई बात नहीं है। यह अलग बात है कि लगातार बदल रही राजनीति, नेताओं का राजनीतिक दृष्टिकोण और डेमोग्राफी में बदलाव के कारण आज यह महत्वपूर्ण हो गया है।

डायरेक्ट एक्शन डे! धार्मिक आधार पर भारतवर्ष के विभाजन की मुस्लिम लीग की माँग का जब राजनीतिक हल न निकल सका तब जिन्ना ने घोषणा की कि मुसलमान लड़कर पकिस्तान लेंगे। डायरेक्ट एक्शन डे 16 अगस्त 1946 के दिन मोहम्मद अली जिन्ना की घोषणा का परिणाम था। जिन्ना ने कलकत्ता को इसलिए चुना क्योंकि बंगाल में मुस्लिम लीग की सरकार थी और हुसैन सुहरावर्दी बंगाल का मुख्यमंत्री था। दंगे इतने भीषण थे कि अनुमान के अनुसार पहले ही दिन चार हज़ार से अधिक लोग मारे गए। जिन्ना, सुहरावर्दी और शेख मुजीबुर्रहमान ने मुस्लिम लीग की ओर से बंगाल के मुसलामानों का नेतृत्व किया। यह जिन्ना के आह्वान का ही परिणाम था कि कलकत्ते के साथ-साथ नोआखाली और बिहार में भी भीषण दंगे हुए। इन दंगों का असर यह रहा कि कॉन्ग्रेस पार्टी ने जिन्ना की अलग देश की माँग को स्वीकार कर लिया।

सोशल मीडिया के लोकप्रिय होने से पहले कलकत्ता दंगों की बात कही और सुनी तो जाती थी पर यह बात आम नहीं थी कि ये दंगे जिन्ना की डायरेक्ट एक्शन डे की घोषणा का परिणाम थे। एक आम भारतीय के लिए डायरेक्ट एक्शन डे जैसे ऐतिहासिक घटना के बारे में न जान पाने के पीछे क्या कारण हो सकते हैं? आखिर ऐसा क्यों एक भारतीय नागरिक को इतनी भीषण ऐतिहासिक घटना के बारे में सहजता से जानने का मौका न मिले? यह किस सरकारी नीति का परिणाम होगा? क्या स्वतंत्रता के पश्चात की कॉन्ग्रेस सरकारों द्वारा सांप्रदायिक सौहार्द्र बनाए रखने की आड़ में यह तय किया गया कि डायरेक्ट एक्शन डे जैसे इतिहास के घिनौने अध्याय को आम भारतीय केवल इसलिए न पढ़ सकें क्योंकि उन्हें पता चल जाएगा कि इन दंगों के परिणामस्वरूप ही कॉन्ग्रेस पार्टी ने जिन्ना की माँग स्वीकार कर ली थी?

डायरेक्ट एक्शन डे के दिन शुरू हुए दंगे चार दिनों तक चले और उसमें करीब दस हज़ार लोग मारे गए। महिलाएँ बलात्कार का शिकार हुईं और जबरन लोगों का धर्म परिवर्तन करवाया गया। इन दंगों में हिन्दुओं की ओर से गोपाल चंद्र मुख़र्जी, जिन्हें गोपाल पाठा के नाम से भी जाना जाता है, की भूमिका की कहानी बहुत प्रसिद्ध है। गोपाल मुख़र्जी ने एक वाहिनी का गठन किया था जिसने इन दंगों के दौरान हिन्दुओं की रक्षा की और वाहिनी इस तरह से लड़ी कि मुस्लिम लीग के नेताओं को गोपाल मुख़र्जी से खून-खराबा रोकने के लिए अनुरोध करना पड़ा। आज भी गोपाल पाठा के बारे में सोशल मीडिया पर काफी उत्सुकता पाई जाती है। आज के पश्चिम बंगाल की परिस्थितियाँ शायद गोपाल मुख़र्जी को और प्रासंगिक बना देती हैं।

इस घटना के बारे में कहा जाता है कि ऐसा ‘अनुमान’ है कि जिन्ना की मंशा दंगे करवाने की नहीं थी। वो बस इतना चाहते थे कि उनके आह्वान के परिणामस्वरूप शहर के लोग अपनी दुकानें और अपने कारोबार बंद रखें। यह बात किसी भी दृष्टिकोण से तार्किक प्रतीत होती है? बंद या हड़ताल का आह्वान करते हुए कोई नेता उसे डायरेक्ट एक्शन डे का नाम किस मंशा से या किन परिस्थितियों में देगा? किस तरफ से यह एक तार्किक बात लगती है? प्रश्न यह उठता है कि आज भी किताबों में ऐसा लिखने के पीछे क्या मंशा हो सकती है? प्रश्न यह भी उठता कि 16 अगस्त 1946 का दिन यदि हड़ताल के बारे में ही था तो मुस्लिम लीग ने इतनी बड़ी रैली कैसे की जिसमें लीग के नेताओं ने भड़काऊ भाषण दिए? गोपाल मुख़र्जी के बारे में भी आम भारतीयों को अधिक नहीं पता, यह अलग बात है कि वे साल 2005 तक जीवित थे। ऐसे में एक आम भारतीय के लिए ये सारे प्रश्न उत्सुकता का कारण होंगे ही।

डायरेक्ट एक्शन डे के बारे में जितनी जानकारियाँ पहले थीं वे क्या पर्याप्त थीं? इस प्रश्न का आम भारतीय का उत्तर लगभग एक जैसा होगा। ऐसे में स्वाभाविक बात है कि यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाने का आह्वान करते हैं तो क्या गलत करते हैं? देश या पश्चिम बंगाल के नागरिकों का डायरेक्ट एक्शन डे के बारे में जानने का उतना ही अधिकार है जितना किसी भी अन्य ऐतिसाहिक घटना के बारे में जानने का। पर प्रश्न यह है कि ऐसा क्यों है जो पश्चिम बंगाल के लोगों ने डायरेक्ट एक्शन डे जैसी भीषण ऐतिहासिक घटना से कुछ भी नहीं सीखा? क्योंकि यदि सीखा होता तो क्या वर्तमान में सत्ता पर काबिज दल 16 अगस्त के दिन खेला होबे दिवस मनाने की सार्वजनिक घोषणा कर पाती? क्या यह केवल संयोग की बात है कि खेला होबे दिवस मनाने के लिए मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 16 अगस्त को चुना?

आखिर बंगाल के लोग डायरेक्ट एक्शन डे को क्यों नहीं याद रख पाए? यह प्रश्न इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि वामपंथियों की राजनीतिक संस्कृति को देखते हुए प्रदेश के लोगों को राजनीतिक तौर पर काफी सक्रिय माना जाता है। आम भारतीयों के मन में यह धारणा है कि बंगाल के लोग राजनीतिक रूप से अन्य प्रदेश के लोगों की अपेक्षा अधिक सक्रिय होते हैं। इसका एक संभावित उत्तर यह हो सकता है कि राजनीतिक रूप से सक्रिय होना और राजनीतिक रूप से अभिज्ञ होना सर्वथा अलग-अलग बात है।

डायरेक्ट एक्शन डे तो 75 साल पहले की घटना है, यहाँ तो लोगों को वामपंथियों द्वारा किया गया मरीचझांपी नरसंहार का ही पता नहीं है जो अपेक्षाकृत हाल की घटना है। एक आम बंगालवासी को आनंदमार्गियों की हत्या भी याद नहीं। यह कहने में कोई जोखिम नहीं है कि लगभग चार दशकों की वाम राजनीति और राजनीतिक संस्कृति ने बंगाल के लोगों को बहुत कुछ याद करने से रोक रखा था। उसके ऊपर मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान बनाने की माँग को लेकर सीपीआई का दृष्टिकोण अब स्पष्ट रूप से सार्वजनिक हो चुका है। ऐसे में आश्चर्य की बात नहीं कि बंगाल के हिन्दुओं को डायरेक्ट एक्शन डे याद नहीं है।

आम नागरिक के लिए डायरेक्ट एक्शन डे जैसी ऐतिहासिक घटनाओं को जानबूझकर याद न रखना या उन्हें भूल जाना बंगाल की राजनीतिक संस्कृति के लिए नई बात नहीं है। यह अलग बात है कि लगातार बदल रही राजनीति, नेताओं का राजनीतिक दृष्टिकोण और डेमोग्राफी में बदलाव के कारण आज यह महत्वपूर्ण हो गया है कि लोग ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं के लिए अपने स्मृति पटल पर थोड़ी जगह खाली रखें। इससे भूतकाल में हुई घटनाओं को सँवारा नहीं जा सकता, पर इन्हें याद करके भविष्य में इनकी पुनरावृत्ति को लेकर सतर्क हुआ जा सकता है। ऐसा करना एक आम नागरिक को जानने में सहायक साबित हो सकती है कि यदि किसी नेता ने 16 अगस्त के दिन ही खेला होबे दिवस मनाने की घोषणा की है तो उसका राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्व क्या है और ऐसे कदम राज्य या देश को किस ओर ले जा सकते हैं। यह प्रदेश ही नहीं, देश के भविष्य की बात है।

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